दुर्गावती को बचपन से ही तीरंदाजी, तलवारबाजी और घुड़सवारी का शौक था। वे बचपन में पिता के साथ जंगलों में शिकार करने जाया करती थीं। धीरे-धीरे दुर्गावती युद्ध कलाओं में निपुण हो गईं। 1542 में 18 साल की उम्र में उनकी शादी गोंडवाना के दलपत शाह से कर दी गई। कुछ साल बाद रानी ने एक बेटे को जन्म दिया। उसका नाम वीर नारायण रखा गया। बेटा पांच साल का हुआ ही था कि दलपत शाह का निधन हो गया। रानी ने अपने बेटे को गद्दी पर बैठाया और गोंडवाना की बागडोर अपने हाथों में ली। उन्होंने अपने राज्य की राजधानी को चौरागढ़ से सिंगौरगढ़ स्थानांतरित किया।
अपनी सेना में बड़े बदलाव किए और एक सुसज्जित सेना तैयार की। मंदिरों, धर्मशालाओं और तालाबों का निर्माण कराया। 1556 में मालवा के सुल्तान बाज बहादुर ने गोंडवाना पर हमला बोला। मगर रानी दुर्गावती के साहस के सामने वह बुरी तरह से पराजित हुआ। 1562 में अकबर ने मालवा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया और रीवा पर आसफ खान का कब्जा हो गया। मालवा और रीवा, दोनों की ही सीमाएं गोंडवाना को छूती थीं, इसलिए मुगलों ने गोंडवाना को भी अपने साम्राज्य में मिलाने की कोशिश की।
सन 1562 में आसफ खान ने गोंडवाना पर हमला किया, लेकिन इस हमले में रानी की जीत हुई। दो साल बाद 1564 में आसफ खान ने फिर हमला किया। रानी अपने हाथी पर सवार होकर युद्ध के लिए निकलीं। उनका बेटा वीर नारायण भी उनके साथ था। युद्ध में रानी के शरीर में कई तीर लगे और वो गंभीर रूप से घायल हो गईं। उन्हें लगा कि अब जिंदा रहना मुश्किल है। उन्होंने अपने सैनिक से कहा, वह उन्हें मार दे। मगर उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब वीरांगना ने अपनी कटार से प्राणोत्सर्ग किया। विश्व में ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं है। वीरांगना ने आत्मोत्सर्ग के पूर्व अपने सेनापति अधार सिंह से कहा था- मृत्यु तो सभी को आती है अधार सिंह, परंतु इतिहास उन्हें ही याद रखता है जो स्वाभिमान के साथ जिये और मरे।
रानी दुर्गावती ने 16 वर्ष तक शासन किया और इसी काल को गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। गोंडवाना साम्राज्य राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में सुव्यवस्थित रूप से पल्लवित और पुष्पित होता हुआ अपने चरमोत्कर्ष तक पहुंचा। वर्तमान में प्रचलित जीएसटी जैसी कर प्रणाली रानी दुर्गावती के शासनकाल में लागू की गई थी। तत्कालीन भारत वर्ष में गोंडवाना ही एकमात्र राज्य था जहां की जनता अपना लगान स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में चुकाती थी। अद्भुत एवं अद्वितीय जल प्रबंधन था। 52 तालाब और 40 बावलियों का रखरखाव था। इस साम्राज्य का गढ़ा उन दिनों उत्तर–मध्य भारत का हिन्दुओं का धार्मिक केंद्र बिंदु था। गढ़ा में कोई भी हिन्दू अपनी इच्छानुसार धार्मिक अनुष्ठान कर सकता था, इसलिए इस स्थान को लघु काशी कहा जाता था।(एएमएपी)