जयंती रंगनाथन । 
कल शाम ढले घर के पास एक मेडिकल शॉप में कुछ दवाइयां लेने जा रही थी, पीछे से आवाज आई, आंटी… मैंने ध्यान ही नहीं दिया। अचानक मैंने पाया, मेरे पास एक दुबली-पतली सी लड़की आ खड़ी हुई है। उसने धीरे से कहा, आंटी अगर आप मेडिकल स्टोर में जा रही हैं, तो मेरा एक काम कर देंगी प्लीज। उसने अपने हाथ से तुड़ा-मुड़ा सौ का नोट मेरे हाथ में पकड़ा दिया, मेरे लिए ले आएंगी? 
दो सेकंड लगा समझने में। मेरी पहली प्रतिक्रिया हुई, तुम क्यों नहीं जा रही? मुझे कैसे पता तुम्हें क्या चाहिए?
वो सकुचा कर बोली, वो क्या है ना, मुझे वो खरीदने में शर्म आती है। वो मेडिकल शॉप में जो लड़का है ना, वो ना, जब मैं वो देने को बोलती हूं तो मेरी तरफ देख कर अजीब तरह से हंसता है।

कल्पना से बाहर

मैं रुक गई। उससे बात करने लगी। वो यहां की तो नहीं हो सकती। एनसीआर की लड़कियों को सेनिटरी पैड खरीदने में संकोच होगा, ये मेरी कल्पना से बाहर है। मेरा गेस सही था। वो आजमगढ़ से नई-नई आई थी। नौकरी करने। उसका संकोच देख कर मुझे अपने दिन याद आए। सालों पहले भिलाई में मेडिकल स्टोर से पैड खरीदते समय देख लेती थी कि मेडिकल शॉप में कोई आदमी तो नहीं। और वो कॉली पॉलिथिन में लिपटा पैड जितनी जल्दी हो सके किसी दूसरे बैग में छिपा दिया जाता। बहुत समय लगा, दुकान में जा कर हक से अपनी चीज लेने का। वो लड़की जो कह रही थी, मैं भी अनुभव कर चुकी हूं। अगर दुकान में कोई छिछोरा सा सैल्समैन बैठा हो, तो कोई भोली सी किशोरी सैनिटरी पैड कहते ही उसकी आंखें चमकने लगती हैं। यह बात एक सेक्सोलॉजिस्ट ने भी मुझसे कही थी कि कुछ मर्द सेक्सुअल प्लेजर पाने के लिए सेनिटरी पैड सूंघते हैं।

आजादी का बिगुल

आधी दुनिया की आबादी की जिंदगी का दो तिहाई हिस्सा इन्हीं पैड्स से हो कर गुजरता है। पैड्स हमारी आजादी का बिगुल है, ब्रा और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स की तरह। हम सब जानते हैं कि कुछ साल पहले तक उन तीन दिनों में लड़कियां पैड्स की जगह बेहद अमानवीय चीजों का इस्तेमाल करती थी। केले के पत्ते, कुछ इलाकों में नारियल की छाल, पुराने गंदे कपड़े, बोरियां, रुई, प्लास्टिक की पन्नियां और भी ना जाने क्या-क्या। मुझे याद है, मैं जब किशोरी थी, पैड्स महंगे आते थे। कोशिश होती थी कि एक पूरा पैड एक दिन चल जाए।

कुछ सालों में हुई क्रांति

These college girls distribute free sanitary napkins to poor women to create awareness

कुछ सालों से इस क्षेत्र में क्रांति सी हुई है। कई महिलाएं हैं जो गांव और कस्बों में महिलाओं और खासकर स्कूली लड़कियों को जागरूक कर रही हैं। सस्ते दामों में पैड उपलब्ध करवा रही हैं। पैड मैन मुरुगनाथम अरुणाचलम के बारे में तो हम सब जानते हैं जिन्होंने अपनी बीवी की वजह से सस्ते पैड बनाने शुरू किए। कुछ महिलाओं के बारे में मैंने पढ़ा है उनमें केरल की अनुजा बिष्ट हैं, जिन्हें हाल ही में नीति आयोग ने सम्मानित किया है। माया विश्वकर्मा सुकर्मा फाउंडेशन के जरिए मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर में सस्ते पैड बनाने की फैक्ट्री चलाती हैं।
इलाहाबाद की वंदना सिंह ने किसी अपने को पीरिएड में हुए इन्फेक्शन में खो दिया। इसके बाद उन्होंने तय किया कि वो लड़कियों को पीरिएड में साफ-सफाई और पैड के इस्तेमाल के प्रति जागरूक करेंगी।

जिन्हें वाकई सुधरना है…

PadSquad' Distributes Free Sanitary Napkins To Economically Weak Women

ये कारवां बढ़ रहा है। पर अभी भी काली पॉलिथिन लड़कियों को डराती है। मैंने कल उस लड़की से कहा कि मेरे साथ चलो और उस लड़के की आंखों में आंखें डाल कर पैड्स मांगो। अगर वो हंसे तो उसकी ऐसी बेइज्जती करो के आगे से वो पैड के नाम पर हंसना छोड़ दे। लड़कियां तो सुधर ही जाएंगी, जिन्हें वाकई सुधरना है, उन्हें ठीक करने का बीड़ा भी हमें ही उठाना होगा।
(साभार। लेखिका ‘हिंदुस्तान’ नई दिल्ली में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं)