सत्यदेव त्रिपाठी ।
बमुश्क़िल 15-20 दिनों का जन्मा रहा होगा। चेहरा मासूमियत-भोलेपन की सहज मिसाल, जिसमें और इजाफा किये दे रहा था उसका भूसर सफेद (ऑफ व्हाइट) रंग… जो आगे चलकर नहलाने के बाद उजले जैसा चमकने लगता था।
सबसे अधिक ध्यान खींचते थे लप्चे-लटकते व गरदन मुड़ने की अनुहारि पर लचकते कान। आँखों में चहुँओर को देख लेने की सुस्त जिज्ञासा, किंतु चेहरे पर परम निश्चिंतता के भाव। तब आँखों के नीचे नाक तक का भाग अपेक्षाकृत लम्बोतरा लगता था, जो उसके बड़े होने के साथ ही मोटाते हुए समरूप होता गया। अपेक्षाकृत मोटी पूँछ बढ़ने के साथ सानुपातिक रूप से मोटी ही बनी रही, पर शृंगार थी उसके रूप का।
पड़ जाये नज़र तो जल्दी न हटे
कुल मिलाकर इतना सुडौल व दर्शनीय था बन्दा कि बरबस पड़ जाये नज़र, तो पूरा देख लेने पर भी जल्दी न हटे– ‘तिन्ह देखे अली सतभायउँ ते, तुलसी तिन ते मन फेरि न पाये’। उस नन्हीं-सी हस्ती का सम्पूर्ण प्रभाव भी बहुत मोहक यूँ था कि जगह के अनजानेपन या नये लोगों के प्रति अपरिचय-भाव के निशां तक नहीं थे। तब तो ख़ैर छोटा था, ऐसी बातों का उसे पता ही न रहा, पर बड़े होने पर सिद्ध हुआ कि यही उसका स्वभाव था। उसे ऐसे कुछ की पड़ी ही नहीं थी। कभी भी कहीं भी ले जाओ, सहज ही चला जाता- रह लेता। छोटे-छोटे सुघर तराशे-से पैर इतने कोमल लगे थे (बाद में खूब भारी व मजबूत हुए) कि कैसे चलेंगे की चिंता के साथ ‘इन्हें जमीन पर मत उतारना, मैले हो जायेंगे’ की याद आ गयी थी। शुक्र ये था कि संक्रमण से बचाने के लिए उसे महीने भर एक कमरे में बन्द रखना था– आज के कोरोना वाली यही सामाजिक असंपृक्ति (सोशल डिस्टैसिंग)।
सो, उसे रसोईंघर की बगल में स्थित कक्ष में रखा गया। इस कूकर जैसी जाति के लिए पहली बार ऐसा करते हुए उस वक़्त अजूबा भी लगा था, पर इस महीने भर के अनुभव ने इसकी अहमियत को समझा दिया था। फिर कुछ सालों बाद आये गबरू के लिए ऐसी साज-सँभार अनिवार्य लगी– मेरी एक और जड़ता टूटी। आगे चलकर लक्ष्य किया गया कि उसी कमरे में बीजो सर्वाधिक रहना चाहता था– वहीं असली सुक़ून मिलता था उसे। लेकिन अभी दो साल पहले कल्पनाजी आगे स्थित अपनी बा (माँ) के घर से भगवान का मन्दिर इस घर में ले आयीं। अब विधान के हिसाब से पूरब-उत्तर के कोने वाले इसी कक्ष को मन्दिर होना था। ऐसे विधानों की व्यर्थता पर हम तीनो की आम सहमति है। हम पर किसी का दबाव भी नहीं है, फिर भी मन्दिर वहीं आया। इसकी पुरज़ोर याद भी बचपन के मेरे पुरोहित दिमाग ने ही दिला दी और फिर तो कल्पनाजी को करना ही करना था। इसके बाद बीजो हमारे रसोईंघर में तो पसरकर सोता रहा, पर अपने उस मूल स्थान पर जाना वर्जित हो गया। इन दो सालों के हर दिन अपने इतने प्यारे बच्चे का इस विधान के तहत उस कक्ष के लिए ‘श्वान हो जाना’ मन को मंजूर न होता, लेकिन मन्दिर-प्रवेश कराना भी न हो पाता। अब उसके चले जाने पर अपने इस दोराहे की कसक और भी साल रही है, जो कदाचित् किसी अगले बीजो के प्रवेश का कारण बने– एक और जड़ता टूटे। इंशाअल्लाह!
अब नामकरण की बारी थी। अकुल का सोचा-समझा नाम आया –Bijou, जिसे हिन्दी में ठीक-ठीक लिखना हो, तो ‘बिजौ’ या ‘बिजोउ’ होगा। उसी ने बताया- यह फ्रेंच शब्द है, जिसका अर्थ होता है- ज्वेल (जेवेल – Jewel)। आज तो सोने-चाँदी या गहनों की हर दूसरी दुकान ‘ज्वेलरी शॉप’ ही होती है- याने यह शब्द आभूषण के अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। लेकिन ठीक-ठीक कहना हो, तो शायद अभिप्रेत है – ‘रत्न’ या ‘रत्नजड़ित आभूषण’। तात्पर्य बेशकीमत से है। इस भाव के लिए बोलचाल में ज्यादा प्रचलित शब्द है हीरा –‘बड़ा हीरा आदमी है हीरामन’ (तीसरी कसम)। लेकिन ऐसा अर्थगर्भित नाम ‘बिजौ’ या ‘बिजोउ’ कदाचित उच्चरित तो हो सकता है, लेकिन इससे बुलाना तो बिल्कुल असहज है -पुकारा जाना तो असम्भव। फिर हम घर वाले तो किसी तरह कमोबेस साध भी सके- अर्ध शुद्ध ही सही, हमेशा ‘बीजो’ बोलते रहे, लेकिन सरनाम तो हुआ ‘बीजू’ ही, जिसमें अंग्रेजी का कोई चिह्न तक नहीं– नितांत लोक शब्द। यहाँ तक भी ठीक था, लेकिन बीजू और कलमी तो पौधों –खासकर आम- के जातीय प्रकार होते हैं, तो ‘नाम’ यह कैसे हो सकता है! अत: जौनपुर की ठेंठ गँवईं सेविका- निर्मला व गोरखपुर की उषा ने बीजू को हमारे गाँवों में मशहूर ‘नाम’ बना दिया- ‘बिरजू’, जो शुद्ध ‘ब्रजराज’ के ‘बृजराज’ का अपभ्रंश है। हाईस्कूल में गणित के हमारे सरनाम व सरहँग (डॉमिनेटिंग) अध्यापक ब्रजराज राय ‘बिरजू माट्साहब’ ही कहलाये। और बीजू दो-तीन दिनों जब गाँव में रहा, तो अधिकांश ने लाड़ से ‘बिजुआ’-‘बिरजुआ’ कहा। बहरहाल, फ्रांस से सम्मौपुर (आज़मगढ) तक की यह नाम-यात्रा मेरे लिए ‘एहि कर’ नाम अनेक अनूपा’ के वाचक रूप में बड़ी रोचक बन पड़ी है, जिसमें ‘कहहिं सबै अपने बल बूता’ का सहज गुर भी शामिल है। लेकिन फ्रेंच Bijou का यह ह्स्र देखकर अगली बार पाश्चात्य आधुनिकता व अभिजात का मोह टूटा और बेटे ने भारतीय लोक के मुताबिक विशुद्ध देसी नाम गबरू ही चुना– शब्द-संस्कृति की सही दिशा रवां हुई।