नॉर्वे के सामने अपनी संस्‍कृति बचाने का संकट।

डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
स्कैंडनेवियाई देश नॉर्वे में नॉर्वेजियन सेंटर फ़ॉर होलोकॉस्ट एंड माइनॉरिटी स्टडीज़ द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि नॉर्वे के एक तिहाई (अधिक सटीक रूप से 31 प्रतिशत) लोग इस कथन से सहमत थे कि “मुसलमान यूरोप पर कब्ज़ा करना चाहते हैं”। आधी आबादी इस बात से सहमत थी कि इस्लामी मूल्य नॉर्वेजियन समाज के मूल्यों के साथ पूरी तरह या आंशिक रूप से असंगत थे। इसके अलावा, लगभग एक तिहाई ने खुद को मुसलमानों से सामाजिक रूप से दूर करने की इच्छा व्यक्त की, जबकि इससे पहले की स्‍थ‍िति यहां की यह रही थी कि 1970 के दशक में पहली बार नॉर्वे ने बड़ी संख्या में मुस्लिम आप्रवासियों को अपने साथ लेना शुरू किया और फिर 9 सालों में यहां वह स्‍थ‍िति पैदा हो गई कि इस्‍लाम का विरोध शुरू होने लगा।

1979 की शुरुआत में, एडवर्ड सईद की पुस्तक ‘ओरिएंटलिज्म’ के प्रकाशन के एक साल बाद कार्ल आई. हेगन ने समाचार पत्र ‘आफ्टेनपोस्टेन’ में एक जोरदार इस्लाम विरोधी कॉलम लिखा। अगले वर्ष, नॉर्वे में सलमान रुश्दी की पुस्तक के प्रकाशन के खिलाफ मुस्लिम प्रदर्शनों और बाद में इसके नॉर्वेजियन प्रकाशक विलियम न्यागार्ड की हत्या के प्रयास पर भी तीखी मुस्लिम विरोधी प्रतिक्रियाएं हुईं।

इसके साथ ही, यहां गुप्त इस्लामीकरण और यूरेबिया जैसी अवधारणाएं फैलने लगीं, जो यह दर्शाती हैं कि इस्लाम धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से यूरोपीय समाजों में अपनी पकड़ बना रहा है और उन धर्मनिरपेक्ष और ईसाई मूल्यों की जगह ले रहा है, जिन पर ये समाज आधारित हैं। डर में यह विचार शामिल है कि मुसलमानों की बड़े परिवार रखने की प्रवृत्ति के कारण श्वेत आबादी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी, जिसे जनसांख्यिकीय युद्ध के रूप में जानी जाने वाली प्रक्रिया के माध्यम से प्रतिस्थापित किया जाएगा। ऐसे परिदृश्य के विश्वास को मिस्र-यहूदी लेखिका बैट ये’ओर ने अपनी पुस्तक ‘यूरेबिया’ में बहुत ही तार्क‍िक ढंग से साक्ष्‍यों के साथ प्रस्‍तुत किया।

यूरेबिया सिद्धांत के अनुसार, यूरोप में मुसलमानों का एक छिपा हुआ एजेंडा है, जिसके तहत वे धीरे-धीरे यूरोप की सत्ता पर कब्ज़ा कर लेंगे। इसी तरह की सोच स्टील्थ इस्लामीकरण की अवधारणा को रेखांकित करती है, जिसे सिव जेन्सेन ने 2009 में प्रोग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में लॉन्च किया था। इससे एक साल पहले (2008), एक अमेरिकी ब्लॉगर और ‘स्टॉप इस्लामाइजेशन ऑफ अमेरिका’ के संस्थापक रॉबर्ट स्पेंसर ने अपनी पुस्तक ‘स्टील्थ जिहाद’ प्रकाशित की थी।

नॉर्वे के ओस्लो विश्वविद्यालय (यूआईओ) का शोध अध्‍ययन कहता है, पिछले दशक में नॉर्वे में हमने शांतिकाल में देश की सबसे भीषण सामूहिक हत्या का अनुभव किया है। 22 जुलाई 2011 को, ओस्लो में सरकारी क्वार्टर पर एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक की बमबारी और उटोया द्वीप पर युवाओं की गोलीबारी के पीछे कई वैचारिक उद्देश्यों में यूरोप में इस्लामीकरण का डर भी शामिल था। मार्च 2019 में क्राइस्टचर्च, न्यूजीलैंड में दो मस्जिदों पर ब्रेंटन टैरंट के आतंकवादी हमले ब्रेविक के आतंकवादी कृत्यों से प्रेरित थे, जबकि उसी वर्ष अगस्त में बेरम में एक मस्जिद पर फिलिप मैनशॉस का हमला क्राइस्टचर्च में हुए हमलों से प्रेरित था। तीनों मामलों में, हमलों के कई उद्देश्यों में से मुस्लिम विरोधी विचार केवल एक था, किंतु वह भी था। इन आतंकवादी हमलों में हम मुस्लिम विरोधी, नस्लवादी साजिश सिद्धांतों के सबसे चरम परिणाम देखते हैं, जो दावा करते हैं कि मुस्लिम आप्रवासन एक बड़े उथल-पुथल में योगदान दे रहा है, जो लंबे समय में श्वेत (यूरोपियन) आबादी को खत्म कर देगा।

