तख्तापलट, हिंदुओं की हत्या और मो. यूनुस को बुलाना
रमेश शर्मा।
बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार ने शपथ ले ली है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस ने बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में शपथ ली। 84 वर्षीय यूनुस को राष्ट्रपति मोहम्मद शहाबुद्दीन ने राष्ट्रपति भवन ‘बंगभवन’ में आयोजित एक समारोह में पद की शपथ दिलाई।
बांग्लादेश में हिंसा और भीड़ की अराजकता कहने के लिये राजनैतिक है। पर निशाने पर राजनेता कम हिन्दू परिवार और उनके मंदिर अधिक हैं। 29 जिलों में चुन चुनकर हिन्दूओं को निशाना बनाया गया है। पहले दिन ही मरने वाले हिन्दूओं की संख्या सौ से अधिक हो गई थी। लेकिन सेना के प्रभावी होने के बाद मरने वालों और घायलों के आकड़े नहीं आ रहे। बांग्लादेश के ताजा घटनाक्रम में दूसरा विचारणीय बिंदु मोहम्मद युनुस के हाथों अंतरिम सरकार की कमान सौंपना है।
बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हो गया है। यह परिवर्तन जनमत के द्वारा नहीं हुआ। पहले अराजक हिंसक भीड़ ने सत्ता पर अधिकार किया और फिर सेना के सहयोग से उद्योगपति मोहम्मद युनुस को अमेरिका से बुलाकर अंतरिम सरकार की कमान सौंपी है। सत्ता का यह पहला चरण है। जो बहुत दूरदर्शिता से उठाया है। संभावना है कि अगले चरण में खालिदा जिया अथवा उनके बेटे तारिक के हाथ में सत्ता होगी। बांग्लादेश की सत्ता पर बैठने वाले चेहरे चाहे जो हों पर इसके तार पाकिस्तान और चीन से जुड़े होंगे। इसका कारण सत्ता परिवर्तन का तरीका है। बांग्लादेश में हिंसा के माध्यम से सत्ता परिवर्तन पहला नहीं है। विश्व के जिन देशों में मुस्लिम कट्टरपंथी अथवा माओवादी अति प्रभावी हुए हैं वहाँ ऐसी घटनाएँ घट चुकीं हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि देशों में ऐसा हो चुका है। चीन और रूस के इतिहास में भी ऐसी घटनाएँ घटीं हैं। बांग्लादेश की ताजा घटना इस परंपरा की एक और कड़ी है। इसमें माओवादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों की शैली बहुत स्पष्ट है। दोनों का अपना अपना लक्ष्य है। माओवादियों का लक्ष्य सत्ता होती है और कट्टरपंथियों का लक्ष्य सत्ता के साथ विपरीत मतानुयायियों को मारकर उनकी संपत्ति को लूटना। यद्यपि इन दोनों समूहों में कोई वैचारिक साम्य नहीं हैं पर फिर भी अनेक एशियाई देशों में यह गठबंधन काम कर रहा है। श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल और मालदीप आदि देशों में सत्ता परिवर्तन देखकर इसे समझा जा सकता है। ये सभी देश भारत के पड़ौसी हैं। पता नहीं यह केवल दुर्योग है या सच्चाई कि भारत में घटने वाली अनेक घटनाओं की शैली में भी इस गठजोड़ की झलक मिलती है। बांग्लादेश के घटनाक्रम में भी यही कहानी है। सत्ता भी बदल गई और हिन्दूओं को निशाना भी बनाया गया। यह सब कोई अचानक नहीं हुआ। योजना बहुत सटीक और गुप्त रही। यह भी विचारणीय है कि शेख हसीना को सुरक्षित निकलने अवसर मिल गया पर हिन्दूओं को ढाका से भी निकलने का अवसर न मिला। आँदोलन आरक्षण विरोध के नाम पर शुरु हुआ था। पर हिन्सा में वे युवा भी मारे गये जो आँदोलन में साथ थे। अब घटनाक्रम घट चुका है। एक एक कड़ी हमारे सामने है। यदि सभी कड़ियों को जोड़े तो भयावह तस्वीर बनती है। बहुत स्पष्ट है आरक्षण विरोध तो एक बहाना था। पहले दिन से उद्देश्य सत्ता परिवर्तन रहा होगा। आँदोलन की घोषणा और सत्ता परिवर्तन में कितना कम समय लगा। यह भी शोध का विषय है। और फिर आरक्षण की घोषणा शेख हसीना ने तो नही की थी। आरक्षण देने का आदेश कोर्ट का था। वह भी केवल सात प्रतिशत। लेकिन यह बहाना लेकर भीड़ सड़को पर आ गई। पहले थानों पर हमला हुआ और फिर सत्ता पर। पुलिस या तो हमलावरों के साथ हो गई अथवा किनारे खड़ी रही। सेना का हाथ हिंसकों की पीठ पर था। हिंसा की शैली से ही स्पष्ट है कि यह सुनियोजित थी। इसमें की गयी तैयारी झलक