क्यों पार्टी इससे निकलना नहीं चाहती, यह छवि पार्टी की ताकत है या कमजोरी।

प्रदीप सिंह।

समाजवादी पार्टी की जो छवि है कि यह ‘गुंडों की पार्टी’ है या आपराधिक तत्वों और माफिया को संरक्षण देने वाली पार्टी है, उनका पालन पोषण करने वाली पार्टी है, इस छवि से पार्टी क्या कभी निकल पाएगी?इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या पार्टी इससे निकलना चाहती है? इस छवि ने पार्टी को क्या दिया है? इससेपार्टी कोक्या नुकसान हुआ है? इन सब बातों का आकलन इस आलेख में करेंगे। यह छवि इस पार्टी की ताकत भी है और कमजोरी भी है। कमजोरी के कारण ही यह पार्टी एक सीमा से ऊपर नहीं जा पाई और उसके जाने की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आती।पार्टी का अब तक का सबसे ज्यादा वोट प्रतिशत 30 फीसदी तक रहा है। वर्ष 1989 में जब मुलायम सिंह यादव जनता दल में रहते हुए पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब भी  30 फीसदी से ज्यादा वोटनहीं मिला जबकि उस समय जनता दल का भाजपा और लेफ्ट पार्टियों से गठबंधन था।जनता दल से अलग होने के बाद बनी समाजवादी पार्टी को वर्ष 2012 में फिर सबसे ज्यादावोट मिला वह भी 30 प्रतिशत से ज्यादा पर नहींपहुंच पाया।समाजवादी पार्टी की यहीउच्च सीमा है।

मुलायम का राजनीतिक सफरनामा

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अगर आप मुलायम सिंह यादव की पूरी राजनीति पर नजर डालें तो समझ में आएगा कि यह स्थिति क्यों है। इसके दो कारण हैं। एक व्यक्तिगत है और दूसरे को आप राजनीतिक कहें, सामाजिक कहें या सैद्धांतिक कहना चाहें तो वह भी कह सकते हैं। हालांकि समाजवाद से समाजवादी पार्टी का, मुलायम सिंह यादव का, अखिलेश यादव का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। यह ऐसी पार्टी है जिसकी कोई विचारधारा नहीं है, जिसका कोई सिद्धांत नहीं है। येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के अलावा और कोई तरीका नहीं है और सत्ता मिल जाए तो उसका भरपूर उपभोग करना इस पार्टी का सिद्धांत है। लेकिन जनतंत्र में अगर लोग आपके साथ हैं तो इन बातों का ज्यादा मतलब नहीं होता। अगरलोग आपको सत्ता में ला रहे हैं, आपकोजिता रहे हैं तों ये बातें हमारे जैसे लोग लिखते-बोलते रहे हैं उसका कोई असर होता नहीं है, उससे कोई फर्क पड़ता नहीं है। इसलिए पार्टी को भी लगता है कि वह जो कर रही है वही सही है तभी लोगों का समर्थन मिल रहा है।
मुलायम सिंह यादव वर्ष 1967 में पहली बार डॉ. राममनोहर लोहिया की बनाई पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बने थे।डॉ. लोहिया की मौत के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बड़े हिस्से का विलय चौधरी चरण सिंह की पार्टी के साथ हो गया। मुलायम सिंह भी चौधरी चरण सिंह के साथ आ गए। जब तक मुलायम सिंह चौधरी चरण के साथ रहे तब तक उनका दूसरा रूपदेखने को मिला। उसके बाद उनका रूप अलग हो गया। लेकिन चौधरी चरण सिंह के रहते हुए ही हिंसा से मुलायम सिंह यादव का साबका जीवन-मरण के प्रश्न की तरह पड़ा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के नेता हुआ करते थे बलराम सिंह यादव।वे भी इटावा के रहने वालेथेऔर मुलायम सिंह भी इटावा के रहने वाले हैं। दोनों के बीच ऐसी दुश्मनी थी कि दोनों एक-दूसरे की जान लेने को तैयार थे। उनका एक-दूसरे से राजनीतिक विरोध नहीं था। राजनीतिकविरोध तो एक अलग बात है। स्थिति यह थी कि कब किसको मौका मिले कि वह दूसरे को मार दे। दोनों को लगता था कि जिंदगी बचाने का एक ही तरीका है कि अपने विरोधी को मार दो। इसलिए आए दिन ये सुनने को मिलती थीं कि बलराम सिंह यादव के काफिले पर हमला हुआ तो कभी मुलायम सिंह यादव के काफिले पर हमला हुआ।

