स्मृतिशेष: मिल्खा सिंह (20 नवंबर 1929 – 18 जून 2021)।
मिल्खा सिंह ।
वो लड़का जिसने गोविंदपुरा स्थित (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) अपने घर से 10 किमी दूर अपने स्कूल तक जो दौड़ लगानी शुरू की वो फिर दोबारा कभी नहीं रुका। भारत की झोली में सोने के तमगे ही तमगे जमा कर दिए और नया नाम मिला ‘फ्लाइंग सिख’। पद्मश्री से सम्मानित मिल्खा सिंह 91 साल की उम्र में इस दुनिया से कूच कर गए। 90 साल की उम्र के बाद भी उनका फिटनेस के प्रति जुनून कम नहीं हुआ था। कई रिकॉर्ड बनाने वाले मिल्खा सिंह ने कभी कहा था कि ‘पेट खाली हो तो देश के बारे में नहीं सोचा जाता। जब पेट भरा तब मैंने भी देश के बारे में सोचा और देश के लिए दौड़ लगाई।’ उनकी कही कई बातें अब याद आती हैं।
फिटनेस के मायने
‘बदलाव फिटनेस से ही आएगा। मैं जो चल-फिर पा रहा हूं, वह केवल फिजिकल फिटनेस की वजह से ही हो पाया है। मैं लोगों से कहता हूं कम खाओ, क्योंकि सारी बीमारी पेट से ही शुरू होती हैं। जितनी भूख हो, उससे आधा खाइए। मेरी राय है कि चार रोटी की भूख है तो दो खाइए। जितना पेट खाली रहेगा आप ठीक रहेंगे। इसके बाद मैं चाहूंगा कि 24 घंटे में से 10 मिनट के लिए खेल के मैदान में जाना बहुत जरूरी है। पार्क हो, सड़क हो… जाइए और दस मिनट तेज वॉक कीजिए, थोड़ा कूद लीजिए, हाथ-पैर चला लीजिए। खून शरीर में तेजी से बहेगा तो बीमारियों को भी बहा देगा। आपको मेरी तरह कभी डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं होगी। सेहत के लिए दस मिनट निकलना बेहद जरूरी है।’
मैं, लाला अमरनाथ और मेजर ध्यानचंद
‘मेरे जमाने में 3 स्पोर्ट्समैन हुए। मैं, लाला अमरनाथ और मेजर ध्यानचंद जी थे। एक दिन नेशनल स्टेडियम के अंदर लाला अमरनाथ जी से मेरी बातें हो रही थीं। उन्होंने मुझे बताया कि मैच खेलने के लिए उन्हें दो रुपए मिलते हैं और थर्ड क्लास में उन्हें सफर करना होता है। अब हालात कितने बदल गए हैं। विराट कोहली के पास इतना पैसा, धोनी के पास इतनी दौलत है, सचिन कितने अमीर हैं, लेकिन तब इतना पैसा नहीं मिलता था।‘
‘ध्यानचंद जी जैसा हॉकी प्लेयर आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ। जब वे 1936 के बर्लिन ओलिंपिक में खेल रहे थे तो हिटलर ने उनसे कहा था कि ध्यानचंद आप यहां रह जाइए, आपको जो चाहिए हम देंगे, लेकिन ध्यानचंद जी ने कहा था नहीं, मुझे अपना देश प्यारा है, मुझे वापस जाना है।‘
‘1958 कॉमनवेल्थ गेम्स में जब मैंने पहला गोल्ड मैडल जीता, तो क्वीन ने मुझे गोल्ड मेडल पहनाया। स्टेडियम में करीब एक लाख अंग्रेज बैठे थे, भारतीय गिने-चुने ही थे। क्वीन जैसे ही गोल्ड मेडल पहनाकर गईं, तो एक साड़ी वाली औरत जो क्वीन के साथ ही बैठी थीं, दौड़ती हुई मेरे पास आई और बोली- मिल्खा जी… पंडित जी (जवाहरलाल नेहरू) का मैसेज आया है और उन्होंने कहा है कि मिल्खा से पूछो कि उन्हें क्या चाहिए। मैंने मांगा… सिर्फ एक दिन की छुट्टी। मैं पंडित जी से कुछ भी मांगता तो मिल जाता। लेकिन मांगने में शर्म का भाव आता है। तब मेरी तनख्वाह 39 रुपए 8 आने थी। सेना में मैं सिपाही था। उसी में हम गुजारा किया करते थे। आज इतना पैसा आ गया है खेल में, इतने लेटेस्ट इक्विपमेंट आ गए हैं, इतने स्टेडियम बन गए हैं, मगर मुझे दुख इस बात का है कि 1960 में जो मिल्खा सिंह ने रिकॉर्ड बनाया था, वहां तक आज तक कोई भारतीय खिलाड़ी नहीं पहुंच सका है। मुझे इस बात की तकलीफ है। आगे बढ़ो… सब कुछ है हमारे पास।’
कोई ओलिंपिक मेडल लाएगा तब मानूंगा बदलाव हुआ
