अरुण कुमार डनायक।

स्त्री पुरुष में असमानता को लेकर गांधीजी के चिंतन में भारत की 85 प्रतिशत आबादी का ख्याल था। 1918 में मुंबई में आयजित भगिनी समाज की बैठक में दिया गया उनका उद्बोधन इन्हीं चिंताओं को व्यक्त करता है ।गांधीजी चाहते थे कि स्त्रियाँ अपने कार्यों में पुरुषों की सहायता अवश्य लें, लेकिन स्त्री जाति की उन्नति के लिए स्वयं प्रयास करें।भारतीय समाज में स्त्रियों की अवनति का एक प्रमुख कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषयों में पुरुष प्रधान व्यवस्था रही है ।स्मृति ग्रंथों में भी स्त्री का स्थान वर्ण व्यवस्था के अंतिम पायदान पर बैठे समुदाय के समान रखा गया है ।गांधी जी इस असमानता का एक कारण बाल विवाह तथा विधवाओं खासकर बाल विधवाओं पर लगे प्रतिबन्ध को मानते थे।वे स्मृतियों में वर्णित नियंत्रणों के अलावा दुरावस्था में जीवन यापन को विवश स्त्रियों में जागृति लाने देश की सभ्रांत महिलाओं का आह्वान करने से पीछे नहीं हटे और उन्होंने स्मृतियों में स्त्रियों के सम्बन्ध वर्णित ऐसे आख्यानों का कडा विरोध करते हुए उन्हें ब्रह्म वाक्य मानने से इनकार कर दिया।

स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा अधिक विनम्र और दयालु

गांधीजी ने भारत में धर्म की बागडोर के सुरक्षित रहने में स्त्रियों के योगदान की सराहना करते हुए कहा कि नारी अपनी धार्मिक निष्ठा में पुरुषों से कहीं बढ़ चढ़कर रही है । गांधीजी के अनुसार स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक विनम्र व दयालु होती हैं तथा वे मूक एवं गंभीर सहिष्णुता की प्रतीक रही हैं। लेकिन हिन्दू धर्मग्रंथों ने स्त्रियों पर अनेक आक्षेप किये जिसके कारण उनकी दुर्दशा हुई और वे पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित कर दी गई।गांधीजी के अनुसार “जब तक स्त्रियाँ दबी रहेंगी या उन्हें पुरुषों से कम अधिकार मिलेंगे तब तक भारत का सच्चा उद्धार नहीं हो सकता है।”गांधीजी ने स्त्रियों को त्याग की मूर्ति माना और उनसे अपेक्षा की कि जैसा त्याग वे कुटुंब के लिए करती हैं वैसा ही त्याग देश के लिए करें।

स्त्री और पुरुष का दर्जा बराबरी का

गांधीजी मानते थे कि स्त्री पुरुष की सहचारिणी है , उसकी मानसिक शक्ति पुरुष के समान ही है और उसे पुरुष की छोटी से छोटी प्रवृत्ति में भाग लेने का समान अधिकार है।वे पुरुष वर्ग को प्राप्त स्वतंत्रता से स्त्रियों को वंचित रखने के पक्ष में नहीं थे।साथ ही साथ वे स्त्री और पुरुष का दर्जा तो बराबरी का मानते थे ।पर दोनों एक हैं इसके बजाय वे दोनों की जोड़ी अपूर्व है, दोनों एक दूसरे के पूरक है और दोनों का काम एक दूसरे के बिना चल नहीं सकता है, ऐसा मानते थे। इस धारणा के समर्थन में उनका तर्क था कि आदिकाल से ही स्त्रियाँ सूत कातने और पुरुष बुनने का काम मिल जुलकर करते थे।गांधीजी का मानना था कि स्त्री अपने क्षेत्र में सर्वोपरि है और इसी कारण वे गृह व्यवस्था व अल्पायु बालकों की शिक्षा में स्त्रियों के वर्चस्व के हिमायती थे।गांधीजी और महिला अधिकारों के वर्तमान समर्थकों के बीच एक बड़ा मतभेद इन बिन्दुओं को लेकर है।

