सपा की कार्यशैली बदलने की शुरुआत की तो मुलायम ने आलोचना कर दी।
प्रदीप सिंह।
वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने एक संकेत देना शुरू किया। उन्होंने उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता डीपी यादव को पार्टी में शामिल करने से मना कर दिया। ऐसा कर उन्होंने संकेत दिया कि वे पार्टी के कल्चर को बदलना चाहते हैं, उसकी कार्यशैली को बदलना चाहते हैं। बाहर से पढ़ कर आए हैं, पढ़े-लिखे हैं। उस समय देशभर में चर्चा हो रही थी कि उत्तर प्रदेश में यादव समाज से राजनीति में एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति आया है। कई लोगों नेकहा कि चंद्रजीत यादव के बाद इस तरह का नेता आ रहा है। उनसे लोगों को बड़ी उम्मीद थी। 2012 में जब सपा चुनाव जीत गई और मुलायम ने अखिलेश को मुख्यमंत्री बना दिया तो उसके बाद ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव को लगने लगा कि पार्टी का कल्चर बदलने से फायदा नहीं होगा। एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव के करीबी लोगों की आलोचना कर दी। उन्होंने कहा कि“इन लोगों में क्या दम है। ये दो लाठी भी नहीं खा सकते। हमलोग लाठियां खाकर यहां तक आए हैं।” उनका अखिलेश यादव को संदेश साफ था कि पार्टी की जो कार्यशैली है उसे बदलने की कोशिश मत करो। उसकी ताकत तुम में नहीं है। अखिलेश यादव को शायद यह बात समझ में आ गई कि यही इस पार्टी की यूएसपी है, यही इस पार्टी की खासियत है, यही इसको आगे ले जा सकती है।
अपना ली मुलायम की कार्यशैली
अखिलेश यादव ने उसके बाद जो किया 2016-17 इसका गवाह बना कि उन्होंने क्या किया और किस तरह से अपने पिता की राजनीतिक विरासतको ही हासिल नहीं किया बल्कि उस कार्यशैली और उसकार्यसंस्कृति को भी अपना लिया। 2015 में ही मुलायम सिंह के कई बयान काफी विवादों में रहे। खासकर बलात्कार को लेकर। उनके एक बयान की काफी आलोचन हुई जो शायद उन्होंने दिल्ली की घटना के बाद दिया था। बलात्कार को लेकर उन्होंने कहा था, ‘लड़के हैं लड़कों से गलतियां हो जाती हैं तो क्या उन्हें फांसी पर चढ़ा दोगे।’इसी तरह सामूहिक बलात्कार को लेकर उन्होंने कहा, ‘जो महिलाएं सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाती हैं वो झूठ बोलती हैं। व्यवहारिक रूप से ऐसा संभव ही नहीं है।’ उनके इस बयान पर महोबा के ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने उन्हें समन भी जारी किया था।इस तरह की बात करके वे अपने कार्यकर्ताओं को संदेश दे रहे थे कि ये सब काम बुरा नहीं है। हिंसा, बलात्कार, लूटपाट, मारपीट में कोई बुराई नहीं है। इस तरह के काम अखिलेश यादव के कार्यकाल में भी होता रहा। उस दबंगई को, गुंडों के साथ को, पार्टी ने अपनी सबसे बड़ी खासियत मान ली।
जब संपादक की गर्दन पर रख दी तलवार
