पुण्यतिथि पर विशेष
डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (25 जुलाई 1911 – 19 नवम्बर 1987) का जन्म वाराणसी के पास महरई गाँव में हुआ था। परिवार ने आपका नाम शान्तनु विहारी द्विवेदी रखा। आप सरयूपारी ब्राह्मण थे।
सात वर्ष की अवस्था में आपके पिताजी परलोक सिधार गए। आपकी शिक्षा-दीक्षा की ज़िम्मेदारी आपकी माँ (भागवतीजी) और उनसे साठ वर्ष बड़े पितामह (पंडित श्री चंद्रशेखर द्विवेदीजी) ने निभाई। पितामह ज्योतिष और कर्मकांड के प्रतिष्ठित विद्वान थे। आप अपने पितामह को बाबा कहते थे।
स्वामी अखण्डानन्दजी ने ‘आनन्द-बोध’ पत्रिका में जनवरी 1984 से नवम्बर 1987 तक और उसके बाद भी कुछ लेख लिखे। उन लेखों का संग्रह बाद में ‘पावन प्रसंग ‘ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुआ। उस पुस्तक का प्रथम संस्करण फरवरी 1988 में और चतुर्थ संस्करण मई 2012 में प्रकाशित हुआ।
चतुर्थ संस्करण के पृष्ठ संख्या 306-308 पर आपने लिखा:
“अत्यंत बाल्यावस्था में ही मुझे उनसे (बाबा से) शिक्षा मिलनी प्रारम्भ हो गई थी। सत्यनारायण कथा, दुर्गापाठ, महूर्त चिंतामणि मुझे कंठस्थ हो गए थे। उनके पास पढ़ने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे और कुछ मेरे घर पर ही रहते थे। ….. बाबा ज्योतिष की गणित कितनी सुगमता से कर लेते हैं, कुण्डली कैसे बना देते हैं। यह सब मैं देख-देख कर अनुकरण कर लेता था। यह सब मेरे लिए कोई कठिन काम नहीं था।“ …
“मेरे गाँव से डेढ़-दो मील दूर धानापुर नाम की एक बस्ती है। वहाँ थे पण्डित प्रह्लाद मिश्र। वे पण्डित तो थे ही, बड़े सज्जन, सदाचारी एवं सौम्य स्वभाव के थे। मैं प्रतिदिन उनके पास विद्याध्ययन के लिए जाता था। वे गंगा-स्नान, सन्ध्या-वन्दन आदि से निवृत होकर गंगाजली हाथ में लिए घर आते थे। चोटी बंधी हुई ललाट पर चन्दन, अध्यापन में बड़े निपुण थे। गायत्री-जप में उनकी दृढ़ निष्ठा थी। …
“एक बार की बात है, मैं दो-तीन दिन पढ़ने के लिए नहीं गया। उनके पिता पण्डित श्रीरघुदत्त मिश्र आयुर्वेद के बड़े विद्वान एवं प्रतिष्ठित चिकित्सक थे, वे मेरे घर आए। वे मेरे पितामह के समकक्ष थे। मुझसे बोले – ‘बेटा, तुम्हें ज़्वर (बुखार) आता है, इसीसे नहीं आए? कल ज्वर आने से पहले मेरे घर आ जाना, मैं ज्वर को रोक दूँगा।‘ उन्होने सिर पर हाथ रखा, पीठ ठोंकी।
“दूसरे दिन ज्वर आने से पूर्व ही मैं उनके पास पहुँच गया। उन्होंने गाय के गोबर से धरती लीप कर कम्बल बिछा रखा था। मुझसे कहा – ‘तुम इस पर बैठ जाओ अथवा लेट ताओ। मैं चारों ओर गाय के गोबर के भस्म से एक मन्त्र लिख देता हूँ, उसके भीतर ज्वर (बुखार) प्रवेश नहीं करेगा। तुम बाहर नहीं निकलना।‘
“मैं पहले तो लेट गया। परन्तु जब वह चले गए, तो उठ बैठा और देखने लगा कि लिखा क्या है। वह हनुमानजी का मंत्र था। उसमें विभिन्न प्रकार के ज्वरों के नाम लेकर कहा गया था कि हे हनुमानजी, इन ज्वरों को नष्ट कर दो।
“सचमुच उस दिन मुझे ज्वर नहीं आया। मैं पूर्ववत अध्ययन के कार्य में लग गया।
“उस मन्त्र पर मेरी बाल सुलभ श्रद्धा ऐसी दृढ़ हो गई कि मैं बिना किसी से पूछे ग्रन्थों में उसे ढूंढता रहा। ‘कल्याण’ के सम्पादन विभाग में जाने के बाद वह ‘लाड्गूलोपनिषद्’ में मिल गया।“
