बच्चे बढ़ रहे हैं जो लोग खुदा के दो या तीन खुदा मानते हैं उन्हें काफिर और मुश्रिक कहते हैं।
आठवीं पास छात्रा के पास मिली ”तालीमुल इस्लाम”
दरअसल, मध्य प्रदेश में मदरसे का औचक निरीक्षण करने पहुंचे राज्य बाल संरक्षण आयोग के हाथ एक किताब लगी है, जिसका कि नाम ”तालीमुल इस्लाम” है। आयोग सदस्य डॉ. निवेदिता शर्मा और ओंकार सिंह कुछ दिन पहले विदिशा के तोपपुरा की तंग गलियों में मदरसा मरियम मदरसे में हिंदू बच्चे पढ़ने की शिकायत पर इस मदरसे का निरीक्षण करने पहुंचे थे । मदरसे में कुल 37 बच्चे दर्ज हैं। इनमें 21 अनुसूचित जनजाति एवं अन्य हिंदू बच्चे हैं। हिंदू बच्चों के नाम के आगे सरनेम लिखा हुआ नहीं मिला । एक लड़की बच्चों के साथ बैठी थी। वह आठवीं पास छात्रा है, और उसके पास ”तालीमुल इस्लाम” किताब थी।
पूरी दुनिया में इस्लाम से बड़ा कोई मजहब नहीं और अल्लाह से बड़ा कोई भगवान नहीं
इस पुस्तक में इस्लाम की प्रारंभिक जानकारी एवं नियमों के साथ उसकी विशेषताओं के बारे में लिखा हुआ है। जिसमें कि विशेष तौर पर जिन बातों को गहराई के साथ इंगित किया गया है, उनमें साफ है कि ‘पूरी दुनिया में इस्लाम से बड़ा कोई मजहब नहीं और अल्लाह से बड़ा कोई भगवान नहीं । जो अल्लाह को नहीं मानें वह काफिर और मुश्रिक है।’ उल्लेखनीय है कि अभी तक जितनी भी परिभाषाएं काफिर या मुश्रिक की मिली हैं, उनसे साफ होता है कि किसी को अल्लाह का समकक्ष मानने वाला, बहुदेववादी (लाक्षणिक) काफिर, मूर्तीपूजक या कहें बहुदेववादी, जिसकी किसी देव परम्परा या मूर्ति, स्वरूप में आस्था है वह मुश्रिक है। इस लिहाज से अल्लाह को न माननेवाले तमाम मत, पंथ, संप्रदाय-धर्म के लोग मुश्रिक हैं जोकि इस्लाम को नहीं मानते।
मध्य प्रदेश मदरसा बोर्ड के बनाए नियम कर रहे कई सवाल खड़े
कोई पूछ सकता है कि मदरसे तो होते ही दीनी अरबिया तालीम देने के लिए, वहां अल्लाह के बारे में नहीं तो किसके बारे में पढ़ाया जाएगा? लेकिन यहां बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है मध्य प्रदेश मदरसा बोर्ड के बनाए नियमों से । क्योंकि मध्य प्रदेश का मदरसा बोर्ड इस बात से इत्तफाक नहीं रखता। मध्य प्रदेश मदरसा बोर्ड की वेबसाइट पर साफ शब्दों में लिखा है ”मदरसा शिक्षा के विकास एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों में शिक्षा के लोक-व्यापीकरण के तहत केन्द्र प्रवर्तित मदरसा आधुनिकीकरण योजना के प्रभावी क्रियान्यवन की दृष्टि से मध्यप्रदेश सरकार, स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा 21 सितम्बर 1998 को विधानसभा में अधिनियम पारित कर मध्यधप्रदेश मदरसा बोर्ड का गठन किया गया।”
मुसलमान अल्पसंख्यक न लिखकर सामान्य ”अल्पसंख्यक” शब्द लिखा
इसमें आगे मदरसा बोर्ड उद्देश्यों के बारे में लिखा मिलता है, ”मदरसा बोर्ड का मुख्य उद्देश्य परंपरागत मदरसों को दीनी तालीम के साथ-साथ उनके छात्रों को आधुनिक शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ना है। मदरसा अधुनिकीकरण योजना के अन्तर्गत मदरसों को शासकीय योजनाओं से जोड़ना, पर्यवेक्षण करना तथा समय- समय पर राज्य सरकार को सलाह देना।” इसका मुख्य कार्य बताया गया है। यहां दी गई इस परिभाषा और उद्देश्य से यह पूरी तरह साफ नहीं होता है कि मध्य प्रदेश में मदरसे सिर्फ मुसलमानों के लिए ही संचालित हो रहे हैं। विशेषकर इस्लाम को माननेवाले मुसलमान अल्पसंख्यक न लिखकर सामान्य ”अल्पसंख्यक” शब्द लिखा हुआ है, जिसका कि संवैधानिक भाषा में अर्थ हुआ, भारत में रहनेवाला प्रत्येक अल्पसंख्यक फिर वह मुसलमान समेत जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी या सिख ही क्यों न हों । वह भी इन मदरसों में अध्ययन के लिए जा सकते हैं। किंतु मध्य प्रदेश के मदरसों में तो हिन्दू बच्चे बड़ी संख्या में मिल रहे हैं।