रही थी। भीड़ में कहीं कोई बिखराव नहीं था, संगठित स्वरूप में काम हो रहा था। भीड़ के समूह अपनी अपनी निश्चित दिशा में काम कर रहे थे। लगता था संचालन कोई एक केन्द्र है। एक समूह सत्ता पर टूटा और दूसरे ने हिन्दूओं को निशाना बनाया। शेख हसीना के पद और देश छोड़ने के बाद अंतरिम सरकार के लिये नाम के चयन में भी कोई विलंब न हुआ। मोहम्मद यूनुस का चयन हो गया। वे एक बड़े उद्योगपति हैं और अमेरिका में रहते हैं। उन्हें 2006 में नोबल पुरस्कार मिला था। सामान्यता मोहम्मद यूनुस अमेरिकन लाॅबी समर्थक माने जाते हैं। पर वे उन एनजीओ को भी फंडिंग करते हैं जिनपर लेफ्ट का प्रभाव माना जाता है। ऐसे कुछ संगठनों के सर्वेक्षणों में अक्सर भारत की निम्नता बताई जाती है। इस तरह मोहम्मद यूनुस के चयन से दोनों पक्ष साधे गये हैं। अमेरिकन लाॅबी भी तटस्थ रहेगी और लेफ्ट की धारा पर काम भी होगा।
परिवर्तन की दिशा में अंतरिम सरकार का पहला चरण है। दूसरे चरण में सरकार खालिदा जिया या उनके बेटे तारिक के हाथ में हो सकती है। लेकिन ये सरकारें दिखावटी होंगी। संचालन शक्ति सेना के हाथ में होगी। जैसा पाकिस्तान में होता है। सेना और सरकार दोनों पर कट्टरपंथी और माओवादी प्रभावी होंगे। बांग्लादेश में इन दोनों समूहों के अपने अपने छात्र और सामाजिक संगठन हैं। ताजा हिंसक आँदोलन में इन दोनों शक्तियों के बीच अद्भुत समन्वय रहा। यह भी माना जाता है कि बांग्लादेश के कुछ छात्र और सामाजिक संगठनों तार पाकिस्तान की खुफिया ऐजेन्सी आईएसआई और चीनी गुप्तचर संस्था एमएसएम से जुड़े हैं। न केवल बांग्लादेश अपितु भारत के सभी पड़ोसी देशों में ये दोनों संस्थाएँ मिलकर काम कर रहीं हैं। इसे नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और म्यामांर में आईं नयी सत्ताओं के स्वरूप से समझा जा सकता है। अब इसी धारा से बांग्लादेश जुड़ गया है।
बांग्लादेश के इस घटनाक्रम में सत्ता परिवर्तन तस्वीर का एक पहलू है। तस्वीर का दूसरा पहलू बांग्लादेश में हिन्दूओं के दमन का है। आँदोलन तो आरक्षण विरोध केलिये था। यदि वह सत्ता परिवर्तन की दिशा में मुड़ भी गया तो हिन्दूओं को क्यों निशाना बनाया गया। शेख हसीना और उनकी पार्टी के लोगों पर उतने हमले नहीं हुये जितने हिन्दूओं पर हुये। बांग्लादेश के 29 जिलों में हिन्दूओं को चुन चुनकर मारा गया। उनके घरों को लूटा गया, आग लगाई गई, मंदिरों पर हमले हुये और मूर्तियाँ तोड़ीं गईं। हिन्दूओं पर ये हमले सत्ता परिवर्तन के बाद भी नहीं रुके। अंतरिम सरकार के उभर आने के बाद भी बांग्लादेश के गाँवों में हिन्दूओं पर हमले नहीं रुके। इस कट्टरपंथी भीड़ ने ऐसे स्थानों को भी निशाना बनाया जो बांग्लादेश की पहचान रहे है उनका दोष इतना था कि वे मुसलमान नहीं थे। लेकिन पूरी तरह अपने देश केलिये समर्पित थे। ऐसा एक नाम गायक राहुल आनंद का है। उनके घर में पहले लूटपाट की गई। फिर लूट, तोड़ फोड़ करके आग लगा दी गई। यह घर 140 साल पुराना था। एक प्रकार से संगीत विधा का संग्रहालय जैसा था। इसे देखने केलिये देश विदेश के संगीत प्रेमी आते थे। 2023 में फ्रांस के राष्ट्रपति भी आये थे। इस आगजनी में 3000 म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स और सभी दुर्लभ कृतियाँ जलकर खाक हो गईं। अभी यह स्पष्ट नहीं हो रहा कि गायक राहुल आनंद अपने परिवार सहित कहीं गुप्त स्थान पर जाकर छुप गये या हमलावरों के हाथों मारे गये।
सेना के प्रभावी होने के बाद एक परिवर्तन आया। अब मीडिया की खबरों में हिन्दूओं की हत्याओं के आकड़े नहीं आ रहे। लेकिन हमले निरंतर हो रहे हैं। वे कब रुकेंगे यह कहा नही सकता। चूंकि पाकिस्तान का आकार ही नहीं बांग्लादेश का स्वरूप ग्रहण करने के बाद भी बांग्लादेश में हिन्दूओं की जनसंख्या निरंतर घट रही है। 1951 की जनगणना में 21 प्रतिशत हिन्दू थे जो अब घटकर 8 प्रतिशत से नीचे रह गये।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)