श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी ने सन्यास लेने के कुछ वर्ष पहले ‘कल्याण’ गोरखपुर के सम्पादकीय विभाग में काम किया था। उन दिनों भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार (1892-1971) ‘कल्याण’ के सम्पादक थे। भाईजी ‘कल्याण की स्थापना वर्ष अर्थात सन् 1926 से 1971 तक उस मासिक पत्रिका के सम्पादक रहे। भाईजी का प्रेम ही श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी (स्वामी अखण्डानन्दजी) को ‘कल्याण’ में खींच लाया था।
‘पावन प्रसंग’ (चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ संख्या 306-308) पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने आगे लिखा:
“प्रसंग के बाहर जा कर यह चमत्कार आपको बताना चाहता हूँ कि तबसे अब तक मुझे ज्वर का प्रकोप बहुत कम हुआ है। कभी-कभी एक-दो दिन तक थोड़ा-थोड़ा ज्वर अवश्य रहा है। बीच में एक बार सन् 1934-35 के आस-पास पित्तज्वर हुआ था। वमन हुआ और मैं बेसुध हो गया। भाई सुदर्शन सिंहजी चक्र ने मुझे पानी के एक टब में बैठा दिया था और मैंने मूर्छा की दशा में ही देखा कि एक भयंकर राक्षसी, जिसका नाम मृत्यु था, मुझ पर आक्रमण करने दौड़ रही है और श्री हनुमानजी गदा लेकर उसकी ओर दौड़ रहे हैं। राक्षसी भाग गई और मेरा ज्वर गायब हो गया। मन्त्र का चमत्कार हो या न हो, अब तक का मेरा अनुभव यही है। आगे क्या होगा सो ज्ञात नहीं।“
परवल का गुण
‘पावन प्रसंग’ के पृष्ठ 155 में भिक्षुजी श्रीशंकरानन्दजी महाराज पर भी एक लेख है। सच तो यह है कि स्वामी अखण्डानन्दजी असंख्य साधू, महात्माओं और वैरागियों से मिले। उनसे मिलना उनको पसन्द था। पृष्ठ 155 पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा:
“एक वर्ष बाद, पुन: जब मैं कनखल (हरिद्वार) गया तो वे (श्रीशंकरानन्दजी) उस खण्डहर में नहीं थे। बड़ी कठिनाई से उनका पता चला। वे बड़ी नहर से निकलने वाले एक बम्बे के पास एक छोटे से बगीचे में रह रहे थे। अत्यन्त कृश एवं रुग्ण थे। उनसे मिलने पर ज्ञात हुआ कि किसी ईर्ष्यालु व्यक्ति ने भिक्षा में उन्हें विष दे दिया था और लोगों ने उनको उस खण्डहर में से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर रख दिया था। वे उसके बाद से छह महीने तक वहीं बगीचे में रहे तथा परवल के अतिरिक्त कुछ खाते नहीं थे। परवल (संस्कृत शब्द पटोल) में विष पचाने की अद्भुत शक्ति है। मैं यथाशक्ति उनकी सेवा करता रहा। धीरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे। …. उस विष-ग्रस्त अवस्था में भी उनका खल्वाट ललाट शीशे की तरह चम-चम चमकता था। मुख पर प्रसन्नता खेलती रहती थी। बात-बात में विनोद करते थे। बाद में उनके पास दूसरे सम्प्रदायों के सन्त भी प्रश्नोत्तर के लिए आया करते थे।
“उसके बाद वाले वर्ष में जब मैं गया तो वे एक झोले में लिखने-पढ़ने की सामग्री लेकर कनखल से दक्षिण दिशा में छोटी नहर के किनारे कहीं मिले। …. अब वे भिन्न-भिन्न वृक्षों के नीचे रहने लगे थे। कभी कहीं मिले, कभी कहीं। वर्षा हुई, भींग गए। ज्वर चढ़ आया। पर वे अपने हठ पर अडिग थे। जब मूर्छित होने लगे तब उन्हें बलात् उठा कर श्मशान घाट के पास एक बड़े मकान के एक कमरे में लाया गया। वह मकान बहुत दिनों से खाली पड़ा था। बहुत मजबूत था, सुरक्षित