बोर्ड का दावा-यहां दीनी तालीम एच्छिक, दी जा रही आधुनिक शिक्षा
इस संबंध में पूछे जाने पर सहायक प्रशासनिक प्रभारी शकील अहमद का कहना है कि मदरसे में आकर शिक्षा कोई भी ले सकता है, किसी बच्चे को आप कैसे यहां आने से रोक सकते हैं ? उन्होंने कहा कि प्रेस को अधिकारिक तौर पर जानकारी देने के लिए मैं अधिकृत नहीं हूं, आप इस बारे में हमारे सचिव महोदय से बात कर सकते हैं। जिस पर सचिव मदरसा बोर्ड मध्य प्रदेश देवभूषण प्रसाद का कहना है कि हमने पहले से नियमों में बहुत बदलाव किए हैं और हम उन्हें दीनी तालीम के अलावा आधुनिक शिक्षा से जुड़ी जानकारियां भी मुहैया करा रहे हैं। अभी फिलहाल शासन का ऐसा कोई नियम नहीं कि सिर्फ मुसलमान ही यहां शिक्षा लेने आएंगे। उन्होंने दीनी तालीम को एच्छिक दिए जाने का भी दावा किया है। वहीं, दूसरी ओर व्यववहार में विदिशा, दतिया समेत तमाम जिलों के मदरसों में हिन्दू बच्चों का बहुतायत में मिलना और उनके बीच ”तालीमुल इस्लाम ” जैसी पुस्तकों का पठन-पाठन कई प्रश्न खड़े कर रहा है?
गैर इस्लामिक बच्चों का अपने धर्म के प्रति बढ़ रहा अविश्वास
मसलन, इस तालीम से उनकी परम्परागत आस्था का क्या होगा? आगे उनका अपने धर्म पर कितना विश्वास रह जाएगा, वे अपने मानबिन्दुओं को कितना श्रद्धा के साथ देखेंगे? दरअसल, ऐसे तमाम प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। इनके खड़े होने का एक कारण यह भी है कि कहीं दो तो कहीं तीन कमरों में एक से आठवीं तक की कक्षाएं मदरसों में संचालित हो रही हैं । जिन्हें दीनी तालीम दी जाती है, उस वक्त अन्य बच्चों को जिन्हें ये नहीं लेनी है, क्या उन्हें कक्षा से बाहर कर दिया जाता है, इतनी दूर कि उनकी कानों तक कक्षा में दी जा रही जानकारी न पहुंच सके? फिलहाल ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। ऐसे में ”तालीमुल इस्लाम ” जैसी पुस्तकें इस्लाम को माननेवालों को छोड़ अन्य बच्चों का उनके धर्म के प्रति विश्वास को कमजोर करने का काम ही कर रही हैं।
धर्मांतरण की ओर बढ़ानेवाले साबित हो रहे हैं मदरसे
यहां यह भी कहा जा सकता है कि इस पुस्तक में जो लिखा है, उससे साफ है कि जो मुसलमान नहीं या जो इस्लाम को नहीं मानते, उन बच्चों के मन को बहुत बड़ी संख्या में बदलने का काम यहां किया जा रहा है। भविष्य में धर्मांतरण की ओर जाने, उनकी इसमें नींव तैयार करने जैसा। इस मामले में पुस्तक के कुछ ओर नमूने देखे जा सकते हैं-पुस्तक में एक जगह लिखा है ” गवाही देता हूँ मैं कि अल्लाह तआलाके सिवा कोई इबादत के लायक नहीं…” पुस्तक में कई जगह इस बात पर जोर दिया गया है कि अल्लाह ही सब कुछ है, उसके अलावा अन्य देवता या धर्म मान्यता का कोई अस्तित्व नहीं। उक्त पुस्तक कुतुबखाना अजीजिया से छपी, उर्दू बाजार, जामा मस्जिद, दिल्ली से प्रकाशित है, जिसका दावा है कि यह हजारों नहीं लाखों प्रतियों में प्रतिवर्ष बिकती है। मतलब मदरसों में इस्लाम को समझने के लिए बिना कोर्स में रहते हुए भी यह पढ़ाई जा रही है।
इनका कहना है
मध्य प्रदेश बाल संरक्षण आयोग की सदस्य डॉ. निवेदिता शर्मा ने कहा- हां, ये बात सच है कि विदिशा मे जांच के दौरान मदरसा मरियम से ”तालीमुल इस्लाम” पुस्तक मिली है। फिलहाल हमें इस पुस्तक का अध्ययन करना है। उसमें ऐसा क्या लिखा है जोकि गैर मुस्लिम बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहिए। वास्तव में यह जांच का विषय है। इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। जांच के बाद भी हम कुछ बोल पाएंगे। यदि कुछ गलत मिलता है तो यह निश्चित तौर पर संविधानिक व्यवस्था के अंतर्गत अनुच्छेद 28(3) का सीधा उल्लंघन माना जाएगा । यह अनुच्छेद किसी भी शिक्षण संस्थान को बिना माता-पिता की सहमति के बच्चों को धार्मिक उपदेश प्राप्त करने के लिए बाध्य करने से रोकता है।
इसके साथ ही उन्होंने कहा कि संविधान में धारा 295 ए के अंतर्गत विमर्श तथा विद्वेषपूर्ण ऐसे कार्य को दंडनीय बनाया गया है जिससे किसी वर्ग के धार्मिक विश्वासों को भावनाओं को आघात पहुंचता हो। भारतीय दंड संहिता की इस धारा 295 ए के अंतर्गत तीन वर्ष तक के कारावास के दंड का निर्धारण किया गया है उसके साथ जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकता है । धारा 298 धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आशय से उच्चारित किए जाने वाले शब्दों पर दंड का निर्धारण करती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 298 (1) वर्ष के कारावास के दंड का निर्धारण करती है तथा इसके साथ जुर्माना भी अधिरोपित किया जा सकता है। अत: हम इसकी पूरी जांच कर रहे हैं।
राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने भी लिखा राज्यों को प्रभावी कार्रवाई के लिए पत्र
वहीं, मदरसों में गैर मुस्लिम बच्चों को दाखिला देने के मामले में राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने सभी राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को गैर मुस्लिम बच्चों को दाखिला देने वाले मदरसों की विस्तृत जांच करने का निर्देश दिया है। यह आदेश सरकारी अनुदान पाने वाले सभी मदरसों के लिए भी जारी हुआ है। इसी पत्र में सभी मदरसों की मैपिंग भी करने के लिए कहा गया है। एनसीपीसीआर के अध्यक्ष का यह पत्र इसी माह आठ दिसंबर को जारी हुआ था । आयोग ने कहा, बतौर संस्थान मदरसों का काम मूल रूप से बच्चों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करना है। सरकारी वित्त पोषित या मान्यता प्राप्त मदरसे बच्चों को धार्मिक और कुछ हद तक औपचारिक शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आयोग अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए गैर-मुस्लिम बच्चों को दाखिला देने वाले सभी सरकारी-वित्तपोषित/मान्यता प्राप्त मदरसों की विस्तृत जांच की सिफारिश करता है।
आयोग के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो का स्पष्ट कहना है कि जिस भी मदरसे में गैर मुस्लिम छात्र को मज़हबी तालीम मिल रही हो ऐसे राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के सभी बच्चों का तत्काल प्रभाव से दूसरे स्कूल में दाखिला करवा देना चाहिए।
बालक मन पर बताई जाने वाली बातें और दिखाए गए का होता है स्थायी असर
बाल मनोविज्ञान पर लम्बे समय से काम कर रहीं मनोवैज्ञानिक अनुकम्पा मिश्रा का इस संबंध में कहना है कि बच्चे भावनाओं और विचारों से सुकोमल होते हैं, उनके मतिष्क में एक बात यदि बार-बार उकेरी जाए तो वह उसे सच मान लेते हैं। वे कहती हैं कि जब एक पत्थर पर या किसी कक्षा में लगे बोर्ड पर कोई शब्द एक ही स्थान पर अनेक बार लिखे जाते हैं तो वे भी उस पर स्थायी छाप छोड़ देते हैं, फिर तो यह बच्चे हैं। इस उम्र में उन्हें जो बताया और दिखाया जाएगा, इनके लिए यही हकीकत की दुनिया है। (एएमएपी)