#pradepsinghप्रदीप सिंह।

भारत के इतिहास खासतौर से स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास और उसमें भी कांग्रेस के इतिहास के ऐसे तमाम पहलू हैं जिनको बताने की बजाय दबाने की कोशिश हुई। इतिहास की उन्हीं घटनाओं को बताने की कोशिश हुई जिससे एक परिवार का महिमामंडन हो सके, जो उस परिवार के खिलाफ जा सकती है, उस परिवार को खराब रौशनी में दिखा सकती है उसको दबाने की छुपाने की कोशिश लगातार हुई। आप अंदाजा लगाइए कि उसके बारे में 70-75 साल बाद छन-छन कर जानकारी बाहर आ रही है। वह भी थोड़ी-थोड़ी आ रही है पूरी नहीं आ रही है और कांग्रेस के पास उसका कोई जवाब नहीं है।

आजादी मिलने से एक-दो महीने पहले की बात है जब भारत का झंडा तय होना था। जुलाई 1947 में संविधान सभा ने सर्वसम्मति से भारत के झंडे का स्वरूप और डिजाइन तय किया। आज जो राष्ट्रीय ध्वज है वही स्वरूप था लेकिन महात्मा गांधी को यह पसंद नहीं था। उनका कहना था कि जिस झंडे में चरखा नहीं है उस झंडे को वह सलाम नहीं कर सकते, भारत के झंडे की कल्पना चरखा के बिना नहीं की जा सकती है। आपको बता दें कि चरखा सहित जिस झंडे को स्वीकार करने की बात की जा रही थी वह कांग्रेस पार्टी का झंडा था लेकिन बात केवल चरखे की होती तो समझ में आती। चरखे के प्रति गांधी जी के प्रेम के बारे में सबको पता है और उसमें कोई बुराई नहीं थी। मगर अशोक चक्र को लेकर उनका जो ऐतराज था वह बड़ा अजीब है। उनका कहना था कि बहुत से लोग कह रहे हैं कि यह सुदर्शन चक्र है और सुदर्शन चक्र का क्या मतलब होता है यह मैं जानता हूं। मगर इस मुद्दे को छोड़ दीजिए। इससे भी बड़ी बात यह थी कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू दोनों यह चाहते थे कि भारत के झंडे के एक कोने में यूनियन जैक हो यानी अंग्रेजों का झंडा हो। अब आप इसकी कल्पना कर सकते हैं कि जिसके खिलाफ आपने इतनी लंबी आजादी की लड़ाई लड़ी उस ब्रिटेन के झंडे को स्वतंत्र भारत के झंडे में शामिल करना चाहते हैं।

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तिरंगे के साथ यूनियन जैक भी फहराया जाए

लॉर्ड माउंटबेटन ने एक सुझाव दिया था। उन्होंने एक पत्र जवाहरलाल नेहरू को भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि 15 अगस्त और 9 ऐसे अवसर जिसकी उन्होंने बाकायदा एक सूची भेजी थी, भारत के राष्ट्रीय ध्वज के साथ-साथ यूनियन जैक भी फहराया जाना चाहिए। नेहरू जी को ऐतराज बाकी कुछ पर नहीं था केवल 15 अगस्त, 1947 पर था। उन्होंने कहा कि 15 अगस्त, 1947 का विशेष महत्व है, उस दिन तो नहीं हो सकता लेकिन उसके बाद 1948 और बाद के वर्षों में हो सकता है। उन्होंने अपने मित्र और ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त वीके कृष्ण मेनन को चिट्ठी लिखी कि भारतीय उच्चायोग पर भारतीय झंडे के साथ-साथ ब्रिटिश झंडा भी फहराया जाएगा। माउंटबेटन ने जो सूची दी थी उसके बारे में मैं आपको बताता हूं कि किस-किस दिन झंडा फहराने को कहा था। 1 जनवरी (सेना दिवस), 1 अप्रैल (वायु सेना दिवस), 25 अप्रैल (इन्जैक दिवस), 29 मई (कॉमनवेल्थ दिवस), 12 जून (ब्रिटेन के राजा का जन्मदिन), 14 जून (झंडा दिवस), 4 अगस्त (ब्रिटेन की महारानी का जन्मदिन), 7 नवंबर (जल सेना दिवस), 11 नवंबर (रिमेंबरेंस डे ऑफ वर्ल्ड वॉर) और 15 अगस्त तो था ही।

