शिवचरण चौहान।
15 जून से आषाढ़ शुरू है। मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का पहला दृश्य। मल्लिका गीले कपड़ों में कांपती सिमटती अंदर आती है और मां से कहती है- “आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा मां!… ऐसी धारदार वर्षा! दूर दूर तक की उपत्यकाएं भीग गईं।… और मैं भी तो! देखो न मां कैसी भीग गई हूँ।” …कालिदास ने लिखा है: “आषाढ़स्य प्रथमम दिवसे मेघ मलिष्ठनम सनुम।” यानी आषाढ़ के पहले दिन ही सूर्य बादलों से ढक जाता है। …नवगीतकार नईम के शब्दों में: “कभी हुआ सूखे का और कभी बाढ़ का/ पहला दिन मेरे आषाढ का।” कवि नईम का नवगीत आज के आषाढ़ पर ज्यादा सटीक बैठता है। इस साल मार्च में होली के बाद से उत्तर भारत में गर्मी का प्रचंड वेग देखने को आया है। आषाढ़ आ गया है और अभी भी गर्म लू चल रही है।
मौसम का कोई ठिकाना नहीं
जब से जलवायु में परिवर्तन होने लगा है। पृथ्वी का पर्यावरण बहुत बिगड़ा है। मौसम का कोई ठिकाना नहीं रहा। समय पर बरसात ना होना। समय के पूर्व बरसात होने लगना। पूरे बरसात भर बादलों का रुठ जाना। गर्मी में अधिक गर्मी पड़ना। सर्दियों में बर्फ गिरना और पानी बरसना अब आम बात हो गई है। ‘मांगे बारिधि देहिं जल रामचन्द्र के राज।’ तुलसीदास की यह पंक्तियां बेमानी हो गई हैं! जब जरूरत होती है- पानी नहीं बरसता। जब जरूरत नहीं होती है- बादल फट जाते हैं। गांव से लेकर महानगर तक समुद्र बन जाते हैं। किसान बादलों की राह तकते रह जाते हैं और बादल आते ही नहीं। पानी नहीं बरसता। भारतीय कृषि मानसून का जुआ तब भी कही जाती थी और आज भी है।
मानसून को लेकर सदियों से इंसान चिंतित रहा है । सूखा पड़ेगा कि पानी बरसेगा इसको लेकर ज्योतिषियों/ वैज्ञानिकों द्वारा शोध किए जाते रहे हैं। “भाव, मीच और पानी। ब्रह्मा भी ना जानी।।” ऐसी कहावतें लोक में प्रचलित हैं। प्राचीनकाल से ही सिकंदर, अरस्तु, वास्कोडिगामा और डायमंड हेली एक्स समेत कई अनुसंधानकर्ताओं ने मानसूनी हवाओं के बारे में विस्तार से लिखा है। अब तो अत्याधुनिक कृत्रिम उपग्रह और ड्रोन भी मानसून का अपलक अध्ययन कर रहे हैं और सटीक भविष्यवाणी करते हैं- जिससे हम सचेत हो जाते हैं। कुछ साल पहले और भयंकर तूफानों की सूचना हमारे मौसम विज्ञानियों ने हो उपग्रह के माध्यम से कर दी थी। किंतु समय पर मानसून आना या आंधी तूफान को नियंत्रित कर पाना अभी भी हमारे वैज्ञानिकों के बस में नहीं है। चीन ने थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त की है कि मौसम को नियंत्रित कर ले किंतु इसके दुष्परिणाम सामने आए हैं।
सूख रहा जमीन के नीचे का पानी
अगर समय पर मानसून आए, बादल बरसें- अतिवृष्टि ना हो- तो हमारा भी देश खुशहाल हो सकता है। सिंचाई और भूमिगत सिंचाई के साधन विकसित तो हुए हैं किंतु इससे जमीन के नीचे का पानी सूख रहा है।
मानसून विश्वव्यापी नहीं होता। उसमें दुनिया पर एक साथ छा जाने स्थिति नहीं होती है। मानसून हलचल तो उष्णकटिबंध में पड़ने वाले कुछ देशों में ही दिखाई देती है। ये हैं उत्तरी गोलार्द्ध में पड़ने वाले भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी चीन, फिलिपींस और अफ्रीका का विषुवत रेखा पर पड़ने वाला क्षेत्र। दक्षिण गोलार्ध में पड़ने वाले देश मसलन दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्से, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया के कुछ भू भाग और अफ्रीका इनमें मानसून इतना ज्यादा सक्रिय नहीं रहता।