‘ओलिंपिक में मैडल जीतना अलग स्तर का काम है। वहां पर 220-230 देशों के खिलाड़ी आते हैं और अपनी पूरी तैयारी करके आते हैं। जोर लगाकर आते हैं कि हमें स्विमिंग में मेडल जीतना है, फुटबॉल में मेडल जीतना है, हॉकी में मेडल जीतना है। एथलेटिक दुनिया में नंबर वन गेम मानी जाती है। उसमें जो मैडल ले जाता है उसे दुनिया मानती है। उसेन बोल्ट को पूरी दुनिया जानती है और कहती है कि जमैका का खिलाड़ी है। भारत की आजादी के बाद से केवल 5-6 खिलाड़ी फाइनल तक पहुंचे हैं, लेकिन मेडल नहीं ले पाए। मैं भी उनमें से एक हूं। जब कोई वहां से मेडल लेकर आएगा तब मैं मानूंगा कि बदलाव हुआ है।’
तब दौड़ता था जब पैरों में जूते नहीं होते थे
‘मैं नहीं जानता था कि ओलिंपिक गेम्स होते क्या हैं, एशियन गेम्स और वन हंड्रेड मीटर और फोर हंड्रेड मीटर रेस क्या होती है? मिल्खा सिंह तब दौड़ता था जब पैरों में जूते नहीं होते थे। न ही ट्रैक सूट होता था। न कोचेस थे और न ही स्टेडियम। 125 करोड़ है देश की आबादी। मुझे दुख इस बात का है कि अब तलक कोई दूसरा मिल्खा सिंह पैदा नहीं हो सका। मैं 90 साल का हो गया हूं, दिल में बस एक ही ख्वाहिश है कोई देश के लिए गोल्ड मेडल एथलेटिक्स में जीते। ओलंपिक में तिरंगा लहराए। नेशनल एंथम बजे।’
उस दौर में भी पैसे और सिफारिश चलती थी
‘मुझे आर्मी से 3 बार रिजेक्ट किया गया। मेरी हाइट ठीक थी, दौड़ा भी। मेडिकल टेस्ट भी पास किया, मगर मुझे रिजेक्ट कर दिया गया। उस दौर में भी पैसे और सिफारिश चलती थी। ये सब मेरे पास नहीं था। लिहाजा मैं 3 बार रिजेक्ट हुआ। मगर ये भी सच है कि मैं इसके बाद जो कुछ बना वो आर्मी के कारण ही बना। वहां स्पोर्ट्स की ट्रेनिंग मिली, कोच मिले। तब कहीं जाकर मैं ये सब कर पाया।’
खेल संगठनों में राजनीतिकों की घुसपैठ
‘तमाम खेल संगठनों में राजनीतिकों की घुसपैठ है। वो खेलों के बारे में कुछ नहीं जानते। वो पद पर बने रहें, लेकिन तजुर्बेकार खिलाड़ियों को खेलों पर काम करने दें। उदाहरण के तौर पर बैडमिंटन को लें। भारत में बड़े बैडमिंटन खिलाड़ी हैदराबाद से क्यों आ रहे हैं? क्योंकि वहां पुलेला गोपीचंद जैसा कोच है, जो चैंपियन रह चुका है और खिलाड़ियों में चैंपियन बनने का जज्बा पैदा कर रहा है।’
‘भारत सरकार खेलों के लिए काफी बजट जारी करती है। खेल संगठन सिर्फ पैसों को खर्च करने पर ध्यान देते हैं, लेकिन कहां खर्च करना है, इसका हिसाब कोई नहीं रखता। देश में विभिन्न खेलों के लगभग 50 हजार कोच हैं। वो क्या करते हैं, और सरकार से मिले धन का इस्तेमाल कहां होता है, ये कोई बताने वाला नहीं है। अगर इन प्रशिक्षकों की जिम्मेदारी तय कर दी जाए, तो नतीजे सामने आने लगेंगे वर्ना देश में क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों की स्थिति बदतर ही रहेगी।’
खेलकूद रिकॉर्ड, पुरस्कार
राष्ट्रमण्डल खेल
1958 (कार्डिफ) राष्ट्रमण्डल खेलों में 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक।
एशियाई खेल
1958 (टोक्यो) के एशियाई खेलों में 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक।
1958 (टोक्यो) एशियाई खेलों में 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक।
1962 (जकार्ता) एशियाई खेलों की 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक।
1962 (जकार्ता) एशियाई खेलों की 4*400 मीटर रिले रेस में स्वर्ण पदक।
राष्ट्रीय खेल भारत
1958 कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों की 400 मीटर रेस में स्वर्ण पदक।
1958 कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों की 200 मीटर रेस में स्वर्ण पदक।
1964 कलकत्ता में हुए राष्ट्रीय खेलों की 400 मीटर रेस में रजत पदक।
नागरिक सम्मान
1959 – पद्मश्री पुरस्कार।