हेमंत शर्मा।
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है,
क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है।
-अकबर इलाहाबादी
चंदू बाबू का फ़ोन आया। उन्होंने पूछा, शाम को टहलने का कार्यक्रम है क्या? मैंने कहा नहीं। तो वे बोले आज मौसम रंगीन है। मन लौछिया रहा है, पान करने के लिए। मैंने पूछा पान करने का? या फिर खाने का? पियक्कड़ी आतुरता में वे बोल पड़े, नहीं भाई पान करना चाहता हूँ। मौसम पर ‘यास‘ (तूफ़ान) का असर है। मैंने कहा मैं तो पान करने नहीं बल्कि पान खाने वाली बनारसी संस्कृति का आदमी हूँ। बंद अक़्ल का ताला उसी से खुलता है और हां, बनारस में पान खाया नहीं, जमाया जाता है। चंदू का उत्साह पृथ्वी की कक्षा छोड़ने से पहले समुद्र में गिरने वाले उपग्रह की तरह ठंडा पड़ गया। अकसर मुझे यह बात कचोटती है कि नोयडा में खाने लायक़ पान भी नहीं मिलता। चंदू बाबू की इस मौसमी फरमाइश से मुझे मेरे मुहल्ले के पान वाले हीरू सरदार याद आ गए।
हीरू सरदार की नवईय्यत
क़द साढ़े तीन फ़ुट, नाक टेढ़ी, निरक्षर भट्टाचार्य, एक गमछा पहने हुए और दूसरा कन्धे पर, गमछे के नीचे लंगोट की लॉंग लटकी हुई। मुँह में पान, कृशकाय शरीर। यह थी हीरू सरदार की नवईय्यत। (बनारस में अहीर लोगों के लिए सरदार सम्मान सूचक सम्बोधन होता है) बनारस में पान का कारोबार ज़्यादातर बरई यानि चौरसिया करते है। इन्हें ही तमोली या तम्बोली भी कहा जाता है जो संस्कृत के ताम्बूल से बना है। इधर इस कारोबार में अहीरों का भी दखल हो गया है।
करेजा ज़र जाला
मुश्किल से छ: फुट लम्बी और चार फुट चौड़ी गुमटी में एक बड़ा सा आइना, एक नक्काशीदार पीतल के पैर वाली चौकी, चूने का कटोरा, कत्थे के लिए लोटेनुमा मिट्टी का पात्र, सादी पत्ती का मिट्टी का कटोरा, इलायची, लौंग, पिपरमिंट, किमाम की डिबिया और गुलाब जल। बस इतना ही था हीरू के कारोबार का सामान। हीरू सिगरेट नहीं बेचते थे।उनकी दलील थी कि ई नुक़सान करअला। करेजा ज़र जाला। चूने का कटोरा और कत्थे का बर्तन हीरू इतना चमका कर रखते थे कि बड़े से बड़े कर्मकांडी पंडित अपनी आचमनी उतनी क्या चमकाते होंगे!
मेरे घर के सामने
पियरी पर मेरे घर के सामने हीरू की पान की गुमटी थी। हीरू उच्चकोटी के ज़र्रे थे।ज़र्रे यानी बात बात में जिस किसी के शरीर के किसी ख़ास हिस्से में परपराने और फिर भड़क जाने की अनुभूति हो, उसे कहते हैं।मूल शब्द गड़जर्रे है। लेकिन चलन में मुख सुख के आधार पर गड़ का लोप हो गया।मुहल्ले के लड़कों के वे मनोरंजन के साधन थे। दिन भर में कई दफ़ा लोग हीरू को चिढ़ाते, पिडकाते और मुझे घर में तेरी मॉ … तेरी बहिन …आदि आदि हीरू की ललकार सुनाई देती। हीरू सरदार को अपनी कमजोर शारीरिक संरचना पर न कोई मलाल था। न ही उसे वे अपनी कमज़ोरी समझते थे। कोई पहलवान भी सामने आ जाय तो गरियाते हुए उसे पटकने की चुनौती देते थे हीरू सरदार। पान के लगाने के प्रति हीरू सरदार का जो समर्पण था, उसके पीछे बनारस की जड़ों में घुली एक पुरानी परंपरा भी है। क्योंकि बनारसियों के लिए पान जीने का औजार है।
मुंह में पान तो भगवान से भी बात नहीं
