प्रदीप सिंह । 
शुक्रवार 23 अप्रैल को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जो किया वह कल्पनातीत है। देश का कोई भी मुख्यमंत्री ऐसा करने की सोच नहीं सकता। उन्होंने क्या किया और यह कितनी शर्मनाक बात है इस पर चर्चा से पहले कुछ पॉजिटिविटी, कुछ उम्मीद की बात करते हैं। 

जब हम पॉजिटिविटी या उम्मीद की बात करते हैं तो उसका मतलब यह कतई नहीं है कि देश की जो स्थिति है वह गंभीर या भयावह नहीं है। निश्चित रूप से गंभीर है- भयावह है। ऑक्सीजन की कमी है, अस्पतालों में बेड की कमी है- इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। यह सच्चाई है। कोई भी यह नहीं कह सकता कि इस स्थिति को इग्नोर कर दीजिए, इस पर ध्यान मत दीजिए चर्चा भी मत कीजिए- केवल पॉजिटिव बातें कीजिए।
हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए कि संक्रमण कम से कम हो, दवा सहज रूप से और जल्दी उपलब्ध हो, जिनको ऑक्सीजन की जरूरत है उन्हें ऑक्सीजन मिले- जिसे अस्पताल में बेड की जरूरत है उसे बेड मिले- जिसे वेंटिलेटर की जरूरत है उसे वेंटिलेटर मिले… यह सब उपलब्ध होना चाहिए। यह सब चीजें जहां कम हैं वहां बढ़ाई जानी चाहिए। यह काम सब लोग मिलकर कर सकते हैं। यह एक बात हुई।

‘गुड न्यूज़ इज नो न्यूज़’ -क्या कहते हैं चार्ल्स ग्रोइंह्यूजन

USA beyond Trump | Charles Groenhuijsen | TEDxAmsterdam - YouTube
दूसरी बात यह कि पॉजिटिविटी किस तरह का असर डालती है समाज पर और लोगों के मन पर और नेगेटिविटी किस तरह का असर डालती है। इस पर हालैंड के पत्रकार हैं चार्ल्स ग्रोइंह्यूजन का कहना है कि ‘हमने जो धारणा बना रखी है कि ‘गुड न्यूज़ इज नो न्यूज़’ यह सही नहीं है। पत्रकारिता एक आईने की तरह है। हमारे दर्शक या पाठक चीजों को वैसा ही देखना चाहते हैं जैसे कि वह हैं। जिस तरह से हम अपने बच्चे के लालन पोषण के समय यह देखते हैं कि उसको क्या सिखाया जाए। उसको आप सिर्फ बुरी बातें नहीं सिखाते। उसको आप यही नहीं सिखाते कि दुनिया में सब बुरा है, खत्म होने वाला है, तुम कहां पैदा हो गए ऐसे समय में। आप उसको कुछ अच्छी बातें, कुछ उम्मीद की बातें भी सिखाते हैं। एक संतुलन होना चाहिए। सब कुछ खत्म होने वाला है, बर्बाद होने वाला है या फिर इस समय केवल श्मशान घाट और कब्रिस्तान ही हैं, ऑक्सीजन की कमी से जूझते लोग हैं -पर ऐसा ही नहीं है।

