राव साहब का जाना पाठकों के साथ साथ पत्रकार जगत का भी बड़ा नुकसान।

apka akhbar-ajayvidyutअजय विद्युत।
‘आपका अख़बार’ और देश के दर्जनों जाने-माने अख़बारों, पत्रिकाओं, पोर्टलों में जिनके शोधपूर्ण लेख नियमित छपते रहे, वह कलम अब शांत हो गयी है। 83 वर्षीय के. विक्रम राव इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट (आईएफडब्लूजे) के अध्यक्ष थे। पत्रकारिता की नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणा थे। तमिलभाषी राव मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार रहे। बाद में हिंदी में भी खूब लिखा। हिंदी पर उनकी पकड़ और शब्द चयन चमत्कार से कम नहीं था। जीवन के आखिरी आखिरी तक उनकी लेखनी निर्बाध चलती रही। व्हाट्सएप पर रविवार, 11 मई को शाम 5.27 पर उनका लेख प्राप्त हुआ था और सोमवार, 12 मई को सुबह 9.54 पर उनके पत्रकार पुत्र के.विश्वदेव राव के माध्यम से लखनऊ के एक अस्पताल में उनके निधन की दुखद सूचना आई। शराब और सिगरेट से दूर रहने वाले राव साहब पूर्ण शाकाहारी थे।

सबको सही और उचित राय ही देते थे- अच्युतानंद मिश्र

वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय भोपाल के पूर्व कुलपति श्री अच्युतानंद मिश्र ने के. विक्रम राव को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए बताया कि विक्रम राव ने इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (आईएफडब्लूजे) को कम्युनिस्टों से मुक्त कराया। श्री अच्युतानंद मिश्र जी नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स  (एनयूजे) में रहे और के. विक्रम राव आईएफडब्लूजे में। कुछ वैचारिक मतभेद होते हुए भी सांस्कृतिक स्तर पर दोनों में एकता रही और दोनों ही एक दूसरे का सदैव सम्मान करते रहे। श्री मिश्र जब माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे, तब उन्होंने उस यूनिवर्सिटी की त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया मीमांसा’ में के. विक्रम राव का भी एक लेख छपा था। श्री मिश्र ने बताया कि कोई भी चाहे किसी भी खेमे को हो, यदि विक्रम राव से वह कोई राय मशविरा करता था, तो राव साहब उसे सही और उचित राय ही देते थे। विक्रम राव के बड़े भाई के. एन. राव भारत के जाने-माने ज्योतिषी हैं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी के विकट योद्धा: हेमंत शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार)

उन्होंने लिखा। खूब लिखा। मरते दम तक लिखा। निधन से बारह घंटे पहले तक लिखा। वे अद्भुत लिक्खाड़ और दुर्लभ लड़ाका थे। किसी की परवाह नहीं करते। वे सिर्फ पत्रकार नहीं लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी के विकट योद्धा थे। वे एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में डायनामाइट रखने का माद्दा रखते थे। वे सरकार की चूलें हिला देते थे। उनमें अदम्य साहस, हौसला, निडरता, तेजस्विता, एकाग्रता और संघर्ष का अद्भुत समावेश था। उनके लेख जानकारियों की खान हुआ करते थे। वे भाषा में चमत्कार पैदा करते थे। अंग्रेज़ी के पत्रकार थे पर बड़े बड़े हिन्दी वालों के कान काटते थे। उनकी उर्दू और संस्कृत में वैसी ही गति थी। ऐसे कोटमराजू (के।) विक्रम राव आज यादों में समा गए। उनकी भरपाई मुश्किल है। दुखी हूँ।

विक्रम राव का जाना पत्रकारिता के एक युग का अवसान तो है ही, मेरा निजी नुक़सान भी है। वे मुझसे बड़े भाई जैसा स्नेह करते थे। विचारों से असहमत होते हुए भी मैं उनका सम्मान उनके बहुपठित होने के कारण करता था। वे जानकारियों और सूचनाओं की खान थे। अपने से ज़्यादा पढ़ा लिखा अगर लखनऊ में मैं किसी को मानता था तो वे राव साहब थे। 84साल की उम्र में भी वे रोज लिखते थे। मैं उन्हें इसलिए पढ़ता था कि उनके लेखों में दुर्लभ जानकारी, इतिहास के सूत्र और समाज का वैज्ञानिक विश्लेषण मिलता था।