गांधी जी का अनोखा तर्क

माउंटबेटन आजादी के बाद भी भारत को एक तरह से ब्रिटेन का उपनिवेश बनाकर रखना चाहते थे। माउंटबेटन ऐसा चाहते थे तो इसमें कोई बुराई नहीं थी क्योंकि वह अपने देश के हिसाब से सोच रहे थे, उसके हित के हिसाब से सोच रहे थे। मगर हमारे देश के जो कर्णधार थे जवाहरलाल नेहरू इसके लिए तैयार थे। उनको इस पर कोई ऐतराज नहीं था, सिर्फ 15 अगस्त, 1947 के अलावा। यह सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है। ऐसे में यह आशंका मन में उठना बड़ा स्वाभाविक है कि आप अंग्रेजों से लड़ रहे थे या मिलकर कुछ कर रहे थे। गांधी जी ने जो कहा वह छपा हुआ ऐतिहासिक तथ्य है। गांधी जी ने मुंबई की प्रार्थना सभा में कहा कि उनको पता चला है कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने उनके प्रस्ताव को और माउंटबेटन के प्रस्ताव को रद्द कर दिया है कि भारतीय ध्वज में एक किनारे पर यूनियन जैक हो। उन्होंने कहा कि मुझे यह खबर सुनकर बहुत दुख हुआ। कांग्रेस के लोगों ने सदासयता नहीं दिखाई, दोस्ती नहीं दिखाई। सवाल यह है कि अंग्रेजों से दोस्ती की बात 1947 में कैसे हो सकती थी। उन्होंने उससे भी आगे जाकर कहा कि यह ठीक है कि ब्रिटेन ने अत्याचार किया लेकिन उनके झंडे ने तो अत्याचार नहीं किया। दुनिया में ऐसा अनोखा तर्क आपने कभी नहीं सुना होगा, यह केवल महात्मा गांधी बोल सकते थे। बाद में उन्होंने कहा कि मेरी इतनी ताकत नहीं है, मेरी ताकत पहले जैसी होती तो चरखा वाले झंडे को स्वीकार करवाता, इस झंडे को मैं कभी सलाम नहीं करूंगा।

माउंटबेटन के सुझाव पर नेहरू को नहीं था ऐतराज

नेहरू ने माउंटबेटन से यह नहीं कहा कि आपने जो सुझाव दिया है उससे मैं सहमत नहीं हूं, उनके शब्दों पर ध्यान दीजिए बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में जो राष्ट्रवादी लोग हैं वह इसको स्वीकार नहीं करेंगे। भारत के राष्ट्रवादी नेता इसको स्वीकार नहीं करेंगे कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में ब्रिटेन का भी ध्वज हो। इसका मतलब है कि नेहरू खुद को उस तरह का राष्ट्रवादी नहीं मानते थे। गांधी जी ने जो कहा था कि हम लोगों के बीच में जवाहर अकेला अंग्रेज है, तो बिल्कुल सही कहा था। गांधी जी ने लिखा कि अंग्रेज अपनी स्वेच्छा से जा रहे हैं, हमें शासन सौंप कर जा रहे हैं तो हमको कट्सी दिखानी चाहिए और भारतीय ध्वज में यूनियन जैक को शामिल कर लेना चाहिए। दुनिया का इतिहास पढ़ लीजिए, किसी भी देश में उस देश के जो भी नेता आजादी के आंदोलन में शामिल रहे हों, छोटे, बड़े या मझौले कोई भी, उनमें से किसी ने ऐसा प्रस्ताव नहीं दिया होगा कि जिसने हमको गुलाम बनाकर रखा उसका झंडा हमारे झंडे में शामिल हो लेकिन ऐसा हुआ।