उम्मीद का दीया

हमारी नजर उन लोगों पर भी है जो अस्पताल में नहीं हैं, अस्पताल के दरवाजे पर नहीं खड़े हैं, जो अपने घर में हैं। क्या उनको डराया जाना चाहिए? क्या उनके मन में निराशा भरी जानी चाहिए? क्या उनको नाउम्मीद किया जाना चाहिए।
उम्मीद बहुत बड़ा संबल होता है। अगर उम्मीद हो, भरोसा हो, तो आदमी बड़ी से बड़ी बीमारी से भी लड़ लेता है। वरना दवा भी कम असर करती है। डॉक्टर या मनोचिकित्सक कहते हैं कि उन लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि क्या हो रहा है। अगर वे तीन दिन बाद बीमार पड़ते हैं तो स्थिति आज से बेहतर होगी या खराब होगी। दवा, ऑक्सीजन बेड की उपलब्धता घटने जा रही है या बढ़ने जा रही है। यह जानकारी देने में क्या बुराई है। कुछ लोगों को ऐसा करना अच्छा नहीं लगता- फिर भी हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संक्रमण की सबसे अधिक समस्या वाले 10 राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात की। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने सरकारी और निजी क्षेत्र के ऑक्सीजन उत्पादकों से बात की कि कैसे ऑक्सीजन का उत्पादन, उपलब्धता बढ़ाई जाए और डिस्ट्रीब्यूशन ठीक किया जाए। इस समय एक समस्या यह हो रही है कि जहां ऑक्सीजन की उपलब्धता ज्यादा है वहां संक्रमण के मामले कम है और जहां संक्रमण के मामले ज्यादा है वहां ऑक्सीजन की उपलब्धता कम है।
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ऑक्सीजन की किल्लत वाले राज्य हैं- दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और कर्नाटक। ऑक्सीजन की आवश्यकता से अधिक उपलब्धता अर्थात सरप्लस वाले राज्य हैं- केरल, तमिलनाडु, राजस्थान, उड़ीसा। दूरी बहुत अधिक होने के कारण वहां से ऑक्सीजन लाने में मुख्य समस्या समय की है। केंद्र सरकार ने इस काम में एयर फोर्स को लगाया है कि खाली कंटेनर एअरलिफ्ट करके उन राज्यों में पहुंचाए जहां उन में ऑक्सीजन भरी जा सके। फिर वहां से ऑक्सीजन को सड़क या रेल द्वारा उन राज्यों में पहुंचाया जाए जहां उसकी जरूरत है। इस काम में रेल को भी लगाया गया है। उसके खुले प्लेटफार्म वाले कंटेनरों में- जिसमें ट्रक भी चढ़ जाता है- उसे ग्रीन कोरोडोर बनाकर वहां पहुंचाया जाए जहां उसकी कमी है। एक ट्रेन कल आ लखनऊ पहुंच दूसरी कल सुबह बोकारो से रवाना हुई है। तो इस तरह ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ाने की कोशिश हो रही है।

साजिश का कारोबार

इस बीच आज सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग हाई कोर्ट में चल रहे तमाम मामलों को क्लब कर मामले की सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अलग-अलग हाईकोर्ट में सुनवाई होने से एक असंतुलन पैदा होने का खतरा है किसी राज्य को संसाधन ज्यादा मिल सकते हैं, किसी को कम मिल सकते हैं। अब इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की भी आलोचना शुरू हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वकील हरीश साल्वे, जिनकी निष्ठा और योग्यता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, अदालत का मित्र नियुक्त किया। उन्हें कितनी गालियां मिलने लगी, इतनी आलोचना होने लगी कि उन्होंने मना कर दिया कि मैं काम नहीं करूंगा। इस तरह गिद्ध अपनी साजिश में सफल हो गए और हरीश साल्वे इस मामले से अलग हो गए।
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आईटीबीपी ने कोरोना की पिछली लहर के दौरान भी दिल्ली में सबसे बड़ा कोविड हॉस्पिटल बनाया था। कई लोगों का सवाल है कि अगर बनाया था तो अब वह कहां गया? जवाब यह है कि जब कोरोना संक्रमण के केस आने बंद हो गए तो 23 फरवरी को उसे बंद कर दिया गया था। इसके अलावा रेलवे ने तमाम कोच अस्पताल के रूप में कन्वर्ट कर दिए थे। उस पर भी यही सवाल किया गया कि रेलवे ने कोच में बेड बनाए थे, वो कहां गए। जब मरीज नहीं होंगे तो रेलवे क्या करती… लोगों से कहती कि आप बीमार हो या नहीं- यहां आकर लेट जाइए। वे फिर से तैयार किए जा रहे है। दिल्ली में आईटीबीपी का अस्पताल दिन में तैयार हो रहा है। सेना ने कहा है कि वह अपने आर आर हॉस्पिटल में कोविड के 1000 बेड का इंतजाम करने जा रही है। लखनऊ में ढाई सौ बेड का कोविड हॉस्पिटल बन चुका है। ढाई सौ और बेड का कोविड हॉस्पिटल बन रहा है। बनारस में हॉस्पिटल बनाया जा रहा है।
ये सब तैयारियां हो रही हैं लेकिन अभी की स्थिति संकटपूर्ण है। ऑक्सीजन की बात करें तो इमरजेंसी जैसी स्थिति है। लोगों को दिक्कत-परेशानी हो रही है। दवा और हॉस्पिटल में बेड की दिक्कत है- इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।

