सत्यदेव त्रिपाठी
हट्टंगड़ी सर ने प्रशिक्षण में अच्छे कामों पर सराहना के लिए गले पे सहलाने और ‘गुड ब्वाय’ कहने का गुर बताया। इसका जम के पालन हुआ, सुफल भी खूब मिला। बस मैंने वो ‘गुड ब्वाय’ को ‘अच्छा बच्चा’ कर दिया, तो गुजराती घर में ‘सरस दीकरो’ भी हुआ। इस तरह बीजो बेचारे को अंग्रेजी के साथ मेरी हिन्दी और सामान्य रूप से घर की गुजराती भी सीखनी पड़ी।
गलती करने पर ज़ोर से ‘नो’ कहना तथा तमाचे मारने की चेतावनी देना, पर मारना नहीं, की सीख को भी बदस्तूर जारी रखा– सिर्फ ‘नो’ को ‘नहींईंईं’ करके। लेकिन खेद है कि लुका-छिपी वाला चमत्कारी पाठ (लेसन) हमारे किसी काम का न हुआ। रोज़ कुछ खोजवाने का काम था नहीं और कोई घर आये, तो अपने बच्चे से शो करायें, के प्रदर्शन में हमारी रुचि नहीं। अत: उस नस्ल का जातीय कौशल तो हम अनाड़ियों के बीच लुप्त ही हो गया।
अपनी पुरानी अदा हमें भाती
इसी रौ में घुमाने के दौरान अपने ठीक बाईं तरफ रहते हुए कदम से कदम मिलाकर चलना भी सिखाया था, जो अनुशासन व लोकव्यवहार की दृष्टि से बहुत सही था। लेकिन वह करना और रोज़-रोज़ करना… बड़ा मशीनी (मैकेनिकल) लगा। इसमें मुझे और बीज़ो दोनों को यांत्रिक हो जाना पड़ता था। हमारे लिए यह भ्रमण सिर्फ़ व्यायाम नहीं, मस्ती भी है, सामाजिकता भी है और एक प्रभाती संस्कृति भी। इसमें अपनी पुरानी अदा हमें भाती, जिसमें हम दोनों अपनी-अपनी तरह अपने-अपने कदम से चलें- साथ-साथ रहें, आसपास रहें– न कि उतने पास-पास, कि घूमना भी काम करना (ड्यूटी) हो जाये। अत: इस ‘गुनमय फल जासू’ को ‘निरस बिसद’ के कारण छोड़ना ही पड़ा।
सीखने के बाद बीजो के घर-बाहर दोनों के व्यवहार में बड़ा गुणात्मक परिवर्तन हुआ। काश, हमारी भी शिक्षा में ऐसा होता कि पढ़के निकलते, तो बच्चे संस्कारित हो जाते! बीजो प्राय: आज्ञाकारी तो था ही, अधिक अनुशासित हो गया। सबसे अधिक यह कि जागरूक हो गया– जैसे सर ने उसके दिल-दिमाग के बन्द दरवाज़े खोल दिये हों। कुछ दिनों बाद की ही एक घटना अपनी विरलता में दिलचस्प भी है और सनसनीखेज़ भी।
हम घूमने निकलते, तो अँधेरा ही रहता। सड़क की बत्तियां जलती रहतीं। जुहू स्कीम के पाँचवे रोड से सीधे सेण्टॉर होटेल वाले बीच पर जाते हुए दसवें रोड से थोड़ा आगे, अमिताभ बच्चन के ‘जलसा’ से थोड़ा पहले पहुँचे थे। बत्तियां अभी बन्द हुई ही थीं कि सामने से आती एक सफेद मारुति वैन हमारे पास आके रुकी। बीजो सजग हो गया– लगा कि सयाना हो गया है। आगे बैठे आदमी ने रास्ता पूछा। मैं इत्मीनान से बता के चुका ही था कि पीछे का खिसकाऊ (स्लाइडिंग) दरवाज़ा खुला और मेरे दाहिने खड़े बीजो ने झट से अन्दर छलांग लगा दी। दो पैर अन्दर पहुँचे कि मैंने दाहिने हाथ से उसे पीठ-पेट से अँकवार में थाम लिया। अन्दर रिवाल्ववरधारी दिखा और हथियारों का ज़खीरा। पर कोई हरकत न हुई, मैं बीजो को लिये पीछे हटा और वैन आगे बढ़ गयी। आधे मिनट में इतना सब झटित हुआ कि कुछ समझ में न आया। हम दोनों हैरतंगेज़ आक्रोश से वैन को जाते देख रहे थे और मेरे बताये की तरफ बायें मुड़ने के बाद कुछ राहत मिली। बीजो की साँसें तेज थीं– हल्का हाँफ रहा था। उसकी प्रत्युत्पन्न मति और साहस से चकित-हर्षित मैं उसे सहलाते हुए शांत करने के मिस अपने को भी आश्वस्त कर रहा था। तब से कई दिनों जब वहाँ पहुँचते, रोम भरभरा उठते थे। उस दिन से बीजो के प्रति विश्वास काफी बढ़ गया।
मुझसे पहले दौड़ के वहाँ पहुँच जाता