क्या साइकोलॉजिकल सिंड्रोम के थे शिकार

नेहरू ने नहीं उतारा 'यूनियन जैक', गाँधी ने 'अशोक चक्र' को नहीं दी थी सलामी

कांग्रेस के लोग यह दावा करते हैं कि नेहरू जी को तिरंगे से कितना प्रेम था, उन्होंने कांग्रेस के झंडे को राष्ट्रीय ध्वज नहीं बनाया। नेहरू जी को तिरंगे से प्रेम था या नहीं, यह साबित करना तो बड़ा कठिन है। अगर तिरंगे से प्रेम होता तो उसमें यूनियन जैक को शामिल करने की बात नहीं मानते। तिरंगे से प्रेम होता तो इन 10 अवसरों पर, खासतौर से 1947 के बाद के स्वतंत्रता दिवस पर इस बात के लिए तैयार नहीं होते कि भारतीय ध्वज के साथ यूनियन जैक भी फहराया जाए। उनको चरखे से समस्या थी, वह चरखे को राष्ट्रीय ध्वज में नहीं चाहते थे और गांधी जी इस हालत में नहीं रह गए थे कि वह अपनी बात को मनवा सकें। यह बात उन्होंने लिखी भी है। 6 अगस्त, 1947 को नेहरू जी लिख रहे हैं यानी आजादी मिलने से 9 दिन पहले कि 15 अगस्त, 1947 के अलावा बाकी अवसरों पर यूनियन जैक फहराया जा सकता है। अब जरा उन लोगों के बारे में सोचिए जिन्होंने आजादी के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी, फांसी के फंदे पर चढ़ गए, कालापानी की सजा भुगती और उनकी मानसिकता का अंदाजा लगाइए जो तिरंगे में यूनियन जैक को शामिल करना चाहते थे। एक साइकोलॉजिकल सिंड्रोम होता है जो अपहरण के मामले में ज्यादा होता है। उसमें एक समय के बाद अपहृत लोगों को अपहरणकर्ता से सहानुभूति होने लगती है। इतने साल की गुलामी के बाद कांग्रेस के बहुत से नेताओं को जिनमें गांधी और नेहरू दोनों शामिल थे, अंग्रेजों से सहानुभूति हो गई थी उनसे प्रेम हो गया था।

अंग्रेजों से लड़ रहे थे या उनके साथ चल रहे थे

मैंने खोजने की बहुत कोशिश की कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में किन नेताओं ने यूनियन जैक वाले झंडे के प्रस्ताव का विरोध किया था लेकिन मिला नहीं। कांग्रेस पार्टी आपको इसके बारे में नहीं बताएगी मगर आप मान कर चलिए कि सरदार पटेल इसमें जरूर रहे होंगे और उन्हीं के नेतृत्व में विरोध हुआ होगा। उन लोगों की स्थिति समझिए कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में यह प्रस्ताव आ रहा है कि भारत के झंडे के साथ यूनियन जैक भी हो इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है, इससे ज्यादा अंग्रेजों का पिट्ठू बनने के लिए और क्या किया जा सकता है। यूनियन जैक की बात पर नेहरू ने कहा कि राष्ट्रवादी नहीं मानेंगे, इन लोगों को लगेगा कि अंग्रेजों की चमचागिरी कर रहे हैं। इन बातों से पता चलता है कांग्रेस पार्टी के लोगों ने क्या किया है, ये अंग्रेजों से लड़ रहे थे या उनके साथ ज्यादा चल रहे थे। यह प्रयास किया गया कि उनका शासन बना रहे। भारतीय लोगों से अपील की गई विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश फौज में भर्ती हों। ऐसे तमाम उदाहरण मिलेंगे जब आपको यह समझने में मुश्किल होगी कि आजादी के आंदोलन के जो नायक थे वह अंग्रेजों के साथ थे या भारत के साथ थे। वे अंग्रेजों के नुकसान की कीमत पर भारत का कोई फायदा नहीं चाहते थे इतनी बात समझ में आती है। इसलिए आप देखिए कि कांग्रेस के किसी बड़े नेता को कालापानी की सजा नहीं हुई, फांसी की सजा नहीं हुई। उनको जब गिरफ्तार किया गया तो महलों में या ऐसी जगहों पर रखा गया जहां पांच तारा सुविधाएं हो। वह उनके लिए दूसरे घर की तरह था। वहां हर तरह की सुख-सुविधा उपलब्ध थी, बस कहने को गिरफ्तार थे और जेल में थे।