था। उस कमरे में पहुँचने के लिए दो-तीन दरवाजे पार करने पड़ते थे। कमरा हवादार था। दूर-दूर तक गंगाजी का दर्शन होता था। अच्छे हुए, तब उसमें रहना उन्होंने स्वीकार कर लिया। परन्तु उनकी वाणी में व्यंग्य, हंसी, दृढ़ता टपकती रहती थी। भिक्षा भी भक्त लोग वहीं ले आते थे। हम लोगों को भी उससे प्रसन्नता हुई। मैं ‘कल्याण के सम्पादन विभाग में रहा। बाद में सन्यासी हो गया। परन्तु उनके पास आना-जाना, प्रेम सम्पर्क ज्यों-का-त्यों बना रहा।“
सिद्धि माताजी का गुरु-मन्त्र
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक में पृष्ठ संख्या 248 से 258 तक स्वामी अखण्डानन्दजी ने ‘ब्रह्ममयी माँ’ शीर्षक से अपनी माँ के बारे में लिखा: जब मैंने सन्यास नहीं लिया था और अपनी माँ के संग रहता था, तब काशी में मेरी माँ की भेंट एक सिद्धि माताजी से हुई। दो-चार बरस बाद उन्होंने मेरी माताजी को एक मन्त्र भी दिया था। वे मेरी माँ की गुरुमाँ हो गईं थीं। मेरी माँ उस गुरु-मंत्र को मन ही मन स्मरण और जाप करतीं थीं।
अखण्डानन्दजी ने लिखा:
“वह यह समझतीं थीं कि उनके सिवा इस बात को (उस मन्त्र को) कोई नहीं जानता। एक दिन भोजन के समय महानिर्वाण तन्त्र का वही सप्ताक्षर मन्त्र मैं एकाएक बोलने लगा। तब मेरी माँ को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा – “यह मन्त्र तुमको कैसे मालूम है?” मैंने कहा – “मुझे मालूम है कि तुम इसी का जप करती हो। तुम्हारे सिर पर जो चमक और रेखाएँ उठ रही हैं, वे इसी मन्त्र से आती हैं।“
पृष्ठ 255 पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा:
“जब मैं कल्याण-परिवार में रह रहा था, भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार ने माताजी को और मुझे भी दो बातों से निश्चिंत कर दिया: एक तो अपने प्रभाव और सहयोग से (मेरी) बेटी कमला का विवाह सन्त साहित्य के प्रसिद्ध लेखक श्री परुशराम चतुर्वेदी के पुत्र श्री धन्नजय चतुर्वेदी से करा दिया और दूसरे विशम्भर के पढ़ने की व्यवस्था चुरू ऋषिकुल में कर दी। इससे माताजी निश्चिंत होकर भजन करने लगीं और घर पर चलने वाली पाठशाला के विद्यार्थियों को अपने पुत्र के समान मान कर उन्हें स्नेह देने लगीं। विद्यार्थीगण माताजी के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव रखते थे। वे उन्हें सदाचार, शिष्टाचार, भगवद्भजन का उपदेश किया करती थीं। …
मेरे सन्यास लेने पर माँ रोई
“सन् बयालीस के आरम्भ में पण्डित श्री मदनमोहन मालवीयजी को श्रीमद्भागवत सुनाने के बाद मैंने ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य श्रीबृह्मानन्द सरस्वती सन्यास-दीक्षा ले ली और दण्डी स्वामी हो कर मध्यप्रदेश की ओर चला गया। इससे माताजी के चित्त को बड़ी चोट लगी। यद्यपि उन्होंने पहले अनुमति दे दी थी … वे दु:खी होकर भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी के पास गईं। उन्होंने माताजी को बहुत समझाया-बुझाया। भाईजी ने कहा की यदि कोई साधारण व्यक्ति सन्यास ग्रहण कर लेता, तो हम उसको आग्रह और प्रायश्चित के द्वारा गृहस्थाश्रम में लौटा भी सकते थे, परन्तु एक तो वह विद्वान हैं, और दूसरे ‘कल्याण’ के द्वारा उनकी विद्या और लेखन की प्रसिद्धि हो चुकी है। अब यदि वह गृहस्थाश्रम