#pradepsinghप्रदीप सिंह।

महाभारत के प्रसंग से दो पात्रों का चुनाव करके यह तय करना हो कि महाभारत युद्ध के लिए कौन ज्यादा जिम्मेदार था, तो क्या फैसला ज्यादा मुश्किल होगा? ऐसा लगता नहीं। दो पात्र हैं धृतराष्ट्र और दुर्योधन। एक का मोह और दूसरे का अहंकारी हठ, दोनों ही महाभारत युद्ध के लिए जिम्मेदार माने जाएंगे। गंभीरता से विवेचना करें तो धृतराष्ट्र सबसे बड़े दोषी नजर आएंगे। यही कारण है कि हजारों साल बाद भी आम जीवन में दुर्योधन से ज्यादा धृतराष्ट्र का उदाहरण दिया जाता है। आप ठीक समझ रहे हैं। मैं कहां पहुंचने की कोशिश कर रहा हूं।

कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में से एक गुलाम नबी आजाद ने पार्टी छोड़ दी। यह कोई बड़ी या अनहोनी बात नहीं है। पिछले आठ साल से यह सिलसिला निर्बाध गति से चल रहा है। कांग्रेस के अलावा सब पर इसका असर पड़ रहा है। पार्टी छोड़ने वालों को पदलोलुप, कायर और जाने क्या-क्या कहा जाता है। याद कीजिए कौरवों की सभा, वहां भी ऐसा ही होता था।

सुपात्र भी, भुक्तभोगी भी…

गुलाम नबी आजाद ने ऐसा कुछ नहीं कहा है जो जनमानस में पहले से न रहा हो। जो सबको पता था या कहें कि जिसका सबको अंदाजा था, उसकी उन्होंने पुष्टि भर की है। गुलाम नबी आजाद इंदिरा गांधी के साथ काम कर चुके हैं। उन्होंने राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के साथ भी काम किया है और सोनिया गांधी के एकछत्र साम्राज्य के सुपात्र और भुक्तभोगी, दोनों रहे। जो बातें वह पार्टी के अंदर कहने की कोशिश करते रहे, उसे पार्टी से निकलते समय सोनिया गांधी को लिखे पत्र में कही।

पुराने डाक्टर मरीज की नब्ज देखकर ही रोग का पता लगा लेते थे। गुलाम नबी आजाद राजनीति के वही पुराने डाक्टर हैं। उन्होंने मर्ज का तो पता लगा लिया था, लेकिन समस्या यह हुई कि मरीज दवा लेने को तैयार नहीं था। इतना ही नहीं, मरीज की अभिभावक डाक्टर का साथ देने के बजाय मरीज का साथ दे रही।

कब से बिगड़ने लगीं स्थितियां

अब इस बात को थोड़ा सगुण तरीके समझते हैं। आजाद साहब कह रहे हैं कि साल 2013 की जनवरी में जयपुर अधिवेशन में राहुल गांधी के पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने के बाद से स्थितियां बिगड़ने लगीं। राहुल गांधी अपनी टीम बनाना चाहते थे। यह तो ठीक था, पर वह पार्टी के अनुभवी नेताओं के अपमान की नींव पर अपनी टीम की नई इमारत तामीर करना चाहते थे। जिसने भी असलियत बताने की कोशिश की, उसे गुस्ताख समझा गया। राहुल के आसपास ऐसे लोग जुट गए, जिन्हें राजनीति की बारीकियां छोड़िए, मोटी समझ भी नहीं है। बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी। राहुल के आसपास के लोग पार्टी के अहम फैसले भी लेने लगे। जिन लोगों ने अपने जीवन के 40-50 साल पार्टी के लिए लगा दिए, उन्हें दरबार का गुलाम समझा गया। कहा और जताया गया कि आज जो भी हो, हमारी कृपा से हो। जैसे उन लोगों का तो कोई योगदान ही नहीं रहा हो।

निष्ठावान ही ‘संदिग्ध’

