सत्यदेव त्रिपाठी ।
योग्य प्रशिक्षक की तलाश पूरी कर दी मेर मित्र स्व. डॉ. राम सागर पाण्डेय ने। महाराष्ट्र कॉलेज के उनके सहकर्मी, गणित-अध्यापक प्रो. दिनेश हट्ट्ंगड़ी कुत्तों के कुशल प्रशिक्षक (ट्रेनर) थे। पाण्डेयजी के कहने से सप्ताह में तीन दिनों सुबह 7 से 8 बजे तक बीजो को सिखाने आने के लिए सहर्ष तैयार हो गये।
हम घर के पीछे जमनाबाई स्कूल के पश्चिमी द्वार के सामने वाली खुली जगह पर चले जाते – वहीं हमने कार चलाना भी सीखा है। नयी पीढ़ी (वह भी मीडिया वाली) की सुबह अमूमन देर से होती है और कल्पनाजी बाहर निकलने में परम आलसी ठहरीं। सो, दोनों एक-दो दिन ही आये। लेकिन मुझे तो बीजो को सीखते देखने का मज़ा लेना था। फिर सर का सिखाना तो लाजवाब। वे ख़ुद कुत्ता पालते भी थे और कुत्तों की कौशल-स्पर्धा (टैलेण्ट कॉण्टेस्ट) के लिए तैयार करते थे, लेके जाते थे। इतना बड़ा श्वान-प्रेमी मैंने जिन्दगी में फिर नहीं देखा। बीजो में रमते थे। उसे सहलाते हुए बतियाते-बतियाते कान के पास यूँ बुदबुदाने लगते गोया कोई मंत्र सिखा रहे हों।
पट्टे व ज़ंजीर की ज़रूरत खत्म
कभी यह किसी बड़े षडयंत्र की कानाफूसी लगती, कभी प्रेमी-प्रेमिका की गुह्य गुफ़्तगू… लेकिन इस सबका नतीजा यह हुआ कि बीजो उनके ताल पर नाचने लगा– ‘अनुहरि ताल गतिहि नट नाचा’। सैल्यूट-बॉय-बॉय… आदि तो प्राथमिक व प्रदर्शन-परक थे, लेकिन काम के थे- ‘सिट’ कहते ही पिछले दो पाँवों पर अधबैठे हो जाना। ‘डाउन’कहते ही चारों पैरों से बैठ जाना। ‘कम’ पर आ जाना, ‘गो’ पर चले जाना। ‘वेट’ पर जहाँ रहे, वहीं रुक कर बाट देखते रहना और ‘स्टे’ पर जिस मुद्रा में रहे, अगले आदेश तक उसी में रह जाना… आदि। इन उपयोगी सीखों से सम्पन्न हुए बीजो के लिए ‘दण्ड जतिन कर’ के रामराज्य की तरह पट्टे व ज़ंजीर की ज़रूरत ही खत्म हो गयी। ‘वेट’ और ‘कम’ तो इतने उपयोगी हुए कि जुहू जाने में सड़क पार करते हुए गाड़ी-मोटर की भीड़ आ गयी, तो ‘वेट’ कहते ही हमारे पाँव के पास रुक जाता और ‘कम’ कहते फिर चल पड़ता। कोई मिल गया, बीजो से ‘वेट’ कहके दो मिनट बात कर ली, फिर ‘कम’ कह के चल पड़े। कुछ खाने-पीने चले, ‘डाउन’कह दिया, बीजोजी बालू पर पसर के बैठ गये, फिर ‘गेटअप’ कहा, उठ के चल पड़े। इस सीखने में सर के सिखाने के कौशल के साथ बीजो की ग्राह्यता को भी श्रेय देना होगा।
लेकिन सिखाने का शृंगार तो यह रहा कि प्रशिक्षण के अंतिम दौर में एक दिन जब हर दिन की तरह सिखाना हो जाने के बाद घर में बैठे चाय पी रहे थे, सर ने एक रुमाल बीजू को दिखाया और फिर घर के दूसरे कमरों में कहीं जाके रख आये। आके बीजू को ख़ास तरह से टहोका। वह कमरे से निकला और 2-3 मिनटों में रुमाल लेकर आ गया। यह कैसे–कब सिखाया, हमेशा साथ रहते हुए भी मैं जान न पाया और बीजो समझ गया– कर लाया। फिर तो बचे लगभग 3-4 दिनों में तरह-तरह की चीज़ो को छुपाने व भिन्न-भिन्न स्थानों से खोज निकालने की लुका-छिपी (हाइड ऐण्ड सीक) का यह अभ्यास-खेल रोज़ होता। इस बावत पूछने पर सर ने ही बताया कि बीजू की यह लैब्रे प्रजाति आस्ट्रेलिया मूल की है। इस प्रजाति को विशेष रूप से विकसित ही इसी प्रयोजन के लिए किया गया है कि मारे गये शिकार-पक्षी को दूर जाके गन्ध के बल से ढूँढ लाये। उन्होंने यह भी बताया कि इस जाति वाले खाने के लिए किसी की जान ले सकते हैं। लेकिन बाद में पता चला कि बीजो इसमें अपवाद है।
आहट की पहचान
वैसे श्वान मात्र अपनी तेज घ्राण-श्रवण शक्ति के लिए विख्यात है, पर इस रूप में खास तौर पर विकसित की गयी इस लैब्रे प्रजाति में ये शक्तियां कई गुना ज्यादा होती हैं। फिर बीजो में इसकी गहराई भी दिखी। जहाँ हमारी चीकू किसी भी आहट-आवाज पर सीधा भौंकना शुरू कर देती, बीजो शांत लेटा रहता। देखने पर पता चलता कि वह कोई मौके-मौके से यहाँ आने-जाने वाला या अपनी ही इमारत का देर से आने वाला आदमी होता। तात्पर्य यह कि बीजो को आहट ही नहीं, आहट की पहचान भी होती। अत: बीजो आवाज करे, तो किसी अनहोनी का कयास हो जाता। और यह भान उसे अगल-बगल के परिसरों का भी होता।
उसका भौंकना शेर की गर्जना जैसा होता– दूर तक जाता। उसकी श्रवण-सीमा भी काफी बड़ी और विश्वस्त थी– क्या चिह्नित (ब्रैण्डेड) सामानों की ही तरह? घर के किसी सिरे पर लेटे-लेटे उसे पता होता था कि पूरे परिसर में कहाँ-क्या हो रहा है। बीजो की इस घ्राण-शक्ति की त्रासदी बनकर आता गणेश-विसर्जन। हमारे घर की बगल वाली सड़क समुद्र की ओर जाती है, तो दोपहर से आधी रात तक तमाम गणपति के साथ बाजे-गाजे की भयंकर आवाजें जब हमें इतना परेशान करती हैं, तो कई गुना अधिक श्रवणीयता वाले बीजो के तो कान ही फटने को होते। घर के कहीं भीतरी कोने में छिप जाता। फिर लैब्रे जाति खूँखार नहीं, प्रेमल होती है। ये नयन-सुखकारक तो होते ही हैं। इसीलिए सम्भ्रांत इलाकों में जहाँ श्वान-पालन जरूरत व रुचि से अधिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है, इसी प्रजाति के पालतू श्वान बहुतायत में दिखते हैं– सुबह का जुहू-तट इसका पक्का प्रमाण देता है।