सत्यदेव त्रिपाठी ।
वे दिन सचमुच बड़े सुहाने थे। जैसे बुवाई के बाद हम हर सुबह खेत की मेंड़—मेंड़ चारों तरफ परिक्रमा करते हुए भर खेत आँख फाड़-फाड़ के निहारते, फिर आके भर गाँव चर्चा करते कि कैसे -कैसे, कितने-कितने बीज जम रहे हैं… इसी तरह बढ़ने-विकसने की चर्चा होती। उसी प्रकार युनिवर्सिटी से आते ही सबसे पहले बीजो-कक्ष में जाते और दिन भर की उसकी एक-एक गतिविधि की चर्चा करते… रात-रात को जब उठते, जाके देख-निहार आते। उसकी तमाम मुद्राओं-गतियों-अदाओं के फोटो लेते रहते।
वो बात कि पूत के पाँव पालने में ही दिखते हैं, को साकार करते हुए बीजो की दो आदतें उसकी अबोधावथा से ही नुमायां होने लगीं- खाने के प्रति ख़ास लगाव व बात मानने की भलमंसाहत। जो भी दो, खा लेता – वैसे देते वही, जो डॉक्टर कहते। लेकिन उसे भान नहीं होता कि कितना खाना है- उल्टियां कर देने तक खाता रहता। आगे चलकर तो भर पेट अपना खा जाने के बाद भी यदि साथी पालतू बच्ची (बिल्ली) या चीकू (श्वान) छोड़ देते, तो जाके खा जाता- भले अपच्च हो जाये। और जो कुछ करने के लिए कहो, अपनी समझ के मुताबिक ठीक-ठीक वैसा मानने-करने की कोशिश करता। हाँ, बचपने में कभी ऐसा भी होता, जब अपने खिलन्दड़ेपन में उसे कहो कुछ, तो करता कुछ। परन्तु उसकी रूपाकृति के सलोनेपन में उसकी ये बचकानी शरारतें (चाइल्डिश मिस्चीव्स) भी रमणीय बन जातीं।
संतत्त्व की निशानियां
एक बार सुबह घूमते हुए कुछ लंतरानी की। छोटा था, तो डाँटा नहीं, पर बतौर नसीहत दरवाज़े के बाहर छोड़ के दरवाज़ा बन्द कर लिया। सोचा था– अभी चिल्ला के दरवाजा पीटेगा… पर वह चुप। दस मिनट बाद देखने निकला, तो गायब। होश उड़ गये। जिधर से घुमा के लाया था, उधर ही भागा, तो अपने घर के पीछे वाले छठें रोड पर जमनाबाई स्कूल के पार्श्व में बीच रोड पर घर की तरह मस्ती से बैठा था। सर पीट लिया! वो अलस्सुबह की बेला थी, कोई गाड़ी-मोटर संयोग से आया नहीं– आता भी, तो चालक को ही उतर के हटाना पड़ता। बुलाया, तो पीछे-पीछे चला आया– जैसे कुछ हुआ ही न हो। ऐसे में कभी शंका भी होती, पगलेट तो नहीं है! लेकिन ऊपर की भलमंसाहत के साथ इस बेफिक्री को मिला दिया जाये, तो ये सब उसके भावी संतत्त्व की निशानियां थीं। सच में संज्ञान होने के पहले का 3-4 महीने का समय इतना लुभावना बीता कि आज भी उसकी अनुभूति से तन-मन पुलकित हो उठता है। यूँ तो बुलबुल-गौरैये-तोते, गाय-बैल-भैंसें, कुत्ते-बिल्ली-चूहे… आदि दर्जनाधिक प्राणी हमारे जीवन में आये– सबने बहुत सुख-दुख दिये, लेकिन इनके दो शीर्ष हैं– बीजो और बच्ची। बच्ची भी रोज़ मथती है, कभी तो अक्षरों में उतरे बिना मानेगी नहीं।
जीवन में तब तक आधे दर्जन से अधिक श्वान पाल चुकने के बाद पहली बार बीजो का प्रशिक्षण हुआ। खरीदने की तरह यह भी मेरे मानस में पैठे संस्कारों के अनुरूप न था, पर शहरी चलन और बीजो के अभिजात नस्ल के मुताबिक कराना तो था ही, लेकिन एक दिन बीजो ने ऐसा कुछ कर दिया कि कराने का फैसला पक्का हो गया। अच्छी तरह चलने-दौडने लगा था, तब से ही मैं अपने रोज़ाना के प्रभात-भ्रमण में कभी-कभार उसे जुहू तट पर लिये जाता। पट्टा बिना लगाये टहलाना ग़ैरकानूनी