सत्यदेव त्रिपाठी।
इस बार होली के पहले ही अपने उत्तर प्रदेश की दो तिहाई जनता ने अपनी प्रिय सरकार को पाने का उपहार हासिल कर लिया है। जीत के जश्न के साथ ही होली आयी है और होली के बाद नये साल में बनेगी नयी सरकार- यानी मंगल ही मंगल…।

 

ऐसे में ‘आपका अख़बार’ से अजय विद्युत का होली पर आलेख का इसरार आया, तो मैं आनंद-उदयपुर की पाँच दिवसीय साहित्यिक-कलात्मक यात्रा पर निकलने वाला था। साथ में प्रियतम मित्र व देश के बड़े चित्रकार कनुभाई पटेल भी थे। लेख की सोच-प्रक्रिया में हमारे बीच अपने-अपने गाँव की होली की चर्चा छिड़ गयी और मालूम पड़ा कि देश के धुर पश्चिम स्थित उनके गाँव विसनगर और उत्तर-पूर्व की दिशा में लगभग धुर प्रांतर पर स्थित मेरे गाँव सम्मौपुर के होली-विधान मूलत: एक जैसे हैं- बजुज कुछ-कुछ रवाजी अंतरों के…। बात की रौ में मेरे मुँह से वही निकल गया कि इस बार तो होली के ठीक पहले मोदी व योगीजी के चलते भाजपा की सरकार बनने से हमारे यहाँ की होली में ज्यादा ही उछाह होगा। संयोग से उस दिन मोदीजी अहमदाबाद में थे और टीवी पर जीवंत (लाइव) खबरें चल रही थीं। फिर तो ख़्याल आना ही था कि विसनगर से 10-15 किमी पर ही तो वड़नगर भी है- मोदीजी का गाँव…और सारी चर्चा खुद-ब-खुद कनु के गाँव से मोदी के गाँव और मेरे गाँव में बदल गयी…।

Vadnagar Archives - DeshGujarat | DeshGujarat

सदा उपेक्षित रेंड़ के पेड़ की प्रतिष्ठा!

Holika Dahan: The age-old custom of dispelling evil, both around and inside  us

होलिका की शुरुआत बसंत पंचमी से तो लगभग पूरे देश में होती है, जो प्रकृति व परिवेश पर से संचालित ज्योतिष के निर्देश पर सार्वदेशिक ही है, तो इसे क्या रोशन करें… और प्रह्लाद व उसकी बुआ होलिका के राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात इसके पौराणिक उत्स की भी क्या बात करें; लेकिन दोनों जगहों पर उसका प्रतीक रेंड़ (एरंड) ही है। रेंड़ का पेड़ गाड़कर उसी के चारो तरफ़ सँगहा (पत्ती-लकड़ी आदि) गाँजते हैं। इस सांस्कृतिक एकता की प्रतीति से प्रफुल्लित होना सहज ही था। यूँ रेंड़ का बड़ा निरादर है- लोक-शास्त्र दोनों में। संस्कृत की सूक्ति है- ‘निरस्तपादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते’ यानी जहां पेड़-पौधों का अभाव हो, वहाँ रेंड़ भी श्रेष्ठ पौधे के रूप में सम्मानित होता है। और इसी को लोक यूँ कहता है- ‘जहां रुख न परास, तहाँ रेंडवे महादेव’। लेकिन होली तो त्योहार ही है- जाति-वर्ण-वर्ग…आदि को भूलकर सबकी एकता का। उस दिन कोई भी किसी पर रंग डाल सकता है। सब साथ में बैठकर गाते-बजाते हैं। ऐसे में सदा उपेक्षित रेंड़ की प्रतिष्ठा भी क्या कम मानीखेज हैं?

