ओमप्रकाश चौटाला को दूसरी बार अदालती सजा।
सुरेंद्र किशोर ।
आजादी के तत्काल बाद के शासकों ने जिन मजबूत जातियों को उपेक्षित किया, उन लोगों ने चौटाला जैसे नेता अपने लिए चुन लिए।
चार पहियों पर टिका ‘साम्राज्य’
1.भ्रष्टाचार, 2.अपराध, 3.जातिवाद और 4.सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग- ये वो चार तत्व हैं जिन पर ओम प्रकाश चौटाला जैसे नेताओं की राजनीति निर्भर रही। वैसे इस मामले में चौटाला इस देश के अकेले नेता नहीं हैं।
कल दिल्ली की एक अदालत ने जब ओमप्रकाश चौटाला को चार साल की सजा दी तो उससे एक बार फिर यह साबित हुआ कि इन चार पहियों की गाड़ी पर चढ़कर जो नेता राजनीति करेगा, वह देर-सबेर चौटाला वाली तार्किक परिणति को प्राप्त करेगा- दोपहिए पर बैठा बीमार और लाचार!
भ्रष्टों की लंबी कतार
इससे पहले भी चौटाला की तरह ही गलत साधनों का इस्तेमाल करने वाले नेताओं को सजाएं हुई हैं और आगे भी कई नेता सजा की लाइन में हैं।
याद रहे कि नरेंद्र मोदी कहते हैं कि “न खाएंगे और न खाने देंगे।” नरेंद्र मोदी ने कहा कि “परिवारवादी पार्टियां लोकतंत्र ही नहीं बल्कि युवाओं की भी दुश्मन हैं।” प्रधानमंत्री ने ठीक ही कहा है।
जांच एजेंसियां और अदालतें ऐसे परिवारवादी दलों के विवादास्पद नेताओं का ‘इलाज’ ठीक ढंग से कर रही हैं। यदि मोदी सन 2024 में भी सत्ता में आ गए तो ऐसे अनेक बाकी नेताओं के इलाज का काम भी पूरा हो जाएगा।
कहां से मिली ताकत
किंतु परिवारवादी-जातिवादी दलों का भी अपना एक पक्ष है। सवाल है कि आखिर ऐसे दल इतने ताकतवर कैसे हुए?
ये इसलिए हुए क्योंकि आजादी के तत्काल बाद की राजनीतिक कार्यपालिका ने समाज के सभी समुदायों के लोगों के सम्यक विकास व कल्याण के काम पर ध्यान नहीं दिया। उन्हें अपनी ही जाति व लगुए-भगुए से फुर्सत नहीं थी।
आजादी के तत्काल बाद केंद्र व राज्यों में जिन जातियों के नेतागण सत्ता के शीर्ष पर थे,उनकी जातियों का अपेक्षाकृत अधिक ‘कल्याण’ हुआ।
नतीजतन विकास से वंचित किंतु बाहुबल से मजबूत जातियों ने अपने-अपने बीच से दबंग नेता चुन लिए। जातियों ने उन्हें राजनीतिक ताकत पहुंचाई।
नतीजा यह हुआ कि वैसे नेताओं में समय के साथ कई अवगुण भी घर कर गए। उन्हीं अवगुणों का परिणाम ओम प्रकाश चौटाला जैसे नेता झेल रहे हैं।
‘प्रतिभावानों’ ने भी कम नहीं लूटा
आजादी के तत्काल बाद के अनेक शीर्ष सत्ताधारी न सिर्फ आॅक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज शिक्षित थे बल्कि भारत रत्न से भी नवाजे गए थे। फिर भी 1985 आते-आते 100 सरकारी पैसे घिस कर 15 पैसे ही रह गए।
इससे यह हुआ कि उनका यह तर्क वंचितों के सामने मिट्टी में मिल गया कि वे प्रतिभा संपन्न थे, इसलिए शासन करने के हकदार थे।
तो हमारी जातिवाला क्यों पीछे रहे
वंचित किंतु दबंग जातियों के अधिकतर लोगों ने यह सोचा कि जब प्रतिभावालों को भी लूटना और लुटवाना ही है तो हमारे समुदाय के नेता क्यों न लूटें? इस पर किसी को एतराज क्यों? हालांकि उनका यह तर्क सही नहीं था।
ऐसे तर्कों से मिली ताकत के कारण देश में जो नेतागण बाद के वर्षों में उभरे, सत्ता में आए, वे अब बारी -बारी से जेल जा रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लेखक की वॉल से साभार)