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विक्रम राव जी से मेरी कभी पटी नहीं। वजह वैचारिक प्रतिबद्धताएँ। वे वामपंथी समाजवादी थे। उम्र के उत्तरार्ध में उनके विचारों में जबरदस्त परिवर्तन आया। क्यों? पता नहीं। वे पत्रकारों के नेता भी थे। आईएफडब्लूजे के आमरण अध्यक्ष रहे। मैं उनके मठ का सदस्य भी नहीं था। लखनऊ में पत्रकारिता में उन दिनों दो मठ थे। दोनों मठ मजबूत थे। एक एनयूजे दूसरा आईएफडब्ल्यूजे। अच्युता जी (श्री अच्युतानंद मिश्र) एनयूजे का नेतृत्व करते थे। और राव साहब आईएफडबलूजे के शिखर पुरुष। मैं दोनों मठों में नहीं था। वे मुझे कुजात की श्रेणी में गिनते थे। डॉ। लोहिया गांधीवादियों के लिए यह शब्द प्रयोग करते थे। सरकारी, मठी और कुजात गांधीवादी। एक, वो गांधीवादी जो सरकार में चले गए। दूसरे मठी, जो गांधी संस्थाओं में काबिज रहे। तीसरे कुजात, जो दोनों में नहीं थे। कुजात होने के बावजूद मैं उनका स्नेह भाजन बना रहा। शायद वे दुष्ट ग्रहों को साध कर रखते थे। इसलिए मुझसे प्रेम भाव रखते थे।

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एक दफ़ा प्रेस क्लब में उनके सम्मान में एक जलसा था। कई लोगों के साथ मैंने भी भाषण दिया। मैंने कहा, ‘मैंने जीवन में तीन ही महत्वपूर्ण और ताकतवर राव देखें हैं एक भीमराव दूसरे नरसिंह राव तीसरे विक्रम राव। एक ने ब्राह्मणवाद पर हमला किया। दूसरे ने बाबरी ढाँचे पर। और तीसरा किसे नष्ट कर रहा है आप जानते ही हैं। राव साहब ने मुझे तिरछी नज़रों से देखा। बाद में मुझसे पूछा- तुम शरारत से बाज नहीं आओगे। मैंने कहा, आदत से लाचार हूँ। पर इससे उनके स्नेह में कमी नहीं आयी। यह उनका बड़प्पन था।

राव साहब बेहद उथल-पुथल के दौर में पत्रकारिता कर रहे थे। देश मे इंदिरा और जेपी का टकराव चल रहा था। इंदिरा गांधी की चरम लोकप्रियता अचानक ही इमरजेंसी की तानाशाही के दौर में बदल गई। जेपी संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर रहे थे।  मुलायम, बेनी, लालू और नीतीश जैसे नेता उभरने की कशमकश में थे। इस संवेदनशील दौर को राव साहब ने अपनी सूझबूझ और कलम की ताकत के जोर पर बेहद ही स्पष्ट और सारगर्भित रूप में कवर किया। उन पर कभी भी पक्षपात के आरोप नहीं लगे। उन्होंने पत्रकारिता को हमेशा धर्म की तरह पवित्र माना। पत्रकारी हितों की लड़ाई में हमेशा अव्वल रहे। उनकी संगठन क्षमता बेजोड़ थी। उनका जीवन पत्रकारों की आधुनिक पीढ़ी के लिए आदर्श है। मिलने पर राव साहब को मैं हमेशा ‘राम राम’ ही कहता था। जबाब में वह ‘लाल सलाम’ कहते। मैंने कभी लाल सलाम नहीं कहा। पर आज मैं कहना चाहूँगा- लाला सलाम कामरेड! बहुत याद आएंगे आप।