महामारी बनता कैंसर, जनता पस्त सरकारें मस्त

सुरेंद्र किशोर।
अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़ दें तो आज लगभग हर खाद्य-भोज्य पदार्थ मिलावट से ग्रस्त है। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं आदि के कारण  भी कैंसर के मरीज बढ़ रहे हैं। कैंसर के मरीजों की संख्या के मामले में देश में बिहार का चौथा स्थान है। उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है।

बिहार विधान परिषद की विशेष जांच समिति ने राज्य के खादय व पेय पदार्थों में मिलावट की शिकायतों की जांच की थी। समिति ने राज्य के दौरे के बाद 84 पेज की रपट तैयार की। रपट 3 अप्रैल, 2002 कोे विधान परिषद को पेश की गई। रपट में कहा गया कि पूरा बिहार मिलावटी कारोबारियों की दया पर निर्भर हो गया है। मेरा मानना है कि शासन में भ्रष्टाचार में इस बीच काफी बढ़ोत्तरी के साथ ही यह समस्या आज और भी गंभीर हो चुकी है।

बिहार में हर साल कैंसर के करीब सवा लाख नये मरीज सामने आते हैं। कई सामने नहीं आ पाते हैं। बिहार सरकार के खाद्य निरीक्षक जगह जगह तैनात हैं। उनका कर्त्तव्य है कि हर दुकान से कम से कम हर तीन महीने में एक बार संदेहास्पद पदार्थ का नमूना उठाना। जांच के लिए प्रयोगशाला में भेजना है। जांच रपट के आधार पर कार्रवाई की सिफारिश करनी है। पर क्या ऐसा होता है? यह सिर्फ भगवान जानता है।

No photo description available.

कुछ दशक पहले तक जब विधान सभा-परिषद में आज जैसा हंगामा नहीं होता था तो सदस्य सवाल पूछते थे कि कितने नमूने उठाये गये ? कितनों की जांच हुई? क्या रिपोर्ट आई? क्या कार्रवाई हुई… पर आज?

थोड़ा कहना बहुत समझना। लोग कैंसर से मरते रहें, भला कौन परवाह करता है ! हां, जब अपने परिवार को कोई सदस्य कैंसर से मरता है तो थोडे़ समय के लिए चिंता होती है। इस देश के अनेक लोग मुनाफाखोर मिलावटखोरों और घूसखोर प्रशासन के बीच कराह रहे हैं, तिल -तिल कर मर रहे हैं।

3 अप्रैल, 2002 कोे विधान परिषद में जो रपट पेश की गई उसमें कहा गया कि प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पटना में परोसे जाने वाले मिनरल वाटर की गुणवत्ता संदेहास्पद थी। 2010 में कानपुर से खबर आई कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को परोसे जाने वाले भोज्य पदार्थ भी घटिया किस्म के थे। दरअसल इस देश के प्रधान मंत्री के साथ यह सुविधा है कि उनके पेय व खादय  पदार्थों की एस.पी.जी. के लोग पहले ही जांच कर लेते हैं। पर सवाल है कि आम लोगों को उनके हाल पर क्यों छोड़ दिया जाता है? क्या मिलावट के सौदागरों के सामने विभिन्न  सरकारों ने घुटने टेक रखे हैं?

विधान परिषद समिति की रपट में यह भी कहा गया था यहां तक कि बिहार विधान सभा का कैंटीन भी अपमिश्रण के मामले में अछूता नहीं रहा। पटना की कई प्रतिष्ठित किराना दुकानों को भी समिति ने अपमिश्रण के मामले में अपवाद नहीं माना था। उस समिति ने तो तब सिफारिश की थी कि खाद्य अपमिश्रण से संबंधित अधिनियम व नियमावली की देश, काल और परिस्थिति के अनुसार समीक्षा की जाए।अपमिश्रण निवारण हेतु राज्य मुख्यालय में पूर्ण रूप से आवश्यकता के अनुसार सहायकों को पदस्थापित किया जाए। मुख्यालय स्तर से छापेमारी के द्वारा नमूनों के संग्रह के लिए गाड़ियों तथा पर्याप्त राशि व सुरक्षा का प्रबंध किया जाए। लोक विश्लेषक व खादय निरीक्षक के पदों को भरने की व्यवस्था की जाए।