मौसम वैज्ञानिक मानसून को इस तरह परिभाषित करते हैं कि वे ऐसी सामयिक हवाएं हैं- हर साल जिनकी दिशाओं मे दो बार उलट-पलट होनी ही है। उत्तर पूर्व और दक्षिण पश्चिम में मानसूनी हवाओं की दिशाओं में बदलाव वैज्ञानिक भाषा में कोरिओलिक बल के चलते होता है। यह बल गतिशील पिंडों में बदलाव वैज्ञानिक भाषा में कोरिओलिक बल के चलते होता है। यह बल गतिशील पिंडों पर असर डालता है। हमारी पृथ्वी भी गतिशील पिंड है जिसकी दो गतियां हैं दैनिक गति और वार्षिक गति। नतीजतन, उत्तरी गोलार्द्ध में मानसूनी हवाएं दाई ओर मुड़ जाती हैं और दक्षिणी गोलार्द्ध में बाई ओर। वायुगति के इस परिवर्तन को खोज पहले-पहल फेरल नामक वैज्ञानिक ने की थी। इसीलिए इस नियम को फेरल का नियम कहते हैं। यह आकट्य तथ्य है कि जमीन और वायुमंडलीय तापमान के अंतर के चलते मानसूनी हवाएं चलती हैं। वायुमंडलीय ताप और दबाव से गति उत्पन्न होती है। द्रव की तरह वायु का व्यवहार भी होता है। यानी उच्च भार से निम्न भार की ओर बहना प्रकृति के इस नियम को “वाइस वेल्ट्स लॉ” कहते हैं। धरती पर वायु भार की कई पेटियों में ग्लोब के 80 डिग्री से 85 डिग्री उत्तरी ओर दक्षिणी अक्षांशो में अधिक वायु भार होने के कारण विषुवत रेखा की ओर हवा बहने लगती है। प्रकृति को खाली जगह से जैसे खास चिढ़ है और वह उसे देखते ही भरने के लिए कमर कस कर झटपट तैयार हो जाती है। मानसून का जन्म विशुद्ध जलवायु विज्ञान की घटना है। यह सात समुद्रों के उस पार से नहीं आता बल्कि हिंद महासागर से इसका जन्म होता है। आगे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से भी ये मानसूनी हवाएं नमी ग्रहण करती हैं।
मानसून का मतलब वर्षा ऋतु
मानसून का मतलब वर्षा ऋतु ही होता है। यानी जिन क्षेत्रों और प्रदेशों में ऋतु बदलते ही हवा की प्रकृति और दिशा बदल जाती है- वे सारे प्रदेश मानसूनी जलवायु के प्रदेश कहे जाते हैं। भारत में भूमि स्थल से जल की ओर यानी महासागर की ओर हवाएं चलती हैं। और गर्मियों में ठीक इसके विपरीत यानी हिंद महासागर से भारत को और ये हवाएं ऋतु के अनुसार बहती हैं। इसीलिए मानसूनी हवाएं कहलाई। मानसून का अध्ययन प्राचीनकाल से जारी है। सिकंदर, अरस्तु, वास्को डिगामा और डायमंड हेली समेत कई अनुसंधानकर्ताओं ने मानसून हवाओं के बारे में विस्तार से लिखा है। भारत के लोककवि घाघ की कहावतें भी मौसम विज्ञान को परिभाषित करती हैं।
जब हमारे पास ना तो कृतिम उपग्रह थे और ना मौसम वैज्ञानिक। तब हम मौसम की जानकारी प्राप्त करने के लिए कुछ उपाय अपनाते थे। प्राचीन काल को लोग अध्ययन करते थे कि मानसून की उत्पत्ति कहाँ से और कैसे होती है। सबसे पहला मत पुराना है। जिसे जलवायु विज्ञान में “क्लासिकल स्कूल” कहते है। पुराने जमाने में न तो अच्छे किस्म के अत्याधुनिक यंत्रों का अविष्कार हुआ था और न ही विज्ञान इतना विकसित था। अतीत के अध्ययन और अनुभव के नतीजों के बतौर मानसून को ताप रहित हवाएं माना गया। जब सूर्य दक्षिणायन में लंबवत चमकता है। तब अपने यहां जाड़े का मौसम रहता है। उसी समय दक्षिण भारत का तापमान अधिक रहता है और हिंद महासागर में कम तापमान की वजह से अधिक दवाव का क्षेत्र बन जाता है। हम जान चुके हैं कि प्रकृति का कठोर नियम है कि अधिक दबाव से हवाएं कम दबाव की ओर चलती हैं। ये स्थानीय होती हैं और इन्हें व्यापारिक हवाएं भी कहते हैं।