बनारसियों का विश्वास है कि पान स्वर्ग में नहीं मिलता। इसलिए जितना ज़माना हो यही जमा लीजिए। यहां पान खाया नही, जमाया या घुलाया जाता है। पान घुलाते वक्त वह भगवान से भी बात नहीं करता।बहुत ज़रूरी हुआ तो आसमान की तरफ़ मुँह कर कुछ बुदबुदा देगा। बनारसी पान से कितनी मुहब्बत करते हैं, यह इसी से पता चलेगा कि जो बनारसी पान नहीं खाते वे भी खाना खाने के बाद और निपटने (निवृत्त होने ) से पहले पान जरूर खाते हैं।
पान लगाने की कला
अचरज की बात है कि बनारस में पान की खेती नहीं होती। पान पैदा नहीं होता, फिर भी यहां का पान जगतप्रसिद्ध है। यानी पान नहीं बल्कि यहां की पान लगाने की कला ने दुनिया में अपना झंडा गाड़ा है। हीरू अपने पान की चौकी को किसी को हाथ नहीं लगाने देते थे। क्या मजाल कोई पैसा चौकी पर रख दे। हीरू कुपित हो कहते, ‘बड़ा जल्दी हौअ, उठावा पईसा। पान नाही हौअ।’ वे पान भी हमेशा बिलम्बित में लगाते। एक बार कत्था लगाकर चौधरी चरण सिंह की चर्चा छेड़ देते तो फिर चूना लगाने का नंबर चार पांच मिनट बाद ही आता।
बनारसी पान का पेटेंट
बनारस में पान के पत्ते को पकाना, कत्थे का संस्कार, चूना बनाना और सादी पत्ती (सुर्ती) का फ़ार्मूला ही बनारसी पान का पेटेंट है। जो पान के पत्ते महोबा, कलकत्ता और उड़ीसा से आते हैं, उसे यहां आठ से दस रोज़ तक कपड़ों में लपेट कर पानी का छींटा दे एक विशेष प्रक्रिया से गुज़ारकर पकाते और मुलायम बनाते है। इसे ‘कमाना’ कहते हैं जो एक कला है। हर रोज़ पान पलटते है। ख़राब या गलने वाले पान को छांट कर अलग करते हैं। बनारस के दो मुहल्ले नया पुराना पानदरीबा इसी काम के लिये जाने जाते हैं।
वैदिक एवं अध्यात्मिक महत्व
बनारस से मशहूर इस पान का वैदिक एवं अध्यात्मिक महत्व भी है। पान को संस्कृत में नागवल्लरी या ताम्बूल कहते हैं।कथा है कि वैद्यराज धन्वंतरि ने ‘एण्टी आक्सिडेन्ट‘ के तौर पर पान में कत्था सुपारी और चूना लगा कर इन्द्र को दिया था। इन्द्र तृप्त हुए, तभी से यह देवताओं का प्रिय हुआ।सभी पूजा विधानों में देवताओं को ताम्बूल अर्पित किया जाता है। वैदिक मंत्रों में-
पूगींफलं महादिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्।
एलालवंगसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्।।
मुखवासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि।
ऐसा कहकर भगवान को इलायची, लौंग व सुपारी के साथ पान समर्पित किया जाता है।
सबका फ़ार्मूला अलग
वापस लौटते हैं हीरू की पान कथा पर। हीरू के पान की ख़ासियत थी उनका कत्था। कत्था बनाने की उनकी ख़ास प्रक्रिया थी।पहले कत्थे को पानी में भिगोकर वे उसे दूध में उबालते थे। पकने के बाद उसे एक कपड़े में बांध किसी पत्थर के नीचे दबा कर रखते थे ताकि पानी के साथ उसका कसैलापन और गर्मी बाहर निकल जाए।इसके बाद कत्थे को पानी में घोंटते थे गुलाब के इत्र और पिपरमिंट के साथ। हीरू कत्थे में थोड़ा अफ़ीम का पानी भी मिलाते थे। तभी लोग उनके पान के आदती थे।दूर दूर से लोग पान खाने उनके यहॉं आते थे।बनारस में सुर्ती की जगह सादी पत्ती खाई जाती है। सादी पत्ती हर पान वाले की अपनी ख़ासियत होती है क्योंकि सबका फ़ार्मूला अलग होता है। इस प्रक्रिया में सादी तम्बाकू की पत्ती को कई बार पानी से धो उसमें बराश, इलायची, लौगं, पिपरमिंट और इत्र मिला उसे तब तक रगड़ते है जब तक वह मुलायम न हो जाय। चूने को भी हीरू एक ख़ास तरह से संस्कारित करते। वे ताज़ा चूना कभी इस्तेमाल में नहीं लाते थे। पहले चूने को पानी से बुझाते थे, फिर छने हुए चूने में दही का पानी मिला उसकी गर्मी निकाली जाती थी।
