#pramodjoshiप्रमोद जोशी।
बांग्लादेश एक बार फिर से 2007-08 के दौर में वापस आ गया है। ऐसा लगता था कि शेख हसीना के नेतृत्व में देश लोकतांत्रिक राह पर आगे बढ़ेगा, पर वे ऐसा कर पाने में सफल हुईं नहीं। हालांकि इस देश का राजनीतिक भविष्य अभी अस्पष्ट है, पर लगता है कि फिलहाल कुछ समय तक यह सेना के हाथ में रहेगा। उसके बाद लोकतंत्र की वापसी कब होगी और किस रूप में होगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि सेना बैरक में कब लौटेगी, कर्फ्यू पूरी तरह से नहीं हटाया गया है, इंटरनेट पूरी तरह से वापस नहीं आया है और शैक्षणिक संस्थान बंद हैं।

शेख हसीना और उनके सलाहकारों ने भी राजनीतिक रूप से गलतियाँ की हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि उन्होंने पिछले 16 वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश नहीं की और जनमत को महत्व नहीं दिया। अवामी लीग जनता के मुद्दों को नजरंदाज़ करती रही। आरक्षण विरोधी आंदोलन को ‘सरकार विरोधी आंदोलन’ माना गया। उसे केवल कोटा सुधार आंदोलन के रूप में नहीं देखा। शेख हसीना के बेटे और उनके आईटी सलाहकार सजीब वाजेद जॉय ने सेना और न्याय-व्यवस्था से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया है कि कोई भी अनिर्वाचित देश में नहीं आनी चाहिए। सवाल है कि क्या निकट भविष्य में चुनाव संभव है? भारत की दृष्टि से यह परेशानी का समय है।

यह भी सच है कि शेख हसीना के विरोध में चले आंदोलन में शामिल काफी ताकतें साफ तौर पर भारत-विरोधी हैं। सोमवार को शेख हसीना के पलायन के बाद भारतीय संस्थाओं पर हुए हमलों से भी यह स्पष्ट हुआ है। यह बात भी समझ में आती है कि देश की सेना ने शेख हसीना को सुरक्षित निकलकर जाने का मौका तो दिया, पर आंदोलन को काबू में करने में उनकी मदद नहीं की। इस्तीफा देने के साथ ही शेख हसीना ने एक बयान जारी करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें वह मौका नहीं दिया गया।

सोमवार को शेख़ हसीना के पलायन की खबर के साथ इंटरनेट पर एक वीडियो भी वायरल हुआ, जिसमें शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा को तोड़ा जा रहा था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इन आंदोलनकारियों के पीछे किसका हाथ है। संयोग से 5 अगस्त की तारीख कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी के कारण महत्वपूर्ण हो गई है। पाकिस्तानी आईएसआई तारीखों के प्रतीकों का इस्तेमाल करती है। ऐसा ही एक संयोग 15 अगस्त, 2021 को हुआ था, जब काबुल पर तालिबान के शासन की वापसी हुई थी।

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शेख हसीना कई बार जानलेवा हमलों से उबर चुकी हैं। अपने कार्यकाल के दौरान उनकी सरकार देश के सीमा सुरक्षा बलों के हिंसक विद्रोह से भी बच चुकी है। उसमें 57 सैन्य अधिकारी मारे गए थे। वे तीन आम चुनाव जीत चुकी हैं। भले ही इन चुनावों की विश्वसनीयता पर संदेह हो। इन चुनावों की अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी आलोचना की है। वे मानवाधिकार-उल्लंघन के आरोपों और विपक्षी दलों के कई बार आंदोलनों का सामना कर चुकी हैं।

पिछले 53 साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही ‘विजय’  कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 15 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की थी। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की थी। शायद उन्हें इस हिंसा के पीछे खड़ी ताकतों के प्रति आगाह भी किया होगा।

बहरहाल जो हो गया, सो हो गया। भारत को वहाँ के नए सत्ताधारियों के साथ भी संपर्क कायम करना होगा, क्योंकि हमें राष्ट्रीय हितों की रक्षा भी करनी है। माना जाता है कि 2008 में सत्तारूढ़ हुई शेख हसीना ने पिछले सोलह साल में बांग्लादेश को ग़रीबी से बाहर निकाला। देश की आर्थिक-प्रगति के पीछे उनका हाथ है। कई लोगों का मानना है कि कोटा सुधार शुरू में छात्रों तक ही सीमित था, लेकिन अंत में यह सीमित नहीं रहा। चूंकि इसका संदर्भ बड़ा है, इसलिए इसके राजनीतिक पहलू भी हैं।

उनपर सबसे बड़ा आरोप निरंकुशता का है। इसमें दो राय नहीं कि सामान्य छात्र, अपनी बेरोजगारी को लेकर परेशान है। देश की आरक्षण प्रणाली के खिलाफ उसका आंदोलन समझ में आता था, पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद छात्रों की माँग पूरी हो गई थी। उसके बावजूद आंदोलन की दूसरी लहर ने साबित कर दिया कि इसके पीछे केवल छात्र नहीं हैं, बल्कि उन्हें ढाल बनाया गया। इसके पीछे बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और प्रतिबंधित संगठन जमाते-इस्लामी की भूमिका है। सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच भिड़ंत में पिछले महीने में लगभग 300 लोग मारे गए थे। रविवार को दोबारा शुरू हुई हिंसा में कम से कम 90 लोग मारे गए।

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इस विरोध ने सत्तारूढ़ अवामी लीग को हिलाकर रख दिया। पिछले 16 साल से लगातार सत्ता में रहने के बावजूद पार्टी को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। 2012 से 2014 तक, पार्टी ने युद्ध अपराधों के मुकदमे पर केंद्रित एक मजबूत राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व किया। इसके अलावा, पार्टी ने 2018 में कोटा विरोधी आंदोलन और बाद में ‘सुरक्षित सड़कें चाहिए’ आंदोलन को भी संभाला। लेकिन यह पहली बार है कि सरकार को विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए कर्फ्यू लगाने और सेना तैनात करने के लिए मजबूर होना पड़ा। विरोध का स्तर इतना तीव्र होगा इसकी कल्पना नहीं की गई होगी।

पीएम हसीना के देश छोड़ने के बाद सेनाध्यक्ष चीफ़ जनरल वकार-उज़्ज़मां ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा कि देश में एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी। उन्होंने आंदोलनकारियों से शांत होने की अपील भी की है और यह भी कहा है कि उनके साथ न्याय किया जाएगा। उधर ढाका में हजारों की भीड़ ने शेख़ हसीना के आधिकारिक आवास गणभवन पर धावा बोलकर जो उत्पात मचाया है, उससे लगता है कि अराजकता जल्द नियंत्रित नहीं होगी। सोमवार की स्थिति यह थी कि सेना सड़कों पर तैनात थी, लेकिन वह आंदोलनकारियों को रोक नहीं रही थी। दोपहर बाद से सड़कों पर पुलिस की मौजूदगी बहुत कम हो गई। अभी तक पुलिस ही आंदोलनकारियों का सामना कर रही थी। इसका मतलब है कि शेख हसीना की सरकार को सेना का समर्थन हासिल नहीं था।

(लेखक हिंदुस्तान नई दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)