आपदा में राजनीति

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वहीं दूसरी तरफ स्थिति को बढ़ा चढ़ा कर वास्तविकता से अधिक भयावह दिखाने की भी कोशिश हो रही है- उसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश हो रही है। शुक्रवार को एक घटना हुई जब प्रधानमंत्री कोविड की तैयारियों पर मुख्यमंत्रियों के साथ बातचीत कर रहे थे। पिछली बार की तरह इस बार भी पश्चिम बंगाल कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उस बैठक में नहीं आईं। देश में या उनके प्रदेश में संक्रमण की क्या स्थिति है इससे उनको कोई मतलब या लेना देना नहीं है। खैर वह एक अलग बात है।

गलती नहीं, अपराध

बैठक में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक ऐसा काम किया की प्रधानमंत्री को सबके सामने उन्हें लताड़ना पड़ा। प्रधानमंत्री की मुख्यमंत्रियों के साथ ऐसी कोई भी बैठक क्लोज्ड डोर मीटिंग होती है। उस मीटिंग में केजरीवाल जो बोल रहे थे उसका सीधा प्रसारण करवा रहे थे। केजरीवाल मीटिंग में कोई तैयारी करके नहीं आए थे। दिल्ली में क्या स्थिति है, क्या जरूरत है, उन्होंने क्या तैयारी की है, केंद्र सरकार से क्या मदद मिल रही है व उन्हें और क्या चाहिए- इस सब पर कोई बात नहीं कर रहे थे। वे बाहर के लोगों को सुनाने के लिए अपना भाषण दे रहे थे कि एयर फोर्स से ऑक्सीजन एयर लिफ्ट करा लेनी चाहिए। उन्हें नहीं पता कि यह पहले से हो रहा है। वह ऐसी बातें कर रहे थे जो उनकी राजनीति को आगे बढ़ाएं। प्रधानमंत्री ने कहा कि आज आपने ऐसा काम किया है जो प्रोटोकॉल के विरुद्ध है। प्रधानमंत्री ने यह बात बहुत संयम के साथ कही। अरविंद केजरीवाल को समझ में आ गया, उन्होंने कहा- अगर मुझसे कोई गलती हुई है तो मैं माफी चाहता हूं।
इस भीषण त्रासदी के समय में इतना बड़ा अपराध करने के बाद केजरीवाल कह रहे हैं कि अगर कोई गलती हुई हो! अगर सामान्य इस स्थिति में किसी राजनीतिक मसले पर बातचीत हो रही होती तो भी शायद यह बात या अपराध क्षम्य हो सकता था। लेकिन एक डिजास्टर के समय जहां इमरजेंसी की स्थिति है, लोगों की जान बचाने की जद्दोजहद चल रही है, वहां आप किस तरह की पॉलिटिक्स कर रहे हैं। और यह पॉलिटिक्स केजरीवाल ही नहीं कर रहे हैं उनका तंत्र भी कर रहा है।

