मतुआ समुदाय को नागरिकता और एसआईआर होंगे एक्स फैक्टर।

प्रदीप सिंह।

बिहार की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में अपने भाषण के दौरान एक वाक्य कहा कि गंगा जी बिहार के पटना से बहकर पश्चिम बंगाल जाती हैं। यह बहुत बड़ा राजनीतिक संदेश था। तो क्या गंगा जी बिहार के जनादेश का संदेश लेकर पश्चिम बंगाल जाएंगी क्योंकि मार्च-अप्रैल 2026 में पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और बिहार विधानसभा के चुनाव के नतीजे आने के बाद से ममता बनर्जी के खेमे में सन्नाटा है। अब उनकी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि एसआईआर, जिसका बड़ा जोर शोर से विरोध करने की तैयारी हो रही थी, उसका आधार ही खत्म हो गया। बिहार में जिस तरह का जनादेश आया है, उन्होंने देख लिया कि राहुल गांधी ने एसआईआर का विरोध किया था तो उनकी पार्टी का हश्र क्या हुआ। कांग्रेस सिर्फ पांच सीटें जीती है, उसमें भी तीन सीटें ऐसी हैं जो बहुत कम मार्जिन से उसे मिली हैं। बिहार में पांच सीटें तो असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी जीत गई। तो आप समझिए कि बिहार में एक राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की विधाई हैसियत एक शहर हैदराबाद की पार्टी एमआईएम के बराबर हो गई है।

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बिहार में जो नतीजा आया है, जिनकी आंखें खुली थीं उन सबको दिखाई दे रहा था। जो रतौंध का शिकार थे बस उनको ही दिखाई नहीं दे रहा था। तो बिहार के बाद क्या अब बंगाल की बारी है। पहले जान लें कि बंगाल की परिस्थितियां क्या हैं? पश्चिम बंगाल की राजनीति शुरू से जाति आधारित नहीं रही है। 2009 से बदलाव शुरू हुआ तो सीपीएम साफ हो गई। सीपीएम व उसके समर्थकों और जाति की राजनीति का विरोध करने वालों को पूरा विश्वास था कि पश्चिम बंगाल का भद्रक ऐसा होने नहीं देगा। तो जो सीपीएम की नीति थी उसी को ममता बनर्जी ने अपनाया। जब मैं कह रहा हूं कि जाति की राजनीति नहीं होती थी या उसका विरोध था तो ऐसा नहीं कि जाति की राजनीति की जो बुराई है, उसके कारण विरोध हो रहा था। विरोध इसलिए हो रहा था कि समाज के जो पिछड़े तबके हैं, दलित हैं, आदिवासी हैं, उनको अधिकार न देना पड़े। तो पश्चिम बंगाल में सामाजिक शक्ति पर राजनीतिक शक्ति हावी हो गई थी। ममता बनर्जी ने ग्रामीण इलाकों में जहां भी विरोध का स्वर उभरा, उसको निर्दयता से कुचल दिया। इस तरह उनके राज को करीब 15 साल होने जा रहे हैं। उनसे पहले राज्य में 34 साल लेफ्ट और 30 साल कांग्रेस पार्टी ने राज किया।

आने वाले समय में पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक बड़ा फैक्टर मतुआ समुदाय होने जा रहा है। 25 मार्च 1971 को बांग्लादेश से बड़ी संख्या में इस समुदाय के लोग आए। मतुआ एक पंथ है, जिसकी स्थापना बांग्लादेश के फरीदपुर जिले में हरिचंद ठाकुर ने की थी। आजादी के बाद उनके पोते पीआर ठाकुर ने इस पंथ का हेड क्वार्टर 24 उत्तर परगना में बनाया और इस इलाके का नाम रखा गया ठाकुर नगर। मतुआ समुदाय के लोग दलित समाज से आते हैं। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि इनकी आबादी 1 करोड़ 75 लाख है। हालांकि मतुआ समाज के लोग दावा करते हैं कि उनकी आबादी 5 करोड़ है। असम और नार्थ ईस्ट में भी इस समुदाय के लोग हैं। 2003 में जो नागरिकता का कानून बना उसके तहत इन्हें देश की नागरिकता नहीं दी गई। इनकी सबसे बड़ी मांग थी कि हमें भारत का नागरिक बनाया जाए। हर पार्टी वादा करती थी लेकिन किसी ने पूरा नहीं किया। 2018 में भारतीय जनता पार्टी सीएए का कानून ले आई, जो इन्हें नागरिकता देने की दिशा में बड़ा कदम था। इसी का नतीजा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में इस समाज के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी का भरपूर साथ दिया और राज्य में बीजेपी 42 में से 18 लोकसभा सीटें जीत गई। उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को राज्य में सिर्फ दो सीटें मिली थीं और सीपीएम को एक भी सीट नहीं मिली थी। अब सवाल यह है कि 2026 में पश्चिम बंगाल में क्या होने वाला है? 2026 में कई चीजें होने वाली हैं। पहला तात्कालिक प्रभाव बिहार का जो नतीजा आया है। बिहार में एनडीए 20 साल की एंटी इनकंबेंसी को पछाड़कर रिकॉर्ड बहुमत से जीता है। उसे 202 सीटें मिली हैं।

