आज भी उपेक्षित और शोषित हैं प्रेमचंद के पात्र

#shivcharanchauhanशिवचरण चौहान।
प्रेमचंद जी माफ करो, हम सब शर्मिंदा हैं।
होरी, गोबर ,धनिया जस के तस सब जिंदा हैं।।
अब भी वैसा का वैसा है प्रेमचंद का भारत।
लिए हाथ में दो पैसा है प्रेमचंद का भारत।।
ये पंक्तियां याद दिलाती हैं कि प्रेमचंद कालीन भारत में बहुत बदलाव नहीं हुआ है। थोड़ा बहुत बदलाव आया है तो बैलों की जगह गांव गांव ट्रैक्टर आ गए हैं। अब ठाकुर का कुआं पहले वाला ठाकुर का कुआं नहीं रहा क्योंकि अब कुआं की जगह गांव-गांव घर-घर सबमर्सिबल पंप, हैंड पंप, नलकूप लग गए हैं।
इधर कुछ वर्षों से कुछ साहित्यकारों ने प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्तूबर 1936) की प्रासंगिकता पर सवाल उठाने शुरू किए हैं। इन लोगों का कहना है कि अब भारतीय समाज में बहुत परिवर्तन हो गया है इसलिए प्रेमचंद्र की कथाएं प्रासंगिक नहीं रही। अब वैसे हालात नहीं रहे जैसे आजादी के पहले थे? किंतु आज भी प्रेमचंद कालीन भारत के ग्रामीण समाज और आज के भारत के ग्रामीण समाज में कोई बहुत क्रन्तिकारी बदलाव नहीं दिखाई देता है। हाथ में चार पैसे आने लगे हों या सरकारी योजना में किसी को पक्के कमरे और शौचालय वाला मकान मिल गया हो- इतना परिवर्तन तो हुआ है। लेकिन आज भी प्रेमचंद्र और उनका साहित्य प्रासंगिक है।

धनपत राय, नवाब राय नाम छोड़कर बने प्रेमचंद

कथा सम्राट प्रेमचंद का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के लमही गांव में हुआ था। पिता ने उनका नाम रखा था धनपत राय। बचपन में ही मां का देहांत हो जाने के कारण प्रेमचंद के पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। सौतेली मां प्रेमचन्द को परेशान करती। गरीबी के कारण प्रेमचंद की पढ़ाई मैट्रिक तक हो पाई। बनारस में बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर वह अपने परिवार का खर्च चलाते थे। उन्हीं दिनों वह स्कूलों के डिप्टी साहब बन गए। इसी बीच उनकी कहानियों का संग्रह सोजे वतन आया। अंग्रेज सरकार ने इसे सरकार विरोधी मानकर प्रेमचंद को गिरफ्तार कर लिया और प्रेमचंद के सामने ही सोजे वतन कि सारी प्रतियां जलवा दीं। इसके बाद ही अपने प्रकाशक दयाशंकर निगम के सुझाव पर धनपत राय और नवाब राय का नाम छोड़कर उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया। प्रेमचंद नाम साहित्य में इतना चमका कि अमर हो गया। प्रेमचंद ने किसानों, मजदूरों, शोषित पीड़ित लोगों के जीवन को अपनी कहानियों और उपन्यासों का विषय बनाया और हिंदी को अनेक उपन्यास और मशहूर कहानियां दी।

कितने प्रासंगिक

सवाल यह है कि प्रेमचंद जो लिखा वह कितना प्रासंगिक है। उनकी कहानियां और उपन्यास आज के समाज पर कितना प्रभाव डालते हैं। प्रेमचंद के तत्कालीन समाज और आज के समाज में कितना परिवर्तन हुआ है। प्रेमचंद ने जब कहानियां लिखनी शुरू की तब अंग्रेजों का शासन था। उस समय मजदूर और किसानों की हालत बहुत खराब थी। गरीब और गरीब और अमीर और अमीर होता जा रहा था।
प्रेमचंद का काल गुलामी का काल था। उस समय भारतीय समाज तमाम समस्यायों से घिरा था। प्रेमचन्द का जन्म बनारस शहर के पास के गांव में हुआ था फिर भी वह ग्रामीण परवेश ही उनकी कहानियों का मूल बिंदु है। गरीब किसान और मजदूर के दुख दर्द उनकी कहानियों के मुख्य विषय हैं। ‘गोदान’ में वर्णित विषय उन्होंने तब उठाया था। पर वह विषय आज भी प्रासंगिक है। आज भी भारतीय किसान कर्ज की मार से परेशान/बेहाल है। ‘सवा सेर गेहूं’ एक ऐसे किसान की कहानी है जो सवा सेर गेहूं कर्ज लेता है और कभी नहीं चुका पाता क्योंकि महाजन उस कर्ज को दो गुना ,तीन गुना बढ़ाता चला जाता है। किसान कर्जदार होकर मर जाता है तो फिर उसका बेटा महाजन के यहां बंधुआ मजदूरी करता है। आजादी के बाद वही काम सरकारी बैंक करते रहे, सरकारें करती रहीं। बैंक सस्ते कर्ज का झांसा देकर किसान के ऊपर चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर कर्ज की राशि इतनी बड़ी कर देता है कि किसान उसे अदा नहीं कर पाता और आत्महत्या कर लेता है। किसानों की आत्महत्या देश की व्यवस्था के माथे पर आज भी कलंक है। आज भी गांवों में साहूकारी प्रथा जिंदा है। अब तो आनलाइन कर्ज का मायाजाल फैल रहा है।
‘गोदान’ की कहानी भी आज भी प्रासंगिक है। बैंक या अन्य निजी संसाधनों से कर्ज लेकर किसान, मजदूर उसे चुका नहीं पाता। अंततः उसके खेत, संपत्ति बैंक नीलाम कर देता है। ‘दो बैलों की कहानी’ बदले हुए परिवेश में आज भी प्रासंगिक है। गांव गांव गांव में ट्रैक्टर आ गए हैं। बैलों से खेती का काम अब नहीं होता। फिर भी बहुत से गरीब किसानो की कृषि का सहारा अभी भी दो बैलों की जोड़ी ही है। बूढ़ी काकी आज भी समाज में ठोकरें खा रही हैं। आज के बेटे सारी संपत्ति लेकर अपने मां बाप को घर से निकाल देते हैं। वृद्ध माता-पिता वृद्ध आश्रम में रहने को मजबूर होते हैं।