विनोद का एक जीवंत आयाम

1,194 Holi Fire Stock Photos, Pictures & Royalty-Free Images - iStock

हमारे यहाँ बसंत पंचमी के दिन गड़ने से लेकर होलिका-दहन के दिन तक एक माह व बीस दिनों रोज़ शाम को गाँव के हर घर से एक बच्चा निकलता था और पूरा समूह मिलकर खेतों से गन्ने की पत्तियाँ व पतझर के चलते जंगलों-बाग़ीचों में गिरे पेड़ों के पत्ते आदि डाले जाते थे, लेकिन अब सब बंद हो चुका है। लेकिन वड़नगर में गन्ना नहीं होता, इसलिए हमारे यहाँ की तरह ‘पत्तियाँ बटोरने’ या ‘होलिका में पाती डालने’ जाने जैसे शब्द ही नहीं वहाँ- फिर करने का तो सवाल ही नहीं। तो वहाँ लकड़ी और गोहरी (उपले) डाले जाते हैं। और कनु को महीने भर रोज़ शाम डालने की याद नहीं आती- शायद तब तक वहाँ भी हमारी ही तरह बंद हो चुका रहा हो। इसी के साथ हमारे यहाँ होलिका जलाए जाने की शाम को चोरी-चोरी किसी के घर के खाट आदि सामान या किसी के छप्पर वग़ैरह भी डालने की अनकही रीति रही है, लेकिन वड़नगर में ऐसा नहीं होता… ऐसे चौर-विनोद-कर्म की भनक भी वड़नगर को नहीं। वहाँ लगभग महीने भर गोहरी (उपले) व लकड़ी इकट्ठा की जाती है। उसी को उस दहन की रात जलाया जाता है। इसलिए उनकी लपटें उठकर आसमानी ऊँचाइयों की तरफ़ नहीं जातीं- जैसा हमारे गाँव में होता कि जलाने की रात सीढ़ियाँ लगा-लगाकर उसे ऊँचा करते हैं, ताकि लपटें बहुत ऊपर तक जाएँ। वहाँ स्पर्धा होती है कि किस गाँव के होलिका की लपटें सबसे ऊपर गयीं… लेकिन मज़ा यह है कि सुबह सभी गाँव के लोग अपनी-अपनी को ही सबसे ऊपर बताते है… यानी यह एक शग़ल है। होली की प्रकृति ही विनोदी है, सो विनोद का एक जीवंत आयाम है यह।

सात दिन-रातों तक जलती रहती होलिका

एक उल्लेख्य बात यह है की वड़नगर-विसनगर में होलिका सात दिन-रातों तक जलती रहती हैं। उसे बुझने नहीं दिया जाता। इसका माहात्म्य क्या है, यह तो नहीं मालूम पड़ा, लेकिन सात दिन जलते रहने की कल्पना करें, तो लगता है यह मामला बहुत रोमांचक…। और इसके पीछे कोई न कोई गूढ़ रहस्य अवश्य होगा। मोदीजी की स्कूली पढ़ाई अपने इसी छोटे से गाँव में हुई है, इसलिए यह कल्पना भी लोमहर्षक है कि अपने सोच व कर्म से आज पूरी दुनिया को हिला देने वाला यह शख़्स कभी होलिका में लकड़ी-गोहरी डालता और उसे सात दिनों तक जलाए रखने के उद्यम करता रहा होगा!

सुरक्षा की कामना का भाव

No Holi celebrations in Gujarat'

हमारे सम्मौपुर में होलिका-दहन की शाम घर की औरतें पूरे परिवार को बुकवा (सिल पर पिसी हुई कच्ची सरसो का लेप) लगाती हैं और उसकी लीझी (मालिश से गिरे कण) की कपड़े के टुकड़े में छोटी सी गट्ठी बनाकर होलिका में फेंकी जाती है… प्रतीक व्यंजना यह कि साल भर के मैल जलाके अगले साल के लिए ताज़ा हो जाएँ। और वड़नगर में साल भर में जन्मे नये बच्चों को गोद में लेके होलिका की प्रदक्षिणा होती है- कदाचित एक जलती शै से सुरक्षा की कामना का भाव! वहाँ होलिका की राख लेके जाते हैं और उससे परिवार के सभी सदस्यों के मस्तक पर टीका करते हैं। होलिका के दिन तो यह हम नहीं करते, लेकिन यूँ पूजा के हवन की राख का टीका लगाने की नियमित परम्परा है, जिसे ‘भभूत लगाना’ कहा जाता है।
सबसे बड़ा फ़र्क़ यह है कि होली के पूरे महीने हमारे यहाँ कबीर-जोगिड़ा (गालीमय काविता) चिल्ला-चिल्ला कर बोला जाता है- ख़ास तौर पर भाभियों को लेकर, लेकिन आमतौर पर सबको…। और यह इतना प्रचलित रहा कि होली के दिन तो कोई भी बोलता- उसमें छोटे-बड़े, जाति-पाँति… आदि का कोई भेद नहीं होता। इसीलिए चार वर्णों के चार त्योहार में इसे शूद्रों का त्योहार कहा गया है, जिसका मतलब होता है- समानता। उस एक दिन सभी बराबर होते हैं- किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं रह जाता। और सिद्ध होता है की यह मौज-मस्ती का त्योहार है – नये साल की शुरुआत का एक अनोखा आयोजन…।