जानलेवा हमला

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वर्ष 1984 की एक घटना है। मुलायम सिंह किसी शादी से रात में लौट रहे थे।उन्हें और उनके साथ के कार्यकर्ताओं को मारने की योजना बनाने वालों के पास इस बात की पूरी जानकारी थी कि वे शादी में जाएंगे,कितने समय तक वहां रहेंगे, कितने बजे निकलेंगे और यहां तक कि मुलायम सिंह गाड़ी में किस तरफ बैठेंगे यह भी उन्हें पता था। इसलिए जब उनके काफिले पर हमला हुआ तो नौ गोलियां उसी ओर चली जिस तरफ मुलायम सिंह यादव के बैठने की जानकारी थी। उनकी गाड़ी पलट गई और गड्ढे में गिर गई। उनके काफिले के साथ की गाड़ियां भी या तो पलट गई या उनमें से कूद कर उनके कार्यकर्ताओं ने गड्ढे में शरण ले ली। मुलायम सिंह यादव ने उस समय अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया। उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा कि जोर-जोर से चिल्लाओ और बाहर यह कहते हुए निकलो कि मुलायम सिंह यादव को मार दिया। उनके कार्यकर्ता यह चिल्लाते हुए निकले जिससे हमलावरों वालों को लगा कि उनका काम हो गया और वे भाग गए। इस तरह से मुलायम सिंह की जान बची।

इसलिए चुना हिंसक रास्ता

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यही वह मोड़ था जब मुलायम सिंह की राजनीति हिंसाकी ओर बढ़ गई। उन्हें यह समझ में आ गया कि आगे  बढ़ने का यही तरीका है कि अपने दुश्मन को खत्म कर दो। यह कहा जाता है कि वर्ष 1996 में लालू प्रसाद यादव ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया यह बात पूरी तरह से सच है। लेकिन इसके अलावा सीपीएम के नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत को यह भी बताया गया था किये ऐसे नेता हैं जो अपने विरोधियों को मरवा डालते हैं।  मुलायम सिंह की राजनीति का ये हिस्सा 1986 में चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद आगे बढ़ा। उनको यह समझ में आया कि राजनीति का यही तरीका है। 1989 में जनता दल बना। उसमें वे शामिल हो गए। चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल का भी बंटवारा हो गया। लोकदल ए में उनके बेटे अजीत सिंह थे तो लोकदल बी में देवीलाल, मुलायम सिंह आदि नेता थे। जनता दल बना तो उसमें लोकदल बी का विलय हो गया। मुलायम सिंह 1989 में पहली बार मुख्यमंत्री बने। वे जून 1991 तक मुख्यमंत्री रहे। इस डेढ़ साल में उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को फिरौती और अपहरण का सबसे बड़ा केंद्र बना दिया। फिरौती और अपहरण की घटनाएं आम हो गईं। आए दिन इस तरह की घटनाएं होने लगी। अपहरण-फिरौती का धंधा फलने-फूलने लगा जिसे सरकार का समर्थन प्राप्त था। उसी दौरान अयोध्या आंदोलन शुरू हुआ। आंदोलन शुरू हुआ तो 1990 में उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलवा दी। बाद में उन्होंने माना कि यह मुसलमानों को खुश करने के लिए किया गया था। हिंसा और हत्या या इस तरह की हिंसा की राजनीति से मुलायम को कभी परहेज नहीं रहा।

आक्रामक रवैया

एक और कारण जिसका पहले जिक्र किया गया है वह है पिछड़ों की राजनीति। उत्तर प्रदेश में उस दौरान जिस तरहपिछड़ों की राजनीति उभर रही थी और वह राजनीति के केंद्र में आ रही थी उसमें यह जरूरी था कि उनकेकार्यकर्ता ज्यादा आक्रामक हों। इसे एक रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया गया। इसे विडंबना कहें या पार्टी की खूबी, ये पार्टी का स्थायी चरित्र बन गया। इसके पीछे दो मजबूरियां रहीं। एक व्यक्तिगत हिंसा का सामने करते हुए और दूसरा राजनीतिक रणनीति की मजबूरी के चलते उन्होंने हिंसा का जो रास्ता अपनाया उसके वे खुद कैदी बन गए। उन्हें लगा कि यही रास्ता है। जब तक वे राजनीति में सक्रिय रहे इससे निकलने की उन्होंने कभी कोशिश ही नहीं की। इसको अपनी सबसे बड़ी ताकत मानते रहे। इसलिए जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो एक कार्यक्रम में मुलायम सिंह ने कहा,‘ये जो तुम्हारे साथ लड़के हैं इनमें कोई दम नहीं है। दो लाठी खाने की ताकत नहीं है। हमलोग लाठी खाकर यहां तक पहुंचे हैं। बहुत लाठियां खाई हैं।’इस बारे में विस्तार से आगे चर्चा करूंगा।