और नवाबजादे शतरंज खेलते रहे

बड़े घर की बेटी हो या छोटे घर की- ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आज भी प्रासंगिक है। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर तो फिल्म भी बनी है। अंग्रेज की फौजें लखनऊ में आ जाती हैं और नवाबजादे शतरंज ही खेलते रहते हैं। मिल के मजदूरों की समस्याओं पर भी प्रेमचंद ने कलम चलाई है। वह मुंबई भी गए और फिल्मों के लिए कहानियां भी लिखीं। उनकी लिखी ‘मजदूर’ फिल्म काफी लोकप्रिय हुई। प्रेमचंद ग्रामीण परिवेश के जो भी पात्र चुने वे सभी आज भी किसी न किसी रूप में दिख जाते हैं। उनकी समस्याएं आज भी किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। किसान परेशान है और मजदूर पिस रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था तब भी थी और आज भी है। बेरोजगारी है। गरीबी मिटाओ- गरीबी हटाओ के नारे तो बहुत लगे, चुनावी घोषणापत्र की सुर्खी बने- पर गरीबी नहीं मिटी। लेबर कानून ऐसे बने जो मजदूर हित विरोधी हैं। प्रेमचंद ने इन विषयों पर कलम चलाई थी। यह दुर्भाग्य है कि आजादी के पूर्व की समस्याएं किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद हैं।

प्रेमचंद से मुंशी प्रेमचंद

प्रेमचंद ने एक अखबार ‘जागरण’ निकाला था और एक साहित्यिक पत्रिका हंस का भी संपादन किया। हंस के संपादक के तौर पर के एल मुंशी और प्रेमचंद का नाम छपता था। बाद में लोगों ने प्रेमचंद के नाम के आगे मुंशी जोड़ दिया और वह मुंशी प्रेमचंद हो गए। प्रेमचंद अपने जमाने के सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां लिखते रहते थे। दया नारायण निगम उनके प्रमुख प्रकाशक थे। प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका निकालने के लिए एक प्रेस खरीदा था जिसका नाम सरस्वती प्रेस था। पर प्रेमचंद प्रेस नहीं चला पाए। भारी घाटे के कारण उसे बेचना पड़ा। प्रेस में कर्मचारियों ने हड़ताल भी की थी। कर्मचारियों का बकाया वेतन न दे पाने के कारण प्रेमचंद की काफी फजीहत हुई।

रूप बदला समस्याएं वही

प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास प्रेम आश्रम, सेवासदन, कर्मभूमि रंगभूमि, गोदान आदि में किसानों, गरीबों शोषित पीड़ित लोगों की समस्यायों को ही बड़ी शिद्दत से उठाया। गांव में जितनी विसंगतियां हैं सभी उनके उपन्यासों में हैं। जमीदारों, भू सामंतों के अत्याचार, जाति धर्म की कट्टरता, महाजनी सभ्यता की विसंगतियां उनके उपन्यासों में मुखर हैं। ऐसी परिस्थितियां आज भी किसी न किसी रूप में समाज के सामने मुंह बाए खड़ी हैं।
प्रेमचंद ने विधवा विवाह, बाल विवाह,  दहेज की समस्या, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, दिखावा आदि समस्याओं को देखा था और उनके दुष्परिणाम देखे थे। अपनी रचनाओं में उन्होंने इन कुप्रथाओं के समाधान भी सुझाए। प्रेमचंद ने लिखा- “मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र समझता हूं। मानव जीवन पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। किन्हीं भी दो आदमियों की सूरत नहीं मिलती। उसी भांति आदमी के चरित्र नहीं मिलते। सभी आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ विभिन्नताएं होती हैं। यही दिखाना उपन्यास का मुख्य कर्तव्य है।”
आज के समाज को देखते हैं तो लगता है कि प्रेमचंद ने जो तब लिखा था उनके विमर्श के मूल बिंदु कुछ बदले हुए स्वरूप में समाज में मौजूद हैं।

(लेखक लोक संस्कृति, लोक जीवन और साहित्य व समाज से जुड़े विषयों के शोधार्थी हैं)