अंग्रेज़ी रसायन का पान
हीरू सरदार मेरे प्रिय थे। उनकी सोहबत में आनन्द की अनुभूति अद्भुत थी। मैं भी पढ़ाई लिखाई के बाद मन बहलाने के लिए उनसे मुख़ातिब होता। उन दिनो वे मेरे आनन्द के साधन थे। इस आनन्द में मेरी जेब भी ढीली होती थी। मसलन त्यौहारों पर मैं हीरू को अंग्रेज़ी रसायन का पान कराता था। हीरू को परेशान करने के लिए मुहल्ले के लड़कों की जो फ़ौज थी, उसके लिए पटाखे आदि ख़रीदता था। रात में दुकान बन्द कर हीरू अपनी गुमटी में ही सोते थे। एक रात हीरू के गुमटी के नीचे हज़ार लड़ी वाली चटाई बिछायी गयी। आधी रात के बाद चटाई छूटी। एक तो नींद में हीरू और फिर गुमटी के नीचे विस्फोट। हीरू गुमटी खोल हडबडाहट मे गुमटी से कूदने के चक्कर में नीचे गिर गए। धड़ाम धड़ाम जारी था। थोड़ी देर में हीरू भाँप गए। पान काटने वाली कैंची ले लड़कों को दौड़ाने लगे। आगे आगे लड़के, पीछे हीरू उसके पीछे मुहल्ले के कुत्ते। बड़ा दारूण दृश्य था। मैं घर के बाहर निकला हीरू को समझाया “जायदा यार हीरू, लड़का हउअन।” ग़ुस्से मे तमतमाते हीरू ने कहा “इनकी मॉं की… लड़का हउअन ई सारे। आज इनके ठीक करअब।” हीरू के घुटने छिल गए थे। मरहम पट्टी कर मैने किसी तरह समझा बुझा कर शान्त किया। रात ज़्यादा हो गयी थी आस पास के लोग जग गए। मेरी मां समझ गयी थी ये बदमाशी किसकी है। वो मुझे डांट रही थी। समझ तो पिता जी गए थे। पर अकसर वे ऐसे मामलों की अनदेखी करते थे।
क़ब्रिस्तान के सन्नाटे में
हीरू को एक दफ़ा मैंने रात में शराब पिलाई। शायद वह नागपंचमी का दिन था। हीरू बाग़ बाग़। कहने लगे “छोटू भईया जईसन मुहल्ला में कोई अदमी नाहीं हौअ। पैसा वाला बड़ा बड़ा अदमी देखली पर एतना बड़ा करेजा हौअ कोई अउर कअ। अंग्रेज़ी पिआवलन। “नशे में आकर हीरू गुमटी मे जाकर सो गए। मुहल्ले के लड़कों की फ़ौज तैयार थी। जब हीरू पूरी तरह नींद के आग़ोश में थे तो लड़कों ने गुमटी उठाई और चल पड़े। बग़ल का मुहल्ला मुसलमानों का था उसे मियानी टोला कहते थे। उसके बग़ल में एक बड़ा क़ब्रिस्तान था।क़ब्रिस्तान के सन्नाटे में गुमटी रख लड़के भागे।सुबह उठे तो हीरू ने अपने को गुमटी सहित क़ब्रिस्तान में पाया। हीरू गुमटी वही छोड़ सिर पर पॉंव रख कर भागे। हीरू डर से कॉप रहे थे।उनका कहना था कि क़ब्रिस्तान के भूत उन्हें पकड़ कर ले गए। वे रह रह कर सिर भूत सवार होने जैसा व्यवहार करने लगे। ओझा बुलाए गए। मामला बढ़ गया था। गुमटी वापस आई।कोई कुछ बोल नही रहा था। लड़के भी कई दिन मुहल्ले में दिखे नही ।हीरू ने उधर का रास्ता छोड़ दिया। जो पान खाने जाता उसे वे भूत के मनगढ़ंत क़िस्से सुनाते। फिर एक चेन से उन्होने गुमटी को अपने घर की खिड़की से बाँध दिया ताकी कोई भूत उसे दुबारा न ले जा सके। मैने भी कुछ ज़्यादा पूछताछ नही की ताकि किसी को शक न हो।
गालियों का सस्वर पाठ