अलग अलग नामों से चार ट्वीट- भाषा एक

जरा इन चार ट्वीट पर नजर डालिए। नाम अलग-अलग लेकिन भाषा एक ही है। पहला ट्वीट स्वाति मालीवाल का है जो केजरीवाल की साली साहिबा हैं। लिखती हैं- my nana died waiting for emergency इसके बाद तीन और लोगों के ट्वीट हैं। चारों के नाना मरे हैं एक ही अस्पताल में। आप समझ सकते हैं कि यह क्या है? यह वही टूलकिट है जो किसान आंदोलन के समय इस्तेमाल हुई थी।
इस बात की कोशिश हो रही है कि किस प्रकार कोविड की समस्या/संकट को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाए? किस तरह से इस बात का अभियान चलाया जाए कि जो कुछ वास्तव में है वह बहुत बड़ा दिखे। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि जब लोग अपनी जान बचाने के लिए जूझ रहे हों, सारा सिस्टम उनकी जान बचाने के काम में लगा हो, तब आप इस तरह की राजनीति कर रहे हैं। इस बात को कोई नहीं मान सकता कि ऐसा स्वाति मालीवाल ने अपने आप किया होगा और इसमें केजरीवाल की सहमति नहीं होगी। ट्वीट में वो लिखती हैं कि ग्रेटर नोएडा के शारदा अस्पताल के सामने साढ़े तीन घंटे से मरीज को भर्ती कराने के लिए खड़ी हूं। जाहिर है कि मरीज अगर उनके नाना जी हैं तो वह मुख्यमंत्री जी की पत्नी के भी नाना जी होंगे। यानी दिल्ली के मुख्यमंत्री के रिश्तेदार को दिल्ली में कहीं बेड नहीं मिला और उनकी साली को यूपी जाकर ग्रेटर नोएडा में साढ़े तीन घंटे इंतजार करना पड़ा। वह कह रही हैं कि बड़ी शर्मनाक बात है। वाकई में ऐसा है तो ये शर्मनाक है। लेकिन कितने लोगों के साथ ऐसा हुआ? चारों लोगों के साथ।

षडयंत्र का भंडाफोड़

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चार ट्वीटों की इस श्रृंखला की चौथी ट्वीट पूरे षडयंत्र का भंडाफोड़ करती है। इसमें पहली लाइन लिखी है- प्लीज ट्वीट दिस। फिर कोष्टक में लिखा है कि ‘यह लाइन हटाने के बाद’। बाकी लोगों ने जो ट्वीट भेजा है उसमें यह लाइन हटाने के बाद एक ही भाषा है- एक कामा या विराम का भी अंतर नहीं है। न कहीं कोई एक शब्द इधर से उधर हुआ है ताकि थोड़ा तो अलग लगता। सबकी हूबहू एक ही भाषा है। इसका क्या मतलब है? फिर यूपी ही क्यों चुना? दिल्ली से लगता हुआ तो हरियाणा, राजस्थान का भी बॉर्डर है।

गिद्धों की सभा का नया ठिकाना यूपी

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ऐसा इसलिए कि यह सब ‘गिद्ध’ अब उत्तर प्रदेश में इकट्ठा होकर सभा करने वाले हैं और यह उसकी तैयारी है। इसलिए उत्तर प्रदेश के अस्पतालों को चुना गया है। शायद आपने भी गौर किया हो कि पिछले दस- पन्द्रह दिनों से श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों के जो वीडियो दिखाए जा रहे हैं वे सब उत्तर प्रदेश के हैं। मरने वालों और संक्रमितों की सबसे ज्यादा संख्या महाराष्ट्र में है। उसके बाद तमिलनाडु में। छत्तीसगढ़ में स्थिति बहुत खराब है। पंजाब में हालात बिगड़े हैं। पर इन राज्यों के वीडियो/खबरें आपने नहीं देखे होंगे। ऐसा क्यों? क्योंकि यही उनका एजेंडा है। यह गिद्ध हैं और मौके की तलाश में हैं। महामारी, महासंकट और इस भयावह स्थिति में भी अपनी राजनीति कर रहे हैं। समस्या को सोशल मीडिया के जरिए और विकराल दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।