भ्रमण अनुशासित यूँ हुआ कि साढ़े पाँच से पौने छह के बीच हम निकल जाते और 7 बजे तक घर वापस। सप्ताह में एक रोज़ बीजो को समुद्र में नहलाना– प्राय: रविवार को और रोज़ आते-जाते 10,000 कदम चलना। बीच में मेरी पसन्द की एक विशिष्ट जगह पर 10-15 मिनट बैठना। मेरी तो यह जगह पुरानी है, लेकिन अब बीजो भी इसका ऐसा रसिया हो गया कि लौटते हुए मुझसे पहले दौड़ के वहाँ पहुँच जाता। विभिन्न जंगली पौधों-लताओं से घिरा ‘पेड़ों का झुरमुट, ‘सुबह’का झुटपुट, चहक उठीं चिड़िया, टी-वी-टी टुट-टुट’वाला वह माहौल अब उजड़-सा गया है। तब पीछे के सिरे पर तो छाँव ऐसी सघन थी कि बारिश में एकाध लहदर आता, तो हम भींगने से बच जाते।
वहाँ बैठे हुए यह ज्यादा होता कि आते-जाते दो-एक लोग रोज़ ही आज्ञा माँगकर बीजो की फोटो लेते– बच्चे छूने की कोशिश करते। चलते हुए भी रोक कर ऐसा करने वाले मिलते। समुद्र में नहलाते हुए यह संख्या अधिक हो जाती। कुछेक व्यावहारिक लोग मुझे भी बीजो के साथ खड़े कर लेते। लेकिन जब कभी शाम को मैं घर होता और विख्यात जेवीपीडी इलाके की अपनी हाटकेश सोसाइटी में जॉगर्स पार्क के किनारे से जमनाबाई स्कूल से होते हुए पुष्पानरसी पार्क तक घुमाने निकलता, तो प्राय: सभी भवनों-पार्कों-स्कूल के दरबानों-चालकों और आती-जाती काम करने वालियों आदि… बीजो को सहलाने-लाड़ करने, हालचाल पूछने वाले ढेरों होते। सोसाइटी के झाडू वाले दादा को तो देखते ही बीजो ख़ुद दौड़ पड़ता। कुछ लोग तो जेबों-आँचलों में सुदामा के चावल की तरह बिस्किट-नमकीन लाते और वर्षा बिल्डिंग वाले भाई तो अपने कुत्ते के खाने वाला फूड ही लाते। जहाँ मुझे पूछने वाला कोई नहीं– पार्क के दरबान को कार्ड दिखाके अन्दर जाना पड़ता है, वहाँ बीजो की इस लोकप्रियता के लिए मैंने गालिब से क्षमायाचना सहित उनके शेर को फिर यूँ बदला –‘ऐसा भी है कोई कि जो बीजो को न माने, बच्चा तो है सुन्दर और सरनाम बहुत है’।
हाथी चला जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं
अब तक जितने श्वान पालतुओं को मैं लेके घूमा, चहुँ ओर के सड़क के ‘जाति देखि गुर्राऊ’ कुत्तों से उनकी तकरार अवश्य हुई। जुहू के तो हर प्रवेश पर जहाँ खाने-पीने की दुकानें लगी हैं, कुत्तों के झुण्ड बैठे रहते हैं। वे हर नये आने वाले से उलझते जरूर हैं– बिना पट्टे के नाते मेरे वालों से ज्यादा। हमारे पालतू लड़ते– भगाते या भागते। अवसरानुकूल उन्हें बचाना भी पड़ता। मैंने बहुत पहले दो-ढाई फिट का एक सुता हुआ सोंटा बनवाया… वही गिरिधरजी वाला- ‘झपटि कुत्ता कहँ मारै, दुस्मन दावागीर तिनहुँ कै मस्तक झारै’। आज भी है वह और इनको घुमाते हुए मेरे पास रहता ही है। लेकिन बीजो की ओर कुत्ते भौंकते हुए आते, पर वह अपनी राह चलता रहता- ‘हाथी चला जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं’। और यह चमत्कार ही है कि कभी किसी ने बीजो को छूआ नहीं। दो-चार बार ऐसा होते देख मैं भी निश्चिंत हो गया।
संत न छोड़े संतई, कोटिक मिलें असंत
पूरे जीवन में सिर्फ़ एक बार कुत्तों ने उसे छूआ था। उत्पल संघवी स्कूल और अमिताभ बच्चन के ‘सोपान’ वाले पुराने बँगले के बीच के 11वें रास्ते पर वह जगह बड़ी सुहानी है, जहाँ से होके मैं बार-बार पैदल गुजरना चाहता हूँ। वहीं तीन कुत्ते उसकी तरफ दौड़े थे और एक ने पीछे से ज्यों ही छुआ, बीजो बिजली की गति से पलटा, धर दबोचा। दबोचे हुए ही शेष दोनों की तरफ देख के गरजा और दोनों भाग चले। फिर पोंपों करते पहले वाले को भी छोड़ दिया और ‘संत न छोड़े संतई, कोटिक मिलें असंत’ का प्रमाण बनकर ‘हृदयँ न हरष-विषाद कछु’ की तरह बीजो यों चलने लगा, गोया कुछ हुआ ही न हो। मैं स्तम्भित! ख़ुद न देखता, तो विश्वास न करता कि बीजो ने ऐसा किया। घर जाके बताया,तो वो हाल हुआ कि कोई और बताता, तो झूठा कहा जाता।