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बिहार विधानसभा का पहला चुनाव है, जो ऑपरेशन सिंदूर, वक्फ एक्ट संसद से पास होने और स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन ऑफ़ इलेक्टोरल रोल्स (एसआईआर) की प्रक्रिया पूरा होने के बाद हुआ है। यह तीन बड़ी घटनाएं हुई है, जिनका इस चुनाव के नतीजे पर असर पड़ा है। उन बुद्धिमान लोगों की बात पर मत जाइए जो कहते हैं कि उद्यम के लिए जो ₹10,000 महिलाओं को दिए गए उसके कारण एनडीए जीत गया। यह महिलाओं के आत्मसम्मान का अपमान है कि ₹10,000 मिले इसलिए उन्होंने वोट दे दिए। वे यह नहीं देखते कि 20 साल में बिहार में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए क्या-क्या कदम सरकार ने उठाए। अब पश्चिम बंगाल का जो चुनाव होगा वह भी ऑपरेशन सिंदूर, वक्फ एक्ट पास होने और राज्य में एसआईआर होने के बाद होगा। एसआईआर के बाद जिन घुसपैठिया फर्जी वोटर के बल पर टीएमसी चुनाव जीतती थी, वह आधार ही चला जाएगा। इस झटके को बर्दाश्त करना ममता बनर्जी के लिए मुश्किल है। लेकिन मेरी नजर में इससे भी बड़ा एक्स फैक्टर या गेम चेंजर राज्य में सीएए लागू होने के बाद मतुआ समुदाय के लोगों को नागरिकता दिलाने के लिए जिस तरह भारतीय जनता पार्टी के नेता और संगठन जगह-जगह पर कैंप लगा रहे हैं, वह साबित होगा। अब केंद्र सरकार और पार्टी व्यापक पैमाने पर अभियान चलाकर इस समुदाय को नागरिकता देने का काम कर रही है। उनको नागरिकता मिलने का मतलब है कि वह इस देश के वोटर बन जाएंगे। तो मतदाताओं की संख्या में इतना बड़ा परिवर्तन इससे पहले पश्चिम बंगाल की राजनीति में नहीं आया। यह पहला मामला होगा जो इस पूरे चुनाव की दिशा बदल देगा।

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प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को जो कहा था कि गंगा पटना से होकर ही बंगाल जाती है, तब वह राजनीति की दिशा भी बता रहे थे कि बिहार के बाद अब पश्चिम बंगाल की बारी है। राज्य में 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल तीन सीटें मिली थीं जबकि 2021 में वह पूरी ताकत से लड़ी और सीटों की संख्या उसने बढ़कार 77 तक पहुंचा दी। इस समय वह राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और मुख्य विपक्षी दल है। हालांकि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 2019 की तुलना में काफी नुकसान हुआ और इसका एक बड़ा कारण मतुआ समुदाय को नागरिकता देने के मामले में जो गफलत हुई, वह भी रहा। लेकिन भाजपा ने इससे सबक सीखकर ही अब इस समुदाय को नागरिकता देने के लिए व्यापक अभियान छेड़ा है। हालांकि राज्य सरकार इसमें अड़ंगा लगाना चाहती है, लेकिन केंद्र सरकार और खासतौर से गृह मंत्रालय ने नियम ऐसे बनाए कि राज्य सरकार का उसमें कोई दखल ही न रह जाए। इस समुदाय को  नागरिकता देने के लिए जो कमेटी बनाई गई है और जो भी एप्लीकेशंस आएंगे, उन पर विचार करके फैसला करने के लिए बहुमत केंद्र सरकार की संस्थाओं के प्रतिनिधियों का है। केंद्र ने इस मामले में राज्य सरकार के दखल को एक तरह से न्यूट्रलाइज कर दिया है।