गुलाम नबी आजाद ने कुछ बातें बड़े साफ शब्दों में कहीं। एक यह कि राहुल गांधी के सर्वशक्तिमान होते ही पार्टी के नीचे जाने का सिलसिला शुरू हो गया। कोढ़ में खाज यह कि इसे रोकने का प्रयास करने वालों की पार्टी के प्रति निष्ठा और परिवार के प्रति वफादारी को संदेह की नजर से देखा जाने लगा। अब जरा हालात पर गौर कीजिए। आजाद साहब जैसे लोगों के लिए तो कहा गया कि राज्यसभा नहीं मिली, पद नहीं मिला और अब उम्र हो गई है, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। तो सवाल है कि युवा नेतृत्व यानी राहुल गांधी के रहते हुए युवा नेता क्यों पार्टी छोड़कर जा रहे हैं? इनमें सबसे ज्यादा वे नेता हैं, जो राहुल गांधी के सखा माने जाते रहे हैं।

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नेता इसलिए कांग्रेस से नहीं जा रहे हैं कि उन्हें पद नहीं मिला। पार्टी छोड़कर जाने वाले मुख्य तौर से पांच वजहों से जा रहे। पहला, उन्हें राहुल गांधी के रहते कांग्रेस का भविष्य नहीं दिखता। उनके भविष्य का प्रश्न तो तब आता जब कांग्रेस का भविष्य दिखता। दूसरा, वे देख रहे थे कि परिवार के प्रति वफादारी (जो पहले भी थी), अयोग्यता और राजनीतिक अनुभवहीनता सबसे बड़ा गुण माना जाने लगा है। तीसरा, राहुल गांधी के उठाए मुद्दों और जमीनी हकीकत में कोई साम्य नहीं है। चौथा, पुत्र मोह के आगे सोनिया गांधी को कुछ दिखना ही बंद हो गया है। पांचवां, अपमान। राहुल गांधी ही नहीं, उनकी मंडली के लोग भी वरिष्ठ नेताओं का अपमान करना अपने नेता की नजर में अच्छे बने रहने की आवश्यक शर्त मानने लगे हैं। और आखिरी अहम बात यह कि इन सबकी कहीं सुनवाई नहीं।

अंततः त्याग दिया संकोच

महाभारत के प्रसंग की बात हो रही थी तो मुझे लगता है गुलाम नबी आजाद विदुर की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए, क्योंकि परिवार के प्रति उनकी निष्ठा उन्हें विदुर की तरह बेबाक और तल्ख होने से रोक रही थी, पर जब संबंध विच्छेद की घड़ी आई तो उन्होंने यह संकोच त्याग दिया। इसलिए उन्होंने वह सब लिखा और कहा, जो इससे पहले कांग्रेस छोड़कर गए नेता नहीं बोल पाए। कांग्रेस में अब भी ऐसे नेता हैं जो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से सोनिया और राहुल की तुलना में ज्यादा जुड़े हैं। यह जानते हुए भी कि इंदिरा गांधी या राजीव कुछ देने नहीं आएंगे।

तीन बातें

कुल मिलाकर अभी तक जो लोग कांग्रेस छोड़कर गए, उनके कहे और गुलाम नबी आजाद के पत्र से तीन बातें साफ हैं। एक, राजनीति राहुल गांधी के बस की बात नहीं है। दूसरा, राहुल गांधी कांग्रेस के पुनर्गठन के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा हैं। तीसरा, सोनिया गांधी पुत्र मोह में पार्टी की कुर्बानी के लिए तैयार हैं।

बहुत साल पहले एक पाकिस्तानी धारावाहिक आता था। वह भारत में भी लोकप्रिय था। नाम था ‘बकरा किस्तों पर’। राहुल की अक्षमता और सोनिया गांधी के पुत्र मोह ने तय कर दिया है कि कांग्रेस नाम का यह बकरा किस्तों में कटेगा। यदि कोई कांग्रेस छोड़ने वालों की सूची बना रहा हो तो उसमें ढेर सारे पन्ने जोड़ लीजिए, क्योंकि हर राज्य में गुलाम नबी तैयार हैं। सबके बर्दाश्त की क्षमता अलग-अलग होती है। इसलिए कांग्रेस का विखंडन टुकड़ों में होगा। इसे कोई रोक नहीं सकता।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)