आंदोलनकारियों पर चलवाई गोलियां

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1991 में मुलायम सत्ता से बाहर हो गए और भाजपा की सरकार बन गई। 1993 में उन्होंने कांशीराम से हाथ मिला लिया और सपा-बसपा का गठबंधन हो गया। 1993 में चुनाव हुआ तो किसी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा को सपा-बसपा गठबंधन से एक सीट ज्यादा मिली और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी मगर उसे सरकार बनाने का मौका नहीं मिला क्योंकि सपा-बसपा की सरकार को जनता दल और कांग्रेस समर्थन देने को तैयार हो गई। उनके समर्थन से मुलायम सिंह फिर मुख्यमंत्री बन गए। 2 अक्टूबर, 1994 की तारीख को उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के लोग कभी नहीं भूलेंगे। जो लोग हिंसा की राजनीति और हिंसा के जरिये सरकारी दमन का विरोध करते हैं वे भी इस तारीख को नहीं भूलेंगे। तब उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर उत्तर प्रदेश में आंदोलन चल रहा था। मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर सो रहे निहत्थे आंदोलनकारियों परआधी रात को पुलिस ने गोली चला दी। लोग नींद से जागे, भागे, गन्ने के खेतों में छिपने की कोशिश की मगर वहां भी मारे गए। महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। यह खबर प्रदेश ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय-अंतराराष्ट्रीय स्तर पर खूब चर्चित रही। इस घटना को लेकर मुलायम सिंह यादव की खूब आलोचना हुई। उत्तर प्रदेश के दो अखबारों दैनिक जागरण और अमर उजाला ने इन खबरों को प्रमुखता से छापा। इसका नतीजा यह हुआ कि मुलायम सिंह इन अखबारों के मालिकों से नाराज हो गए। समाजवादी पार्टी ने इनके खिलाफ हल्ला-बोल का नारा दिया। हल्ला-बोल में जगह-जगह सपा कार्यकर्ताओं द्वारा इन अखबारों की प्रतियां जलाई जाने लगी और हॉकरों पर हमला होने लगा। एक दिन में मामला इतना बढ़ गया कि सपा के कार्यकर्ता इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच की अदालत में घुस गए। आखिर में इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को फोन कर उनसे मदद की गुहार लगाई। उसके बादमुलायम सिंह यादव का ये हल्ला-बोलरुका लेकिन मुलायम नहीं रुके।

गेस्ट हाउस कांड

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वर्ष 1995 में पंचायती राज व्यवस्था के तहत पहली बार पंचायत के चुनाव हो रहे थे। अपनी ही सहयोगी बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों को जबरन हराने की सपा की ओर से कोशिशहो रही थी। मारपीट, अपहरणतक नौबत आ गई थी। इसके विरोध में बसपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया। बसपा नेता मायावती अपने विधायकों के साथ लखनऊ के मीराबाई गेस्ट हाउस में ठहरीथीं। वहां उन्हें सपा के कार्यकर्ताओं और गुंडों ने घेर लिया। भाजपा नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने तत्काल वहां पहुंच कर उनकी जान बचाई। अगर वे न पहुंचते तो मायावती का शायद जिंदा बच पाना मुश्किल था। उस घटना को गेस्ट हाउस कांड के नाम से अब भी जाना जाता है। उसका मुकदमा चल रहा था। 2019 में जब मायावती ने सपा से गठबंधन कियातब उस मुकदमे को वापस लिया। उन्हें लगता है कि उनके जीवन की यह बहुत बड़ी भूल है। लेकिन जब ऐसी स्थिति आ गई और अराजकता का ये आलम ये हो गया तो आखिरकार राष्ट्रपति, केंद्र सरकार और राज्यपाल को हस्तक्षेप करना पड़ा और मुलायम सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई। यह हुआ वर्ष 1995 में।

विधानसभा में हिंसा, गुंडई का नंगा नाच

मुलायम सिंह जब वर्ष 1993 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उस दौरान की एक बड़ी घटना का जिक्र भी करना जरूरी है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के इतिहास में पहली बार सदन के अंदर हिंसा होती हुई दिखी, खून बहते देखा गया, विधायकों से मारपीट हुई, यहां तक की स्पीकर को भी बख्शा नहीं गया। उसमें कितने नेता घायल हुए यह पता नहीं लेकिन खून सने कपड़े पहने निकलने वालों की तादाद अच्छी खासी थी। यह विधानसभा सत्र के पहले दिन ही हुआ।सरकार के शपथ लेने के बाद जब पहले सत्र की शुरुआत हुई उसी दिन यह घटना घटी। यह सेहरा भी मुलायम सिंह और समाजवादी पार्टी के सिर पर बंधता है। उसके बाद मुलायम सिंह यादव ने दबंगई की राजनीति को अपना हथियार बना लिया, उसको अपनी रणनीति का हिस्सा बना लिया। प्रदेश के सभी माफिया, गुंडों की समाजवादी पार्टी शरणस्थली बन गई। 2003 में वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। 2003-07 तक उनके कार्यकाल में प्रदेश में जो गुंडई का नंगा नाच हुआ, तांडव हुआ उससे एक बार फिर यह सवाल उठा कि क्या यह पार्टी प्रदेश में राज करने लायक है। 2007 में जब विधानसभा चुनाव हुए तब सपा बुरी तरह से हारी।इस चुनाव में पहली बार बहुजन समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। (जारी)