स्त्रियों को पुरुषों की भाँति शिक्षा ग्रहण कराने के समर्थक

गांधीजी के विचार स्त्रियों की शिक्षा को लेकर स्पष्ट थे।“विद्या के बिना मनुष्य का जीवन पशुवत है, विद्या के अभाव में स्त्रियाँ शुद्ध आत्मज्ञान से वंचित रह जाती हैं ।पढने लिखने से बुद्धि विकसित व तीव्र होती है और परोपकार करने की क्षमता बढ़ जाती है।”इसीलिये पुरुषों ने स्त्रियों के शिक्षा संबंधी स्वाभाविक मानवीय अधिकार छीन लिए और इस कारण उनमें जागृति का अभाव है। गांधीजी के अनुसार स्त्रियों का कार्यक्षेत्र गृह व्यवस्था है और उन्हें नौकरियाँ खोजने या व्यापार करने की आवश्यकता नहीं है, इस मान्यता के चलते वे स्त्रियों को अंग्रेज़ी भाषा सिखाने के पक्षधर भी नहीं थे। हालांकि 1931 में उन्होंने कहा की “मैं चाहता हूँ कि सभी पदों, व्यवसायों और रोजगारों के दरवाजे स्त्रियों के लिए खुल जाएं अन्यथा सच्ची समानता नहीं आ सकती।” यद्दपि वे उन्हें पुरुषों की भाँति शिक्षा ग्रहण कराने के समर्थक थे तथापि गांधीजी स्त्रियों को पुरुषों के जैसी शिक्षा देने की जगह आंतरिक प्रवृत्ति विकसित करने वाली शिक्षा देने के पक्षधर थे ।यंग इंडिया में वर्ष 1929 को लिखे एक लेख में गांधीजी ने कहा की जैसे-जैसे स्त्री जाति को शिक्षा द्वारा अपनी शक्ति का भान होता जाएगा वैसे-वैसे उसके साथ आज जो असमान व्यवहार किया जाता है उसका वह स्वभावत: उग्र विरोध करेगी।

गांधीजी ने स्त्रियों के विरुद्ध अत्याचारों में विरासत संबंधी कानूनों की असमानता को कारण नहीं माना।वे स्त्रियों को सम्पत्ति में अधिकार के प्रबल समर्थक नहीं थे वरन चाहते थे कि सम्पत्ति को लेकर स्त्रियाँ अपनी अमर्यादित आकांक्षाओं तथा सम्पत्ति संग्रह की वृत्ति पर अंकुश लगाएं।इन विचारों के पीछे गांधीजी की मान्यता थी कि ऐसा करने से जायदाद का अनावश्यक विभाजन बचेगा। आधुनिक विचारकों की दृष्टि गांधीजी के यह विचार दकियानूसी हैं।

स्त्रियों को मताधिकार मिले और वे भी पुरुषों के साथ धारा सभाओं में बैठे , ऐसे क्रांतिकारी विचार तो गांधीजी ने मई 1920 में नवजीवन में लिखे एक लेख के माध्यम से व्यक्त कर दिए थे।लेकिन वे महिलाओं को ऐसे अधिकारों को दिए जाने पर प्रश्नचिंह लगाने से भी नहीं चूके।इसी आलेख में उन्होंने लिखा कि “जो महिलायें अपने सामान्य अधिकारों को नहीं समझती अथवा समझते हुए भी अपने अधिकारों को प्राप्त करने की शक्ति नहीं रखती।वे मताधिकार लेकर क्या करेंगी?”गांधीजी की प्राथमिकता में स्त्रियों को मताधिकार दिलाने एवं उन्हें धारासभाओं में भेजने की अपेक्षा पुरुषों की ओर से जाने अनजाने में उनपर किये जाने वाले अत्याचारों से मुक्ति दिला भारत के गौरव व सम्मान को पुर्नस्थापित करना था।

गांधीजी का स्वतंत्रता आन्दोलन एक सरकार को हटाकर दूसरी सरकार को प्रतिस्थापित करने तक सीमित नहीं था।वे तो रामराज लाना चाहते थे।इस आन्दोलन से स्त्रियों को विमुख कैसे रखा जा सकता था ।स्त्रियों में उत्साह को जागृत होता देख गांधीजी ने उनके जेल जाने को लेकर भी अपने सकारात्मक विचार जनवरी 1922 में ही व्यक्त करते हुए कहा कि “स्त्रियाँ जेल जाने हेतु अपना नाम दर्ज कराकर जेल जाने की आदत डालेंगी तो इससे पुरुषों के जेल जाने का मार्ग सुगम हो जाएगा।”गांधीजी ने ऐसी महिलाओं की प्रसंशा भी की जिनके पति जेल गए। राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय के मुख्य व्यवस्थापक ख्वाजा साहब जब गिरफ्तार हो गये तो उनकी पत्नी खुर्शीद बेगम ने गांधीजी को लिखा “आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मेरे पति को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया है अब विश्वविद्यालय को मैं चलाऊँगी।”उनकी इस निर्भयता पर गांधीजी ने नवजीवन के दिसंबर 1921 के अंक में “धन्य है ऐसी नारी”शीर्षक से लेख लिखा।

गांधी के विचारों को मनन करने की आवश्यकता

गांधीजी की क्रांतिकारी सोच के कारण ही भारत में स्त्रियों को प्रजातांत्रिक अधिकार प्राप्त करने हेतु कोई संघर्ष नहीं करना पडा। लेकिन सरपंच पति से लेकर पार्षद पति तक के संबोधन कुछ और बयान करते हैं। नौकरियों के द्वार स्त्रियों के लिए खुले अवश्य हैं, लेकिन उन्हें डग-डग पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी पड़ती है। उन्हें कार्यस्थल पर अनेक शोषणों का सामना करना पड़ता है और क़ानून व्यवस्था भंग होने की दशा में वे अत्याचार का सर्वाधिक शिकार होती हैं। गांधी के सपनों का भारत बनाने के लिए हमें आज भी उनके विचारों पर बार बार मनन करने की आवश्यकता है।(एएमएपी)