2016 में लखनऊ के एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक में अखिलेश यादव के खिलाफ एक खबर छपी तो संपादक को बुला लिया गया और उनकी गर्दन पर तलवार रख दी गई। उस अखबार के मुंबई और दिल्ली के संपादकों को भी बुलाया गया। बाद में एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में इस घटना का उन्होंने बड़े गर्व से जिक्र किया और उसे जस्टिफाई करने की कोशिश की कि उन्होंने जो किया बिल्कुल सही किया। इसके बाद जब परिवार में मुलायम की राजनीतिक विरासत को लेकर झगड़ा चरम पर पहुंच गया तो 30 दिसंबर, 2016 को मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव को पार्टी से निकाल दिया। हालांकि 24 घंटे बाद ही उन्हें वापस पार्टी में ले लिया गया। लेकिन उसके बाद अखिलेश ने पलटवार किया और उन्होंने अपने पिता को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिया और खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे। चाचा शिवपाल यादव को भी पार्टी से बाहर कर दिया। यह सब 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हो रहा था। परिवार में जिस तरह की मानसिक हिंसा हो रही थी और जिस तरह से अखिलेश यादव के समर्थक मुलायम सिंह और शिवपाल यादव के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे, जिस तरह का उनका तेवर था, उसे देखकर कोई भी डर सकता है। सपा की कार्यशैली कैसी है, उसके कार्यकर्ता कैसे हैं उसका दुखद अनुभव अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ। डिंपल यादव की एक चुनावी सभा (शायद प्रतापगढ़ में) में सपा के कुछ युवा कार्यकर्ता मंच पर जबरन चढ़ने की कोशिश कर रहे थे, उनके इरादे भी नेक नहीं लग रहे थे। लाख समझाने के बावजूद जब वे नहीं माने तो आखिर में डिंपल यादव को मंच से धमकी देनी पड़ी कि अगर आप लोग नहीं माने तो भैया (अखिलेश यादव) से शिकायत करूंगी। तो ये कार्यशैली है सपा की।
अब क्यों बेचैन है सपा
अब समस्या क्या है? समस्या यह हुई है कि पहली बार प्रदेश में कोई ऐसा मुख्यमंत्री आया है जिसने इस पर लगाम लगा दी है कि ये सब नहीं करने देंगे। ये गुंडागर्दी नहीं चलेगी। गुंडागर्दी और संगठित अपराध को तहस-नहस कर दिया गया है। उसके आर्थिक तंत्र को भी तहस-नहस कर दिया गया है। इस समय सपा की बेचैनी यही है। उसके तंत्र पर जो लोग पुष्पित-पल्वित हो रहे थे उनके लिए सर्वाइवल का सवाल है। और भी बहुत से कारण हैं जिसका जिक्र फिर कभी। लेकिन एक बात समझ लेनी चाहिए कि सपा अपनी ही बनाई हुईरणनीति, अपनी ही बनाई हुई छवि की कैदी हो चुकी है। वह इससे बाहर निकलना चाहे तो भी नहीं निकल सकती क्योंकि निकलेगी तो सपा नहीं रह जाएगी। सपा की यही पहचान है, इसी रूप में वह बनी रह सकती है और इसी रूप में खत्म होगी। खत्म होने से मेरा मतलब पार्टी का खत्म हो जाना नहीं है बल्कि राजनीतिक प्रभाव घटते जाना है। किसी भी पार्टी को खत्म होने में लंबा समय लगता है। राजनीतिक प्रभाव घटते-घटते ही पार्टी खत्म होती है। सपा को और अखिलेश यादव के समर्थकों को एक बात समझ में नहीं आ रही है कि 2014 के बाद से बीजेपी ने फिनिशिंग लाइन को आगे खिसका दिया है। 30 प्रतिशत की जो फिनिशिंग लाइन सपा मान कर चल रही थी, आज तक उससे ज्यादा उसकी परफॉर्मेंस नहीं रही है, उस फिनिशिंग लाइन को बीजेपी 40 और 50 प्रतिशत तक लेकर चली गई। 30 प्रतिशत की लाइन पर अगर सपा पहुंच भी जाए या उससे थोड़ा ऊपर भी चली जाए तब भी फिनिशिंग लाइन उसके लिए बहुत दूर रहेगी। इसलिए कह रहा हूं कि सपा अपनी कार्यशैली, अपनी यूएसपी से जहां तक पहुंच सकती थी पहुंच चुकी है। इससे आगे बढ़ने कीउसकी गुंजाइश फिलहाल नजर नहीं आती है। (समाप्त)