हीरू का तकिया कलाम जोतो था। यानी ‘जो हौअ तो’। मज़ा लेते मुहल्ले के लोगों ने उनका नाम ही जोतो रख दिया था। मुहल्ले में ही एक कल्लू पहलवान थे। कोई साढ़े छ: फ़ीट के थे। डेढ़ सौ किलो वज़न था उनका। लम्बे चौड़े। औघडनाथ तकिया में पहलवानी करते थे। इसी तकिया में कबीर को ब्रम्हज्ञान मिला था। इस पर फिर कभी। कल्लू जोड़ी फेरने और नॉल उठाने में बनारस मे अव्वल थे। कल्लू पहलवान अकसर हीरू से मज़ा लेते।“ का जोतो कहां हईन तोहार मेहरारू मौसम बढ़िया हौ सोचत हई की उनके मानस मंदिर घुमा देई।“ बस जोतो दुकान के नीचे उतर आते। कल्लू पहलवान के पेट तक उनकी लम्बाई थी। फिर भी पान काटने वाली कैंची ले हीरू मॉं बहन की गालियों का सस्वर पाठ करते। और कल्लू को ललकारते हमरे मेहरारू के बारे में अब कुछ कहला त मार चक्कू मार चक्कू यहीं बिछा देब।कल्लू हँसते रहते। जोतो गालियाँ देते रहते। बाक़ी जनता मज़ा लेती। हम अपनी बाउंड्री के भीतर से ही यह तमाशा देखते।
उन्हें इस बात का कभी भान नहीं था
मेरे प्रति हीरू का भाव हमेशा अच्छा रहा। उन्हें इस बात का कभी भान नहीं था कि उनके खिलाफ होने वाली तमाम बदमाशियो के मूल में मैं होता था। जोतो मुझे चूतियापे के क़िस्से सुनाते, मैं चुपचाप सुन लेता था। कभी वे भारत पाकिस्तान की 71 वाली लड़ाई के क़िस्से होते कभी किंगकॉंग दारा सिंह की कुश्ती के। जोतो किगंकाग को तीनटांग समझते थे। वो यह सचमुच में समझते थे कि दारा सिंह को टक्कर देने वाला कोई साधारण मनुष्य नही तीनटांग वाला ही हो सकता है। वे तीनटांग के बारे में अचरज भरी झूठी कथाएँ मुझे सुनाते।
सांड की खोज
हीरू के पास अपनी ही क़द काठी की एक छोटी गाय भी थी। बकरी से थोड़ी बड़ी। हीरू उसकी बहुत सेवा करते पर मैंने उसे दूध देते कभी देखा नही। कहते हैं कि वो अपना दूध स्वयं पी लेती। एक बार ये गौमाता कामपीड़ा से तपती हुई रंभाने लगी। हीरू एक हाथ में गाय का पगहा पकड़ दूसरे में डंडा ले सांड की खोज में निकले। एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले जिधर जाते उन्हें बताया जाता कल तो सांड इधर ही था फ़लानी तरफ़ गया होगा। हीरू पूरे दिन ढूँढते रहे सांड नही मिला। शाम को पता चला सांड जी डीएवी कालेज के मैदान में हैं। गाय बेहाल थी। सांड की गंध पाते ही पगहा तुड़ा गाय दौड़ी। हीरू धराशायी। गाय सांड के साथ चली गयी। हीरू जब घुटने की मरहम पट्टी करा के लौटे तब तक गाय सांड जी के साथ ‘बहरी अलंग’ ( बनारसी ‘बहरी अलंग’ शहर के बाहर की सैर को कहते हैं ) निकल गयी थी। हीरू एक दो रोज़ तक गाय ढूँढते रहे पर उसका पता नहीं चला। हीरू हर आदमी को अपनी सुविधा से उसकी कहानी सुनाते। किसी को कहते सांड के साथ चली गयी किसी के कहते कसाई पकड़ ले गयल। किसी को कहते कॉजीहाऊस में पता करअ। पर फिर हीरू ने तय किया कि वे गाय नही पालेंगे।
क़द छोटा, व्यक्तित्व विशाल
हीरू का चरित्र रोचक था। क़द छोटा लेकिन व्यक्तित्व विशाल था। वे खुशियां बांटते थे। उनकी गुमटी टोले मोहल्ले में ठहाकों और बतकही का केंद्र हुआ करती थी। हीरू कितने भी मूर्ख हों पर मुहल्ले को गुलज़ार रखते थे। हीरू अब नही हैं। जब भी घर जाता हूँ उनकी खाली गुमटी दिखती है। उनके लड़कों ने कहीं और दुकान खोल ली है। यह तर्पण हीरू सरदार की याद को समर्पित है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सोशल मीडिया से साभार)