है, पर मेरी समझ में यह समाता नहीं। शायद यह चेतना (सेंसिबिलिटी) गाँव से बनी है, जहाँ ये लोग छुट्टे-छुट्टे हमारे पीछे-पीछे सारे खेत-सिवान घूम आते हैं– हल्कू के झबरा (पूस की रात- प्रेमचन्द) की तरह मना करने के बावजूद। सायकल के पीछे-पीछे रिश्तेदारियों तक चले जाते और हमारे साथ खा-पीकर लौटते। कल्लू ऐसा ही करता था। मुम्बई में भी एक टीनू आया था, जो एक बार खचाखच भीड, बड़े चौराहों-सिग्नलों के होते हुए मेरे स्कूटर के पीछे-पीछे दिनेश ठाकुर के घर (लोखण्डवाला) तक दौड़ता चला गया था। खुले दरवाज़े के बाहर बैठा रहा। प्रीताजी ने ब्रेड-बटर, बिस्किट दिये। घण्टों बाद हम लौटे।
कबहूँ निकट, कबहुँ दुरि जाई
मुम्बई में पट्टे के बिना कुत्तों को लेके बाहर निकलने पर जुर्माना और सज़ा आम बात है, उसी में यह गैरकानूनी काम मैं सरेआम आज तक करता आ रहा हूँ- पूरे विश्वास के साथ –‘पाप हो या पुण्य हो, कुछ भी नहीं मैंने किया है आज तक आधे हृदय से’। सो, अपने इन्हीं सब अनुभवों व धारणाओं से परिचालित उस नन्हें से लगभग आज्ञाकारी बच्चे बीजो को भी छुट्टा लेकर चलता रहा। लेकिन उस सुबह रविवार के नाते मुझे निकलने में थोड़ी देर हो गयी थी, धूप निकल आयी थी। सो, उसे पानी के किनारे-किनारे चलाने ले गया। इतने में उसे न जाने क्या हुआ– शायद लैब्रे जाति का पानी-प्रेमी वाला मूल स्वभाव किलका और वह अचानक पानी में घुस गया, तो फिर मेरे वश में नहीं आया। बुलाने पर सुने तक नहीं, मानने को कौन कहे? मैं पास पहुँचने को होऊँ कि उछलते हुए भाग खड़ा हो। मैं दूर रहूँ, तो पानी में मुँह गड़ाके कुछ-कुछ निकाले-खाये। मुझे पास पहुँचता देख भाग खड़ा होता– गोया श्वान वेश में मायावी मारीच हो– ‘कबहूँ निकट, कबहुँ दुरि जाई’। अंत में ऊबके मैं बैठ गया, लेकिन गुस्सा बहुत आया। तय कर लिया कि जब भी थकेगा, पकड़ में आयेगा, तो मारूँगा ख़ूब। लगभग घण्टे भर उसकी भरपेट मस्ती व खवाई चलती रही…लेकिन था तो बच्चा ही। पानी से निकलके झूमते हुए 10-20 क़दम चला और बैठ गया, फिर लेट गया।
मैं वहाँ पहुँचूँ, तब तक सो गया। जगाये न जागे। बुत पड़ा रहे। नींद या बेहोशी, का पता न चले। कहाँ तो पीटने की सोचा था, अब यह हाल देखके घबरा उठा- कुछ जहरीला न चला गया हो पेट में! हारके उसे कन्धे पे लिया, मुँहाने तक ढोके लाया। एक ऑटो वाले को बड़ी चिरौरी-मिनता से राजी किया और घर पहुँचा। पीछे के खुले परिसर में लिटा दिया। पेट फूल आया था। किंकर्त्तव्यविमूढ इंतज़ार करने लगा…। मेरी मनमानियों पर कल्पनाजी भड़कीं थोड़ा, लेकिन फिर हम दोनों ने एकमत से फैसला किया कि अभी न बेटे को सूचित करेंगे, न किसी डॉक्टर-वाक्टर को बुलायेंगे। मैं उसी के पास बैठा चाय पीता व अख़बार पढता रहा। आख़िर घण्टे-डेढ़ घण्टे बाद लेटे ही लेटे उझका और उल्टी कर दी– दो मेढकियां निकलीं और थोड़ा पानी। हमारी जान में जान आयी। फिर तो शाम तक थोड़े-थोड़े अंतराल पर वैसी ही उल्टियां कीं, जाने कितने जीव-जंतु गिरते रहे- पानी-बालू बहता रहा। सोनू था उन दिनों। साबुन-पानी से फर्श धोता रहा। दूसरे दिन जाके अपने सम पर आया। उसकी इसी दस्तावेज़ी अपवाली ने प्रशिक्षण-योजना पर मुहर लगा दी थी।