में लौट भी आएं, तो उनकी बड़ी बदनामी होगी। बदनामी की बात सुनकर माताजी ने तुरन्त कह दिया कि जिस काम से उनकी बदनामी हो वह करने का आग्रह मैं कदापि नहीं करूंगी। वे जहां रहें जैसे रहें, सुखी रहें। माताजी का आशीर्वाद प्राप्त हो गया। मेरे सन्यास लेने के बाद वह अद्वैत वेदान्त का विचार करने लगीं, गंगा-किनारे विचरते हुए जो महात्मा वहाँ आ जाते, उनका सत्संग करतीं। भगवान की भक्ति तो थी ही, मेरे सन्यासी हो जाने पर उनके मन में भी वैराग्य का उदय हुआ। घर के काम में रुचि लेना कम हो गया।“
माँ का सन्यास और अन्तिम संस्कार
धीरे-धीरे एक दिन वह आया कि माताजी ने भी सिर मुड़वा लिया और सन्यास ले लिया।
स्वामी अखण्डानन्दजी ने पृष्ठ संख्या 258 पर लिखा:
“वृन्दावन में श्री उड़ियाबाबाजी के निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में उत्सव चल रहा था। … भण्डारा होने के बाद बाहर से आए हुए लोगों से मिल-जुल कर एक बजे दिन में (माताजी) अपने आसन पर लेट गईं। तीन बजे किसी ने देखा कि माताजी की सांस नहीं चल रही है। मैं गया तो देखा उनका एक हाथ सिर के नीचे है और एक हाथ कमर पर। करवट से लेटी हुईं थीं। ऐसा लगता था, बिना किसी तकलीफ के, बिना किसी छटपटी के, उनके प्राण शान्त हो गए हों। वायु, वायु से एक तो रहती ही है, केवल बल्ब का फ्यूज उड़ गया था और देह का सम्बन्ध टूट गया था। चेतनात्मा तो सदा शुद्ध-बुद्ध-मुक्त अद्वितीय बृह्म है ही। उनका शरीर यमुना में (प्रवाहित कर) दिया गया। कछुओं का भण्डारा हुआ। उनके पौत्र विश्वम्भरनाथ ने अपने गांव जाकर विधि-पूर्वक श्राद्ध और ब्राह्मण-भोजन कराया। उनके श्रद्धालु भक्तों की संख्या तो वहाँ उस समय भी बहुत थी और अब भी है।“
‘पावन प्रसंग’ चतुर्थ संस्करण (मई 2012) का मूल्य रु 80/- था। यह स्वाभाविक है कि अब नए संस्करण का मूल्य कुछ बढ़ा हुआ होगा। इस पुस्तक के प्रकाशक हैं:
सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, स्वामीश्री अखण्डानन्द पुस्तकालय, आनन्द कुटीर, मोतीझील, वृन्दावन – 281121
जो पाठकगण इस पुस्तक के चतुर्थ संस्करण को फ्री में पढ़ना चाहें, वे क्लिक करें:
https://archive.org/details/
स्वामी अखण्डानन्दजी की लगभग 120 पुस्तकें लिखीं। वे या तो गीता प्रेस, गोरखपुर ने या फिर सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन ने प्रकाशित की हैं। ‘कल्याण’ गीता प्रेस, गोरखपुर की मासिक पत्रिका है। ‘कल्याण’ के सम्पादकीय विभाग में काम करते हुए स्वामी अखण्डानन्दजी ने श्रीमद्भागवत-महापुराण का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था तथा अन्य कई पुस्तकें भी लिखीं थीं, जिनमें शामिल हैं: श्री भीष्म पितामह, भक्तराज हनुमान्, महात्मा विदुर, आदि। इनमें से श्री भीष्म पितामह, भक्तराज हनुमान्, महात्मा विदुर गीता सेवा ट्रस्ट के एप (gitaseva.org) को डाउनलोड करके फ्री में पढ़ी जा सकती हैं।
भक्ति रहस्य
स्वामी अखण्डानन्दजी की एक अन्य पुस्तक ‘भक्ति रहस्य’ के बारे में भी इन पंक्तियों का लेखक एक लेख कई सप्ताह पहले लिख चुका है। उसे इस URL पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है:
https://apkaakhbar.com/swami-
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद हैं)