स्वतंत्रता संग्राम का पूरा सच सामने नहीं आया

माउंटबेटन और नेहरू की दोस्ती, माउंटबेटन की पत्नी एडविना और नेहरू की दोस्ती किसी से छिपी नहीं है। उसकी क्या कीमत इस देश ने चुकाई उसका आज तक आकलन नहीं हो पाया है। नेहरू-एडविना के पत्र आज तक सार्वजनिक क्यों नहीं किए गए यह बताने वाला कोई नहीं है। क्यों कांग्रेस पार्टी ने उसको छुपा कर रखा, क्यों नेहरू-गांधी परिवार ने उसको छुपा कर रखा, ब्रिटेन की सरकार ने छुपा कर रखा। कई संदूको में भरे हुए ऐसे पत्र और डॉक्यूमेंट हैं जिनको बाहर नहीं आने दिया जा रहा है। आजादी के आंदोलन का पूरा सच आज तक देश को पता नहीं है। उसमें बहुत सारी परते हैं, ऐसी बहुत सारी जानकारियां हैं जो दबाई गई और आज भी छिपी हुई है। जो कुछ बाहर आ रहा है वह उनसे आ रहा है जो छपा हुआ है। इनके बारे में पता इसलिए नहीं था कि इनको प्रचारित नहीं किया गया। वही प्रचारित किया गया जिससे इस परिवार का महिमामंडन हो सके।  यह रणनीति बनाकर नियोजित ढंग से किया गया कि आजादी की लड़ाई का श्रेय एक परिवार को दिया जाए और आज उसका नतीजा हम सब देख रहे हैं। आजादी के आंदोलन के बारे में जो भी पढ़ाया गया, जो पढ़ा है उनको देखकर लगेगा कि सचमुच इनका बहुत बड़ा योगदान था लेकिन हमारे क्रांतिकारियों के योगदान को कम करके दिखाया गया जबकि उनका योगदान बहुत बड़ा था।

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अंग्रेजों को अगर किसी से डर था तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस से था। नेहरू, गांधी या और किसी कांग्रेसी नेता से नहीं था। यह सब बातें देश की भावी पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी के लिए जानना जरूरी है। यह सच्चाई जितनी तेजी से और जितनी जल्दी सामने आए उतना अच्छा है और अच्छा होगा आज की कांग्रेस के लिए कि इसका बचाव करने की कोशिश न करे, इसको सही ठहरने की कोशिश न करे। देश में जागरूकता बढ़ रही है। अपने अतीत के प्रति जागरूकता, राजनीतिक जागरूकता, यह जानने की उत्सुकता कि सचमुच में क्या हो रहा था। जो हमें बताया गया है क्या वह पूरा सच है, पूरा सच नहीं है तो कितना है, कितना छुपाया गया है। मुझे नहीं लगता है कि किसी भी दूसरे देश के आजादी के आंदोलन की इतनी बातें इस तरह से छुपा कर रखी गई हों और उसके बाद बड़े-बड़े दावे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं।)