मंत्री बनवाने का जिम्मा लेती थीं

एक मोहतरमा हैं। राडिया टेप में आपने उनका नाम सुना होगा। उस समय मनमोहन सिंह की सरकार थी और वह केंद्रीय मंत्री बनवाने का जिम्मा लेती थीं। वह सरकार चली गई, वह जिम्मा चला गया, और भी कुछ चला गया उनके पास से- आजकल वह श्मशान घाट से रिपोर्टिंग कर रही हैं। उनका मकसद क्या है? मकसद है कि वे दहशत फैलाने वाले चित्र, वीडियो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाएं और भारत की इमेज खराब हो। वह इसमें कामयाब हो गईं। उनके द्वारा सोशल मीडिया पर डाले गए चित्रों को अलजजीरा ने उठाया और भारत के विरोध में प्रचार शुरू हो गया।

एक अलग तरह की राजनीति

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हमारा विरोध इन प्रवृत्तियों से है। हमारा विरोध इस बात से नहीं है कि आप लिख रहे हैं ऑक्सीजन नहीं मिल रही, मरीज को बेड नहीं मिल रहा या दवा नहीं मिल रही। यह बताना बहुत अच्छी बात है। पर इसके साथ-साथ आप यह भी बताएं कि कहां यह मिल रहा है (अगर मिल रहा है तो)… फिर यह और भी अच्छी बात होगी। लोगों में यह उम्मीद जगाएं कि स्थिति बहुत खराब है लेकिन इसमें सुधार हो रहा है, भले कुछ धीमा हो रहा है… और आगे और भी सुधार हो इसके प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन यहां तो एक अलग तरह की राजनीति हो रही है। आखिर यह लोग क्या बताना चाहते हैं? देश को क्या दिखाना चाहते हैं? यह कि जो स्थिति है वह उससे और खराब दिखे। लोगों में पैनिक हो। इन लोगों की इच्छा तो यह होगी कि लोग सड़कों पर आ जाएं, सरकार के विरोध में खड़े हो जाएं, जो कुछ किया जा रहा है उसको होने ना दें।

‘टूलकिट’ फिर से एक्टिव

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इस प्रकार देश में अराजकता फैलाने का यह सुनियोजित षड्यंत्र है। किसान आंदोलन के समय की टूलकिट फिर से एक्टिव हो गई है, उसी को रिवाइव किया गया है। यह अंदाजा लगाना बहुत कठिन नहीं है कि इस षड्यंत्र को आगे बढ़ाने और कामयाब बनाने के लिए क्या-क्या तरीके अपनाए जा रहे हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री के साथ हो रही बैठक में इस तरह की शर्मनाक हरकत कोई चुना हुआ मुख्यमंत्री कर सकता है, उसको भरी सभा में शर्मिंदा होना पड़ता है, लेकिन उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। आप देखेंगे कल वह फिर उसी तरह से खड़े होंगे और उसी काम में लगेंगे। अरविंद केजरीवाल दिल्ली के लिए एक अभिशाप की तरह हैं यह आप मान कर चलिए। हालांकि वह चुने हुए मुख्यमंत्री हैं इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि लोगों ने गलत फैसला किया।

केजरीवाल यानी हंगामा, हल्ला, पैनिक

Will people of Delhi not get oxygen if...': Kejriwal asks PM Modi in Covid-19 meet | Hindustan Times

गुजरात के सूरत में ऑक्सीजन की कमी हुई तो वहां दो दिन में ऑक्सीजन का नया प्लांट खड़ा कर दिया गया। प्रधानमंत्री के साथ बैठक में अगर केजरीवाल बताते कि उन्होंने पिछले एक साल या फिर दस/पन्द्रह दिन में दिल्ली को संक्रमण से बचाने के लिए क्या किया, तो बात समझ में आती। सिर्फ हंगामा करना, हल्ला मचाना और लोगों में पैनिक क्रिएट करना- यह काम उन्होंने किया है। तीन-चार दिन पहले उन्होंने बयान दिया कि अब मैनेज करना बड़ा मुश्किल हो रहा है, इसलिए आप ऑक्सीजन का इंतजाम सेना के हवाले कर दीजिए। यह किस तरह के मुख्यमंत्री हैं। जरा सा संकट आता है तो हाथ पांव फेंकने लगते हैं। अरविंद केजरीवाल जी को समझना चाहिए कि उनके ये हथकंडे पुराने हो चुके हैं और जनता को सही सही बात समझ में आने लगी है। ऐसे में केजरीवाल को ‘गिद्धों का सरताज’ कहने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। वह सिर्फ ओछी राजनीति करने में माहिर हैं जिसमें वाक़ई उनका कोई सानी नहीं है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए केजरीवाल किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। प्रधानमंत्री के साथ बैठक के दौरान हुई घटना उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ऐसे में सावधान रहने की जरूरत है दिल्ली वालों को भी और देश के लोगों को भी… क्या ऐसा ही नेता चाहिए उनको।