भारतीय जनता पार्टी 2021 में राज्य में इसलिए हारी क्योंकि उसे हिंदू वोट कम मिले। उस चुनाव में ममता बनर्जी को भी बड़ी संख्या में हिंदू वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदू भाजपा के साथ आए तो भाजपा के लोकसभा सदस्यों की संख्या दो से बढ़कर 18 हो गई। अब मतुआ समुदाय और इसके साथ जुड़े दूसरे सामाजिक समूह, जो पिछड़े या दलित समाज से आते हैं, उनका रुझान भारतीय जनता पार्टी की ओर है। दूसरे भाजपा ने अब लोकसभा चुनाव से जो झटका लगा, उससे सबक सीखा है। इसी का नतीजा है कि महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और अब बिहार के विधानसभा चुनाव जिस तरह से भाजपा ने जीते हैं, वह संगठन की शक्ति और राष्ट्रीय नेतृत्व की विश्वसनीयता के मेल से हुई है। 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने संगठन की ताकत को थोड़ा इग्नोर किया था। अब उसको समझ में आ गया है कि जब यह दोनों मिलेंगे तभी गाड़ी चलेगी। तो पश्चिम बंगाल के चुनाव में क्या संभावना हो सकती है? इसका आकलन करने के लिए अगर आप 2021 विधानसभा चुनाव के नतीजे या 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे की ओर देखेंगे तो आप गलत फैसले पर पहुंच सकते हैं। 2021 के चुनाव में ममता बनर्जी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर थे। चुनाव के बाद उन्होंने कहा था कि अगर 70% हिंदू भाजपा को वोट देने लगे तो वह सत्ता में आ जाएगी। भाजपा का भी वोट शेयर 40% के आसपास है। तो उसे और 30% हिंदुओं का वोट लेना है। अब जो ये मतुआ और अन्य समुदाय हैं, नागरिकता मिलने के बाद अगर ये भाजपा को वोट देंगे तो इनका प्रतिशत क्या होगा, यह देखने की बात होगी।

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राज्य में ममता बनर्जी की स्थिति पहले की तुलना में लगातार खराब होती जा रही है। कानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार, महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दों पर टीएमसी का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत ही खराब है। अदालत से हर थोड़े समय के बाद राज्य फटकार सुननी पड़ती है। भाजपा के लिए अगर पूर्वोदय होना है तो उसका सबसे बड़ा किला पश्चिम बंगाल है। उड़ीसा से उसकी शुरुआत हो चुकी है और उस दिशा में बिहार के जनादेश ने एक मजबूत कदम आगे बढ़ाया है और ऐसा हो नहीं सकता कि इसका असर पश्चिम बंगाल के चुनाव पर न पड़े। इधर भाजपा ने जिस तरह से अपनी रणनीति बदली है, चुनाव लड़ने का जो तरीका बदला है, पिछले चुनाव में जो गड़बड़ियां हुईं, उससे जो सबक सीखा है, इसका भी बड़ा असर आपको आने वाले एक दो महीनों में दिखाई देगा। बंगाल में 2021 में भाजपा ने एक बड़ी गलती की थी। उसने ऐसे लोगों को चुनाव प्रचार की कमान सौंप दी या संगठन के काम में लगा दिया, जो बांग्ला भाषा जानते ही नहीं थे, जिनको वहां की भौगोलिक स्थिति का ठीक से ज्ञान ही नहीं था, वहां के सामाजिक मुद्दों के बारे में जानकारी नहीं थी। इस बार भाजपा उस रणनीति बदलने वाली है। बिहार के चुनाव से पहले ही पश्चिम बंगाल के चुनाव की तैयारी भाजपा शुरू कर चुकी है जबकि बाकी पार्टियां चाहे टीएमसी हो  या सीपीएम या कांग्रेस इनका सारा फोकस एसआईआर को रुकवाने पर है। इनकी कोशिश है कि फर्जी वोट कटने ना पाए। शुरू में राज्य सरकार के कर्मचारी, जो बीएलओ या बूथ लेवल ऑफिसर बनते हैं, एसआईआर कराने में आनाकानी कर रहे थे लेकिन चुनाव आयोग के कड़े रवैये के बाद उन्होंने काम करना स्वीकार कर लिया है और पश्चिम बंगाल में बहुत तेजी से एसआईआर का काम चल रहा है। अब वहां की राजनीति काफी बदल चुकी है।

भारतीय जनता पार्टी ने इस बार कमर कसी हुई है कि पश्चिम बंगाल में उसको कमल खिलाना है। खिला पाएगी कि नहीं यह तो पश्चिम बंगाल के मतदाता तय करेंगे, लेकिन पहली चीज होती है लड़ाई में इच्छाशक्ति। उसके बाद आती है आपकी संगठन की शक्ति और फिर सबके ऊपर जो आइसिंग ऑन द केक होता है, आपके राष्ट्रीय नेतृत्व की विश्वसनीयता। ये सारे फैक्टर भाजपा के पक्ष में हैं। ममता बनर्जी भारी एंटी इनकंबेंसी से जूझ रही है और उनके दुर्भाग्य से राज्य में कोई तीसरी शक्ति बची नहीं है। तो पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव भारतीय राजनीति और भाजपा की राजनीति दोनों के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित होगा। पूरब का सबसे मजबूत किला, जो भाजपा की पकड़ से बाहर था, अगर वहां कमल खिल जाता है तो यह भाजपा के सही मायने में राष्ट्रीय दल होने की दिशा में एक बड़ी छलांग होगी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)