स्वीडन में मुस्‍लिम शरणार्थी बन गए भस्‍मासुर

यूरोप के उत्तर में बसे छोटे से स्कैंडनेवियाई देश स्वीडन से आए दिन हिंसक घटनाओं की खबरें आ जाती हैं। आमतौर पर शांत माने जाने वाले इस स्कैंडिनेवियन देश में बीते समय में मुस्लिम समुदाय की तरफ से शुरू हुआ उपद्रव लगातार बढ़ता जा रहा है। पथराव, वाहनों में तोड़फोड़, आगजनी, पुलिस से सीधा टकराव और धार्मिक नारेबाजी यहां समय के साथ सामान्‍य बात होती जा रही है। आज क्‍या यह केवल एक यूरोपीय देश का ही नजारा है? 21वीं सदी की यह एक बुरी हकीकत है कि कई देशों में मुस्लिम कट्टरपंथ और उन्माद की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्‍तरी हो रही है।

युरोप के इस देश में शरणार्थ‍ियों पर की गई दयालुता की कहानी यूं शुरू होती है; दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से पीड़ित बनकर शरण मांगने यहां आए मुस्‍लिम लोग, जो मध्य एशिया और अफ्रीका के अशांत क्षेत्रों से बड़ी संख्या में  स्वीडन आए थे, हमेशा के लिए यहीं बस गए। स्वीडन की तरह ही, इनकी एक बड़ी संख्‍या अन्य यूरोपीय देशों में गई और वहीं बस गई। इन सभी शरणार्थ‍ियों को स्वीडिश सरकार ने भी खुले मन से स्‍वीकारा और तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराईं। समय बीतने के साथ शरणार्थी रहे ये मुस्लिम स्‍वीडन के नागरिक हो गए। इस विषय पर बीबीसी ने अलग-अलग समय में विस्‍तृत रिपोर्ट की हैं, जिसमें से एक में एक महिला का जिक्र आया है, जो कभी ईसाईयत से मतान्‍तरित होकर इस्लाम अपना चुकी थी और पति के साथ सीरिया में इस्लामिक स्टेट (आइएस) की आतंकी के तौर पर गोलियां चलाने के लिए जा पहुंची थी। वहां जब एक आतंकी घटना के दौरान पति की मौत हो गई और उसके बाद इस्‍लामिक कट्टरवाद के अन्‍य पहलुओं को उसने नजदीक से देखा, तो जैसे उसके सोचने का संपूर्ण नजरिया ही बदल गया। उसे अब अपनी गलती का अहसास हो रहा था।

दरअसल, जार्डन के एक पायलट को जिंदा जलाने के बाद उसकी अंतरात्‍मा उसे कचोट रही थी कि वह बहुत ही गलत रास्‍ते पर चल रही है, उसे समझ आया कि यह मुक्‍ति का मार्ग नहीं, यह तो उसके मूल मानवता के धर्म के सिद्धांतों और भावनाओं के खिलाफ है। तब वह इस्लामिक स्टेट (आइएस) के चंगुल से भागने की योजना बनाती है और फिर किसी तरह से वहां से भागकर वापस स्वीडन पहुंचती है। फिर उसके जीवन की कहानी मीडिया के जरिए सभी के सामने आती है और दुनिया उसके अनुभवों के जरिए यह जान पाती है कि  उसको ‘आइएस’ आतंकी बनाने के लिए कैसे उसका ब्रेनवाश किया गया और किस प्रकार से अन्‍य लोगों के सोचने के नजरिए को बदलने के लिए प्रयास किए जाते हैं, ताकि वे इस्लामिक लड़ाके के रूप में तैयार हो सकें।

आईएस में जाते हैं सबसे ज्‍यादा लड़ाके

बीबीसी की रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि इन्हीं शरणार्थियों की नई पीढ़ी स्वीडन में अराजकता पैदा कर रही है। यह उन्मादी पीढ़ी केवल स्वीडन तक ही सीमित नहीं रही, विश्‍व भर में आतंक फैलाने निकली है। आज यही कट्टरपंथ और उन्माद स्वीडन की आंतरिक सुरक्षा पर भारी पड़ रहा है। यह भी एक जानकारी है कि यूरोप से सबसे अधिक जिहादी भेजने वाले देशों में स्वीडन की गिनती होती है। यूरोप में शरणार्थि‍यों द्वारा इस्‍लामिक आतंकवाद के विस्‍तार पर एक रपट पत्रकार संजय पोखरियाल की भी वेब पर देखी जा सकती है, जिसमें सविस्‍तार उन्‍होंने तर्क एवं आंकड़ों के साथ बताया है कि गोटेनबर्ग जिहादियों की सबसे अधिक भर्ती करने वाला स्वीडिश शहर है। करीब पांच लाख की आबादी वाला यह शहर कभी औद्योगिक शक्ति रहा था और अब एक पोर्ट सिटी है, लेकिन यह दूसरे ही कारण से कुख्यात हो गया। स्वीडन से आईएस में जाने वाले 300 जिहादियों में से 100 इसी शहर से थे। उग्रता की साजिश में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। यहां की एक तिहाई से ज्यादा आबादी दूसरे देशों से आए लोगों की है, जिसमें से अधिकांश मु्स्लिम हैं। उत्तर-पूर्वी कस्बे एंग्रेड में तो यह संख्या कुल आबादी के सत्तर प्रतिशत से भी अधिक है। कुल तथ्‍य यह भी है कि इस समय स्वीडन इस धार्मिक कट्टरपंथ से जुड़ी हिंसा को झेल रहा है।  स्वीडन ने क्रिसमस पर रोशनी करने पर प्रतिबंध लगा दिया है, ताकि मुस्लिम शरणार्थियों को उग्र होने से रोका जा सके।

(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)