पहचानिए इन ‘गिद्धों’ को

Kevin Carter | Kevin carter, Photographer, Documentary photography

एक बहुत मशहूर फोटोग्राफर/फोटो जर्नलिस्ट हुए केविन कार्टर (13 सितंबर 1960 – 24 जुलाई 1994)। मशहूर यूं हुए कि 1993 में सूडान में अकाल पड़ा। वहां पर फोटोग्राफी के लिए गए। वहां उन्होंने फोटो खींची जिसकी बाद में बहुत चर्चा हुई। उसमें एक अशक्त, अकालग्रस्त बच्चा है जो चलने में असमर्थ है। कुछ दूरी पर संयुक्त राष्ट्र संघ का एक फूड सेंटर है। बच्चा रेंग रेंग कर वहां तक जाने की कोशिश कर रहा है जहां उसे खाना मिल जाएगा। उससे कुछ फुट की दूरी पर एक गिद्ध इस इंतज़ार में बैठा है कि कब बच्चे की सांसें टूटें और वह उसका भोजन बने। केविन कार्टर ने फोटो खींची जो 26 मार्च 1993 को न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी। बाद में इसी फोटो के लिए उनको पुलित्जर पुरस्कार मिला। 

उस बच्चे का क्या हुआ 

This Bang-Bang Club woke up to gunfire

सूडान में अपनी आंखों देखी अकाल की विभीषिका और कुछ और बातों को लेकर केविन कार्टर काफी डिप्रेशन में रहने लगे। एक दिन केविन कार्टर के पास एक फोन आया। फोन करने वाले ने पूछा कि मैंने आपकी फोटो देखी। आप यह बताइए कि उस बच्चे का क्या हुआ? कार्टर ने कहा, ‘मुझे नहीं मालूम मैंने फोटो खींची और चला आया।’ ऐसा नहीं है कि केविन कार्टर उस बच्चे को जानबूझकर छोड़कर चले आए थे या चले आना चाहते थे। 

एक नहीं- दो गिद्ध  

दरअसल जिन शर्तों के साथ वे वहां गए थे उनमें यह शामिल था कि वह वहां किसी को छुएंगे नहीं, किसी को हाथ नहीं लगाएंगे, किसी से बात नहीं करेंगे। केवल फोटो खींचना उनका काम था। इसलिए फोटो खींचा और चले आए। तब फोन करनेवाले व्यक्ति ने कहा कि ‘दरअसल उस दिन वहां एक नहीं बल्कि दो गिद्ध थे। एक गिद्ध बच्चे की सांस टूटने का इंतजार कर रहा था और दूसरा गिद्ध उसकी फोटो खींचकर नाम कमाना चाहता था।’ इस बात का उनको बहुत सदमा लगा। हालांकि वह पहले भी कई कारणों से सदमे में थे और ड्रग वगैरह भी लेने लगे थे। पुलित्जर पुरस्कार मिलने के तीन चार महीने बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली। भले अपने सुसाइड नोट में उन्होंने फोन वाली बात का जिक्र नहीं किया लेकिन माना जाता है कि इस और तमाम अन्य बातों का उन पर काफी असर था और इसी कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली। ऐसे तमाम गिद्ध आपको भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग में दिखाई दें जाएंगे।