समिति की इन सिफारिशों का भी कोई असर राज्य सरकार पर नहीं पड़ा। आम आदमी मिलावट के धीमे जहर से तिल -तिल कर मर रहा है।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर पीठ ने सन 2011 में ही कहा था कि मिलावटखोरों के  खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का इस्तेमाल किया जा सकता है। समय-समय पर इस देश की विभिन्न अदालतों ने भी कड़ी कार्रवाई की जरुरत बताई। पर एनएसए की बात कौन कहे, सामान्य कानूनों को लागू करने में भी प्रशासनिक मशीनरी विफल रही है। कारण आपद -मस्तक भ्रष्टाचार है।

इन्हीं सब बातों को देखते हुए मैं कई बार लिख चुका हूं कि भ्रष्टाचार के लिए इस देश में भी फांसी की सजा का प्रावधान हो। अन्यथा, बहुमूल्य जानें जाती रहेंगी। अपवादों को छोड़ दें तो देश के अधिकतर फूड इंस्पेक्टर व औषधि निरीक्षक नमूनों के बदले कुछ दूसरी ही चीजें ग्रहण करने के लिए दुकानों पर जाते हैं। वैसे भी फूड इंस्पेक्टर व औषधि निरीक्षकों की संख्या इतनी नहीं है कि नियमतः वे तीन महीने के अंतराल पर हर दुकान से नमूने ले सकें। कहीं किसी इंस्पेक्टर ने नमूने लेने की गुस्ताखी की भी तो उसे दुकानदारों ने मार कर भगा दिया। उसे पुलिस संरक्षण नहीं मिलता। उसके भी कारण हैं।

मिलावट के कुछ नमूने

इंडिया टूडे हिंदी-15 जून, 1989 के अनुसार 1- बिक्रेता गण सब्जियों की ताजगी बरकरार रखने अथवा उनके परिरक्षण के लिए उन्हें कीटनाशकों में डूबोते हैं। तेलों और मिठाइयों में वर्जित पदार्थों की मिलावट की जाती है। 2- सब्जियों और दूसरे खाद्य पदार्थ को धोना फायदेमंद है। लेकिन पकाने से विषैले अवशेष बिरले ही खत्म होते हैं। निगले जाने के बाद छोटी आंत कीटनाशकों को सोख लेती है। 3- शरीर भर में फैले वसायुक्त उत्तक इन कीटनाशकों को जमा कर लेते हैं। इनसे दिल, दिमाग, गुर्दे और जिगर सरीखे अहम अंगों को नुकसान पहुंच सकता है।
फिर आज तो हालात और भी बिगड़ चुके हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में भारत की संसद में सरकार से पूछा गया था कि क्यों अमेरिका की अपेक्षा हमारे देश में तैयार हो रहे कोल्ड ड्रिंक में रासायनिक कीटनाशक दवाओं का प्रतिशत अधिक है?
मंत्री सुषमा स्वराज का जवाब था- ‘‘ यहां कुछ अधिक की अनुमति है।’’
क्या अब नरेंद्र मोदी सरकार भी इस बात से सहमत है ?

एक ताजा खबर के अनुसार, इस देश में बिक रहा 85  प्रतिशत दूध मिलावटी है। जितने दूध का उत्पादन नहीं है, उससे अधिक की आपूर्ति हो रही है। सवाल है कि इस देश में अन्य कौन सा खाद्य व भोज्य पदार्थ शुद्ध है?

तथाकथित हरित क्रांति के साथ ही जिसे जहर क्रांति कहा जा सकता है, हमारी सरकारों ने साठ के दशक से ही रासायनिक खाद- रासायनिक कीटनाशक दवाओं के साथ खेतों में जहर डलवाना शुरू कर दिया था। नतीजतन मिट्टी जहरीली होने लगी है। उपज में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने लगी। ऐसे में कैंसर नहीं बढ़ेगा तो क्या होगा?

तो क्या करें

जैविक उत्पादों का इस्तेमाल कीजिए। थोड़ा महंगा पड़ेगा। पर कैंसर के इलाज का खर्च कौन सा सस्ता है !
इतना ही नहीं, कैंसर पीड़ित मरीज जब अपने अंतिम समय में कैंसर की अपार पीड़ा (दर्दनाशक दवा का अभी इजाद नहीं हुआ है) झेलने लगता है तो पास खड़े लाचार परिजन भी रोने लगते हैं। अपने तथा अपने परिवार के प्राण बचाइए क्योंकि इस देश-प्रदेश का महाभ्रष्ट सरकारी अमला अपने अपार लोभ का संवरण कब करेगा, यह कहना कठिन है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)