डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
स्वामी प्रभुपादजी एक मालवाहक जहाज से 17 सितम्बर 1965 को भारत से अमेरिका पहुंचे थे। तब उनकी आयु 69 वर्ष थी। नौ महीने के अन्दर उन्होंने वहां न्यूयॉर्क में पहला राधा कृष्ण मन्दिर स्थापित कर दिया था।और उसके दो महीने के अन्दर वहां इस्कॉन (International Society for Krishna Consciousness – ISKCON) की स्थापना की। उस समय इस्कॉन के सभी डायरेक्टर अमेरिकी थे। प्रभुपादजी की योजना थी कि अमेरिका, यूरोप और विश्व के अन्य नगरों में अन्य कई इस्कॉन मन्दिर स्थापित किए जाएं।
राधा कृष्ण की मूर्तियां भिजवाने का अनुरोध
इन मन्दिरों के लिए राधा कृष्ण की मूर्तियों की आवश्यकता थी। ये मूर्तियां अमेरिका और यूरोप में तब उपलब्ध नहीं थीं। प्रभुपादजी ने 4 मार्च 1970 के अपने एक पत्र में लिखा कि डालमिया ट्रस्ट और बिड़ला ट्रस्ट ने हमको राधा कृष्ण की पांच जोड़ा मूर्तियां दी हैं, जिनको भेजने की व्यस्था श्रीमती सुमति मोरारजी ने पानी के जहाज से की है।
श्रीमती मोरारजी (1909-1998) सिंधिया स्टीमशिप कम्पनी की मालिकिन थीं।
‘कल्याण’ के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (1892-1971) को अमेरिका से भेजे गए उक्त पत्र में प्रभुपाद जी ने अनुरोध किया कि वह भविष्य में और मूर्तियां भिजवाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करें। कल्याण के अप्रैल 1970 के अंक में इस्कॉन के बारे में जो लेख छपा, उसमें इस आशय की एक अपील भी की गई थी। इस लेख में प्रभुपादजी का अमेरिका का पता भी छापा गया था, ताकि पाठकगण सीधे उनसे संपर्क कर सकें। और पाठकों ने श्री प्रभुपादजी को भारत से सीधे पत्र लिखे भी।
‘कल्याण’ के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (1892-1971) भाईजी के नाम से लोकप्रिय थे। भाईजी ने इससे पहले भी प्रभुपाद जी की सहायता की थी।
प्रभुपादजी दो बार गोरखपुर गए, भाईजी से मिले
प्रभुपादजी अपने जीवन काल में दो बार गोरखपुर गए थे। एक बार सन् 1962 में और दूसरी बार फरवरी 1971 में। वह 3 से 28 फरवरी 1971 तक गोरखपुर में रहे थे और बीच में वह दो दिन के लिए 7-8 फरवरी को किसी काम से कोलकता चले गए थे। दोनों बार प्रभुपादजी के गोरखपुर में रुकने और रहने की व्यवस्था भाईजी ने कराई थी।
गोरखपुर में 15 फरवरी 1971 को अपने अंग्रजी में दिए गए एक लेक्चर में स्वामी प्रभुपाद जी ने कहा था:
So at last it happened so that I left my home in 1950 and became a vānaprastha. I was living sometimes here and there. In 1959 I took sannyāsa. … Some friend advised me that “Why don’t you write some books? That will be nice.”
So then I began to translate Śrīmad-Bhāgavatam. And because I left home, so practically I had no income. Then, when I wrote book, Śrīmad-Bhāgavatam, First Canto was finished. So I approached the Bhāijī … In 1962. So I asked him that, “You take this publication.”
So I am very much obliged to Bhāijī. He said that, “Our English printing is not very efficient. You can get this book published from elsewhere. I shall partly help you.” So he helped me with some money from the Dalmia Trust, and I first of all published my first part of Śrīmad-Bhāgavatam.