हिमालय ने भारत को रेगिस्तान होने से बचा रखा
लेकिन जून यानी गर्मियों में इसका उल्टा होता है। इन दिनों सूर्य उत्तरायण यानी कर्क रेखा पर लंबवत चमकता है। यही वजह है कि उत्तरी भारत समेत उत्तर पश्चिमी भारत तपने लगता है और इसी कारण सूर्य के लंबवत चमकने पर वायु दबाव की सभी पेटियां पांच अंश या अधिक उत्तर की ओर व मकर रेखा पर दक्षिणायन में सूर्य के चमकने पर पेटियां पांच अंश या अधिक उत्तर को ओर व मकर रेखा पर दक्षिणायन में सूर्य के चमकने पर पेटियां दक्षिणी गोलार्द्ध में खिसक जाती हैं। इसके चलते जून जुलाई के महीनों में सूर्य भारत के मध्य भाग से गुजरती कटिबंधीय सोपांत (इंटरट्रापिकल कनवरजेंस) तक खिसक कर उत्तरी भारत के ऊपर आ जाता है। नतीजतन इस सीमांत के मध्य भाग में चलने वाली, भूमध्यरेखीय पछुआ हवाएं भी भारत तक पहुंचने लगती हैं। चूकि ये हवाएं समुद्र से आती हैं- और नमीयुक्त होने के कारण भारत में पहुंचकर वर्षा करती हैं।
इस विचारधारा के समर्थकों की दलील है कि भारत में सर्दी के मौसम में उत्तरी व्यापारिक हवाएं चलती हैं और ग्रीष्म ऋतु में यहां विषवत रेखीय पछुआ हवाएं चलती हैं। आधुनिक विचारधारा मानसून की तीसरी स्थिति मानी जाती है। इस विचारधारा के समर्थक एसटी मोन,एस, रत्ला, रमण पार्थसारथी और रामनाथन जैसे मशहूर मौसम विशेषज्ञ हैं। इनकी मान्यता है कि भारतीय मानसून दक्षिणी गोलार्ध में बहने वाली व्यापारकि हवाएँ है, जो जेट वायुधारा के विक्षोभ से नियंत्रित होती है। हिमालय के ऊपर वायुमंडल की ऊपरी परत में यह वायुधारा बहती है। हिमालय ने ही भारत को रेगिस्तान होने से बचा रखा है। यदि वह अडिग, अचल नहीं रहता तो मानसून की भरपूर वर्षा नहीं हो पाती। हिमालय भौतिक अवरोध को दीवार ही नहीं खड़ी करता, बल्कि दो भिन्न जलवायु वाले भू भाग को अलग-अलग भी रखता है। इसलिए कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास से लेकर दिनकर तक ने और आज के कवियों में हिमालय की वंदना बेवजह नहीं की है: “साकार, दिव्य, गौरव विराट, पोरुष के पूंजीभूत ज्वाल/ मेरी जननी के हिम किरीट, मेरे भारत के दिव्य भाल/ मेरे नगपति, मेरे विशाल।”
मानसून की असल चाबी- जेट वायुधारा
हिमालय की वायुधारा के दो भाग हैं। पूर्वी जेट स्ट्रीम और पश्चिमी जेट स्ट्रीम। इस वायुराशि का वेग बहुत तेज है। इसके नामकरण का इतिहास भी दुखद दुर्घटना के साथ जुड़ा है। जब नागासाकी और हिरोशिमा पर एटम बम गिराने अमेरिकी पायलट जा रहे थे तो हिमालय के ऊपर से उड़ते वक़्त उनके जेट की गति एकदम कम हो गई और बम डालकर लौटते समय कई गुना अधिक बढ़ गई। कुछ क्षणों के लिए जेट वायुयान बेकाबू हो गया। लेकिन इस वायुधारा से बाहर निकलते ही जेट फिर पहले की तरह हो गया। इसी के बाद इस वायुधारा के वैज्ञानिक अध्ययन के बाद सबसे पहले जेट से पाला पड़ने के कारण,इसका नामकरण जेट वायुधारा हो गया।
यही जेट वायुधारा मानसून की असल चाबी है। आजकल के अत्याधुनिक यंत्रों और मौसम उपग्रहों के अध्ययन भी इस दावे को प्रामाणिक ठहराते हैं। क्योंकि मानसून की अनिश्चितता और अनियमितता का स्पष्टीकरण जेट वायु धारा से ही होता है। जिस साल जेट वायुधारा मध्य जून के आस-पास हिमालय से खिसक कर तिब्बत के पठार पर आ जाती है, उस वर्ष मानसून भारतीय उपमहाद्वीप पर सामान्य रहता है। जेट वायुधारा के उत्तर की ओर खिसकने में विलंब करने की सूरत में मानसून भी विलंब से भारत पहुंचता है और जब यह वायुधारा