‘फूलोत्सव’ या ‘दोलोत्सव

Phool Holi: वृंदावन में 14 मार्च को खेली जाएगी फूल की होली

लेकिन वड़नगर (गुजरात व शायद राजस्थान के पश्चिमी प्रांतर आदि) में इस हँसी-विनोद के भाव को भक्ति का आयाम दे दिया गया है- भक्तिमय बना दिया गया है। इसके शीर्ष आराध्य स्वामी नारायण हैं, जिनका मंदिर वड़नगर में है, कनु के विसनगर में भी है। शायद सभी गाँवों में होता है। कहते हैं कि यह परम्परा स्वामी नारायणजी ने ही साधु-संतों के साथ शुरू की थी। इस दिन स्वामी नारायण को फूलों के झूले में बिठाके झुलाते हैं। इसलिए इसे ‘फूलोत्सव’ या ‘दोलोत्सव’ भी कहते हैं। स्वामी नारायण के साथ कृष्ण-मंदिरों में भी होली-उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। खूब रंग लगाए जाते हैं। स्वामी नारायण के रंग़ में रँग जाने का समर्पण भाव भी इसमें निहित है। विशेष ध्यातव्य यह भी कि इन स्वामी नारायण महाराज के अयोध्या के पास किसी ‘छपैया’ नामक स्थल पर जन्मे होने की निश्चित मान्यता है।

कीचड़ का प्रचलन

ऐसा देश जहां सिर्फ कीचड़ से खेली जाती है होली | कुछ नया

दहन के बाद होली की सुबह हमारे यहाँ पानी-कीचड़ से होती और गाँव भर की भाभियाँ अपने नवचे देवरों को कीचड़ लिए दौड़ाती रहतीं… और सभी स्त्री-पुरुष किन्ही न किन्ही के भाभी-देवर होते ही हैं। लिहाज़ा पूरा गाँव ही कीचडमय हो गया रहता…। लेकिन दोपहर के बाद फिर रंग़ शुरू होते…। वहीं कनु ने बताया कि वहाँ सुबह ही रंग़ शुरू हो जाते हैं और दोपहर के बाद फिर कीचड़ शुरू होते हैं, जो शाम को बंद होके फिर रंग़ से समापन की ओर बढ़ते हैं। इसमें रंग़ से होली की सुबह की शुरुआत जहां सांकेतिक है, वहीं कीचड़ से शुरू करके फिर इकट्ठे रंग़ पर आने की उत्तर भारतीय वृत्ति दो बार नहाने से बचने में व्यावहारिक ही कही जायेगी। लेकिन इसमें ध्यान देने की ख़ास बात कीचड़ का प्रचलन है, जो दोनों जगहों पर (क्या पूरे देश में भी ऐसा होगा?) होते हुए संकेत करता है कि इस त्योहार का कोई रिश्ता, कोई संदर्भ कीचड़ से ज़रूर रहा होगा- कीचड़ से कमल की तरह, जो शोध का विषय हो सकता है!
होली जब साल की शुरुआत का इतना सांकेतिक व उल्लासमय पर्व है, तो गीत-संगीत भला कैसे न होंगे? यह चलन भी पश्चिम से पूर्वोत्तर तक समान रूप से गुलज़ार है।