Then I published second part also. There was sale. Then there was no necessity of money. I was getting money by selling Śrīmad-Bhāgavatam. Everyone appreciated. Even the . . . your American Embassy here, they purchased eighteen copies, and they gave me open order that: “Whenever this Bhāgavata will be published next part, subsequent parts, this is open order, eighteen copies, each part.” That order is still there.
भावार्थ: मैंने सन् 1950 में घर छोड़ा था। फिर सन् 1959 तक इधर-उधर रहा। सन् 1959 में मैंने संन्यास ले लिया। तब किसी मित्र ने कहा कि तुम कोई पुस्तक क्यों नहीं लिखते। तब मैंने श्रीमद् भागवतम् का अंग्रेजी में अनुवाद शुरू किया। जब इसका पहला खण्ड समाप्त हो गया, तो सन् 1962 में मैं भाईजी के पास आया। और मैंने उनसे इसके प्रकाशन की इच्छा व्यक्त की।
मैं तो संन्यासी था मेरे पास तो कोई धन था नहीं।
भाईजी ने मुझसे कहा के हमारे यहाँ अंग्रेजी प्रिंटिंग की बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है। आप इसे कहीं और से छपवा लो। भाई जी ने कहा कि मैं भी उसमें आपकी थोड़ी-बहुत मदद कर दूंगा।
तो उन्होंने डालमिया ट्रस्ट से कुछ धन दिला दिया जिससे कि श्रीमद् भागवतम् का पहला खण्ड प्रकाशित हो पाया। इसके लिए मैं भाईजी का बहुत एहसानमंद हूँ।
फिर दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ। तब तक श्रीमद् भागवतम् पुस्तक के पहले खण्ड की बिक्री से आमदनी होने लगी थी। मुझे तब धन की आवश्यकता नहीं हुई। अमेरिका दूतावास ने इसकी 18 प्रतियाँ खरीदी थीं और आगे के श्रीमद् भागवतम् सभी खण्ड खरीदने का भी मुझे परचेज आर्डर दिया था।
स्वामी प्रभुपादजी ने अपने लेक्चर में आगे कहा:
So after publishing three parts of readings, then automatically, Guru Mahārāja gave me indication that, “Now you can start for America.” So some way or other, in 1965 I went to America, with great difficulty. But I took about two hundred sets of books.
भावार्थ: इस प्रकार जब श्रीमद् भागवतम् के तीन खण्ड प्रकशित हो गए, तो मुझे लगा कि मेरे अध्यात्मिक गुरूजी महाराज (भक्ति सिद्धांत ठाकुर सरस्वती गोस्वामीजी महाराज 6 फरवरी 1876 – 1 जनवरी 1937) मुझे यह संकेत कर रहे हैं कि मैं अमेरिका जाने की तैयारी करूं। तो किसी ने किसी प्रकार से सन् 1965 में मैं बड़ी मुश्किल से अमेरिका पहुंचा। वहां मैं अपने साथ श्रीमद् भागवतम् के तीनों खण्डों के 200 सेट भी ले गया था अर्थात 600 पुस्तकें भी ले गया था।
फरवरी 1971 में जब प्रभुपादजी भाईजी से मिलने के लिए उनके गीता वाटिका स्थित कक्ष में गए थे, तब जाड़े के दिन थे। भाई जी की तबियत बहुत ख़राब थी और मार्च 1971 में भाईजी का शरीर शांत हो गया।
प्रभुपादजी पर जानकारी vanipedia.org पर उपलब्ध है।
प्रभुपादजी का 4 मार्च 1970 भाईजी को लिखा गया उपर्युक्त पत्र और गोरखपुर में 15 मार्च 1971 में दिया गया उपर्युक्त लेक्चर vanipedia.org पर उपलब्ध है। उस लेक्चर का प्रभुपादजी की वाणी में ऑडियो और टेक्स्ट दोनों ही उपलब्ध हैं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)