मुर्दाघर, श्मशान में पाजिटिविटी खोज रहे गिद्ध 

Corona in Varanasi: Long queues of dead bodies at crematorium - वाराणसी में भयावह मंजर : श्मशान घाट पर शवों की लंबी कतारें, एक साथ जल रही हैं दर्जनों चिताएं | UP

इस समय बुद्धिजीवियों और मीडिया का एक  वर्ग मुर्दाघर, कब्रिस्तान और श्मशान घाटों में अपने लिए पॉजिटिविटी खोज रहा है। इन जगहों पर कौन पॉजिटिविटी खोजने जाता है- सिर्फ एक जीव या पक्षी को इन जगहों पर पॉजिटिविटी मिलती है और वह है- गिद्ध। 

कहां हो फोकस 

देश में आज महामारी की विभीषिका है। उससे इनकार नहीं किया जा सकता। प्रयास हो रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाई जा सके। हालांकि आदर्श स्थिति तो यह है कि ऐसी व्यवस्था होती कि एक भी व्यक्ति की जान नहीं जाती। लेकिन जो चले गए हैं सिर्फ उनके ऊपर फोकस करके- जो बच गए हैं या जिनको बचाया जा सकता है उनकी अनदेखी कर दें, उनके लिए कुछ ना किया जाए और अगर उनके लिए कुछ किया जा रहा है तो उसकी आलोचना करें- यह कौन लोग हैं- कौन सी मानसिकता या प्रवृत्ति है… ‘यह सब छोड़ो यह बताओ कि जो चले गए वे क्यों चले गए।’ 
यह सवाल भी वाजिब है कि जो चले गए क्या उनको बचा जा सकता था, क्या स्थिति ऐसी थी कि हमारी तैयारी पहले से ज्यादा होती- इन तमाम ऐसी बातों का लेखा जोखा कोविड जाने के बाद किया जा सकता है। जिम्मेदारी भी तय की जा सकती है कि इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं। यह जानबूझकर, लापरवाही में हुआ या तैयारी में कमी के कारण हुआ इन सब कारणों का पता चल सकता है। 

दहशत बनाम उम्मीद 

लेकिन अभी हमारी पूरी ऊर्जा इस बात पर लगनी चाहिए कि जो लोग घरों में बैठे हुए हैं- डरे हुए हैं कि हमको भी संक्रमण हो गया तो अस्पताल में बेड, दवा मिलेगी या नहीं। वैक्सीन लगवाना है तो वैक्सीन मिलेगी या नहीं- उनको कुछ सांत्वना मिले। उनके लिए तो हमारे पास यह खबर होनी चाहिए कि कैसे ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है, कैसे स्थितियां बेहतर करने के प्रयास हो रहे हैं। लोगों की जान बचाने की कोशिशें हो रही हैं क्या यह बताना बुरी बात है? क्या यह बताना इंसानियत का दुश्मन होना है? 
कहा जा रहा है कि जो लोग पॉजिटिविटी की बातें कर रहे हैं, लोगों में जीवन के प्रति उम्मीद जगा रहे हैं- वे इंसानियत के दुश्मन हैं। और जो लाशों में पॉजिटिविटी ढूंढ रहे हैं और घंटो घंटो नेगेटिविटी दिखा रहे हैं- घरों में बैठे लोगों को और डरा रहे हैं, उनमें दहशत पैदा कर रहे हैं- क्या वे लोग कुछ मौतों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। ये इंसानियत के दुश्मन हैं या वे जो लोगों में उम्मीद जगा रहे हैं कि इतना घबराने की जरूरत नहीं है ,आने वाले समय में स्थितियां बेहतर हो सकती हैं।

लाशों में खबर 

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जो सिर्फ लाशों में खबर खोज रहे हैं, जिनकी नजर में आज खबर सिर्फ मुर्दाघर, कब्रिस्तान और श्मशान घाट है, उनकी समस्या यह है कि अगर आज लोगों में जिंदा रहने के प्रति विश्वास बढ़ेगा तो उनका विमर्श खत्म हो जाएगा। गिद्ध की नजर हमेशा लाश पर रहती है- ऐसे गिद्धों से सावधान रहिए।