पुरुषों-स्त्रियों के बीच फाग-गायन की स्पर्धा

Baithaki Holi of Kumaun follow tradition of thumri singing jagran special

हमारे यहाँ गाये जाने वाले गीत का सांगीतिक नाम ‘चौताल’ है, जिसके कई भेदोपभेद हैं। ऋतु गीतों में कजरी व फाग सबसे पसंदीदा व इसीलिए व्यापक रूप से प्रचलित व सुलभ हैं। लेकिन इस गीत-प्रकार का स्थानीय नाम तो फागुन (फाल्गुन) माह के अवसर की संगति में ‘फगुआ’ ही है। बातचीत में ‘फाग’ भी हो जाता है- ‘होली खेलने को ‘फाग खेलना’ भी कहा जाता है- ‘जीयै, से खेलै फाग लाल मन-मोहना…’। अत: इसे ‘फाग-गीत’ भी कहते हैं। यूँ सामान्य लोगों के लिए यह ‘होली गीत’ ही है। इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि हर बड़ी व सामान्य फ़िल्म में एक होली गीत होता ही रहा है और उसकी सफलता चिर काल में सिद्ध है। ‘शोले’ जैसी व्यावसायिक स्टंट से लेकर ‘मदर इंडिया’ जैसी यथार्थवादी क्लासिक फ़िल्मों तक के होली गीत इसके प्रमाण हैं। पूरे फागुन माह में मुहल्ले-मुहल्ले से लेकर घर-घर इसके आयोजन आम रहे हैं। होलिका-दहन की रात को तो हमारे गाँव सम्मौपुर में पुरुषों-स्त्रियों के बीच फाग-गायन की स्पर्धा भी होती थी- एक गीत पुरुषों की तरफ़ से, तो एक गीत स्त्रियों की तरफ़ से…। सुबह हो जाती और फ़ैसला न होता, लेकिन इस बीच कहा-सुनी में एक दूसरे से श्रेष्ठ होने व सामने वाले को कमतर सिद्ध करने के इतने चुहल भरे प्रसंग बनते, जो गीत से ज्यादा मज़ा देते…।

फागण फ़ोरमतो आव्यो

इस पक्ष में वड़नगर भी कम समृद्ध नहीं, पर विनोद से भक्ति की तरह यह भी काफ़ी अलग तरह से अपनाया गया है। गुजरात का श्रेष्ठ व सरनाम लोकप्रकार है ‘भवई’, जो है तो मूलतः: नाट्यरूप, पर उस नाट्य के संगीत को तमाम अवसरों से जोड़ दिया गया लगता है। लिहाज़ा होलिका-दहन की रात से शुरू होकर होली (धुलेटी) की दोपहर तक भवई गाया जाता है। इसके अलावा मशहूर गीतपंक्ति है- फागण फ़ोरमतो आव्यो …आव्यो री आव्यो यो फागण आव्यो…। क्या यह ‘होली आयी रे (कन्हाई रँग छलक्यो सुना दे ज़रा बांसुरी) वाले गीत जैसा ही नहीं है? समान भावों-हुलासों की अभिव्यक्ति-समानता का जीवंत उदाहरण। द्रुत गायन के साथ इसी को विलंबित में भी आ-व्यो री फा-ग-ण फो-र-म-तो… के रूप में, जो हमारे यहाँ भी हर चौताल में होता है…। एक बानगी अपनी भी- बिछिलाय गयी गोरी खड़ी अंगना, बिछिलाइ गयी… और फिर द्रुत के बाद इसी को विलंबित में बि-छि-ला-य ग-यी गो-री ख-ड़ी अं-ग-ना…। बल्कि हर फाग गीत की यह ख़ास पहचान है, जो अब मालूम पड़ा कि राष्ट्रीय स्तर पर ही क़ायम होगी, जो मूलतः: संगीत-विद्या की ख़ासियत है।

दोनों जगह ‘प्रह्लाद कथा’ से उत्सव की शुरुआत

होली की पारम्परिक कथा - होलिका दहन - भक्त प्रहलाद की कहानी - Holi Animated  Story - YouTube

दोनों जगहों की समानता में होली उत्सव की शुरुआत ‘प्रह्लाद कथा’ से ही है- पुन: पौराणिक मूल के चलते, लेकिन वड़नगर में मक्के का लावा व दूध चढ़ाने की परम्परा रही है, जो मेरी जानकारी में हमारे यहाँ होली पर नहीं मिलती। हाँ, यह नागपंचमी को नाग बाबा के लिए अवश्य क़ायम है। इसी तरह हिंदी व गुजराती दोनों ही साहित्य में होली का समावेश बहुत-बहुत भी है और बहव: भी, जिसमें ढेरों समानताएँ व सकारण भिन्नताएँ मौजूद हैं, लेकिन हमारे लोक-प्रांतर में साहित्य गाये जाने का कोई चलन मेरे जानने-सुनने में नहीं आया- यूँ पद्माकर से लेकर नज़ीर अकबाराबादी व नीरज… आदि तक के तमाम गीत ऐसे हैं, जो गाये जा सकते थे… अन्यत्र गाए जाते हैं, लेकिन अब तो होली मनना ही बंद हो गया है, तो इसकी क्या उम्मीद की जाये! परंतु सुखद है कि वड़नगर में गुजरात के प्रमुख लोकमय सर्जक जवेरचंद मेघानी आदि के गीत भी होली पर गाये जाते हैं, जो लोक में साहित्य की प्रयुक्ति का सराहनीय कदम है, जिसकी फलश्रुति बढ़नी-विकसित होनी चाहिए।
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)