खिसक जाती है तो मानसून भी समय से पहले भारत में गर्जन-तर्जन करता आ जाता है। हल्की या भारी वर्षा भी जेट वायुधारा के विक्षोभ की वजह से होती है। विक्षोभ के शक्तिशाली होने पर घनघोर वर्षा होती है और कमजोर होने पर बस बूंदाबांदी होकर रह जाती है। बरसात के लिए और भी कई बातों का होना जरूरी है। आखिर बिन बरसे बादल क्यों चले जाते है? बादलों में बरसात की बूंदों से हजार गुना ज्यादा बर्फ के टुकड़े होते हैं और खाली हवा हो तो बादलों से बरसात की बूंद नहीं बनती। भले ही वायु शून्य से 80 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान से नीचे चली जाए, भाप सीधे बर्फ बन जाएगी पर किसी कीमत पर बरसात की बूंद नहीं बनेगी।
सावन-भादों कक्ष
बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले में ‘सावन और भादों’ नाम के कक्ष बनवाए थे। यहीं बैठकर वह सावन और भादों की पहली बौछार का जी भर आनंद लेता था। यह कक्ष आज भी मौजूद है। हमेशा मानसून धीरे धीरे आता है, दौड़ लगाते नहीं आता। आमतौर पर मानसून सबसे पहले एक जून को केरल पहुंचता है, सात जून को बंगाल की खाड़ी, बांग्ला देश, असम और उप हिमालय क्षेत्रों की परिक्रमा के बाद दस जून को बंगाल की बारी अती है और पंद्रह जून तक कश्मीर पहुंच जाता है। 15 जून से 15 सितंबर के चार महीने के दौरान पूरे देश में तकरीबन 88 सेंटीमीटर बारिश होती है। इसी से 88 सेंटीमीटर वर्षा में दस फीसदी तक आगे पीछे को स्वाभाविक वर्षा माना जाता है। इससे अधिक होने पर अतिवृष्टि और कम होने पर अनावृष्टि कहा जाता है। पहली सितंबर से मानसून वापसी करने लगता है और अक्टूबर के तक उसके लौटने की प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
वर्षा के लिए कई बातें जरूरी
देश भर में वर्षा होने के लिए और भी कई बातें जरूरी हैं। दक्षिण, आंध्र, तमिलनाडु और श्रीलंका में उत्तर पूर्वी मानसून से जाड़े में वर्षा होती है। दक्षिण पश्चिम मानसून से वहां वर्षा नहीं होती। यही वजह है कि गर्मी में तमिलनाडु में चक्रवाती वर्षा नहीं होने से पीने के पानी का संकट हो जाता है। मौसम वैज्ञानिकों ने भारत के मौसम को मोटे तौर पर चार भागों में बांटा है। पहला- 1 मार्च से 15 जून तक मानसून पूर्व मौसम, दूसरा- 15 जून से 15 सितंबर तक दक्षिण पश्चिम मानसून का मौसम, तीसरा- 15 सितंबर से 30 नवंबर तक मानसून के बाद का मौसम और चौथा- 1 दिसंबर से 28 फरवरी तक जाड़े का मौसम।
भारत की 80 अस्सी फीसदी बारिश मानसून से होती है। किंतु जब से ऋतु चक्र गड़बड़ाया है भारत में मानसून भी रूठने और गुस्साने लगा है। कभी सूखा पड़ना, कभी अत्यधिक पानी बरसना और कभी अत्यधिक सर्दी पडना- इसी का कारण है। दुनिया में और भारत में बढ़ता वायु प्रदूषण, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, मनुष्यों द्वारा वन विनाश और विकास के नाम किए गए अंधाधुंध बदलाव के कारण दुनिया के साथ-साथ भारत की जलवायु बहुत खराब हो गई है। यही बात ग्लास्गो जलवायु सम्मेलन में भी कही गई है। यही हाल रहा तो कोरोना जैसी महामारी और भी नई नई महामारियां आती रहेंगी। जलवायु परिवर्तन के जो संकेत मिल रहे हैं वे बहुत खतरनाक हैं। समय रहते हमें जलवायु परिवर्तन से हो रहे पर्यावरण विनाश को बचा लेना है। अगर पर्यावरण बचेगा तो हिमालय बचेगा- धरती बचेगी- मनुष्य बचेगा- और सृष्टि बचेगी। वरना पछताना पड़ेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)