डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
एक बार एक विश्वविद्यालय में मुझे एक असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति करनी थी। कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी थी। तीन महीने की थी या छह महीने की – मुझे ठीक से याद नहीं। कई लोग इंटरव्यू के लिए आए। जो मुझे सर्वाधिक उपयुक्त लगा, उसका चयन मैंने किया। मेरा उनका कोई पूर्व परिचय नहीं था।
लेकिन जब वह सज्जन नौकरी करने लगे, तब मुझे लगा कि इनको नौकरी देकर तो मुझसे बड़ी गलती हो गई। क्योंकि वह घोर वामपंथी थे और घोर नास्तिक थे। यदि वह अपने विचारधारा को अपने पास ही रखते तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन वे अपनी विचारधारा से छात्रों को भी प्रभावित करते थे। मुझे यह आशंका हुई कि इससे तो कुछ हिंसा का वातावरण तैयार हो रहा है। तो ऐसी स्थिति में मैं कुलपति महोदय के पास गया और उनसे अनुरोध किया कि वे इन सज्जन की नौकरी समाप्त कर दें, हालांकि वह नौकरी सिर्फ कुछ महीने की ही थी।
खैर, कुलपति जी ने मेरी बात सुनी, लेकिन कोई एक्शन नहीं लिया। फिर एक दिन वह शुभ घड़ी आई कि उनकी नौकरी की अवधि समाप्त हो गई। यहां यह बता देना भी जरूरी है कि यह उनके जीवन की पहली नौकरी थी। और उनमें एक बड़ी ईमानदारी की बात थी कि जो भी विषय उन्हें पढ़ाने के लिए दिया जाता था, अगर वह विषय उन्हें नहीं आता था, तो वह मुझसे उस विषय के बारे में चर्चा कर लेते थे और उसे समझ लेते थे।
उनकी कार्य अवधि समाप्त हो जाने के बाद मुझे असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए फिर से लोगों का इंटरव्यू करना पड़ा। फिर कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी थी अर्थात तीन महीने या छह महीने की। उन सज्जन ने उस नौकरी के लिए फिर आवेदन किया। और मैंने फिर सभी कैंडिडेट्स का इंटरव्यू लिया। उस इंटरव्यू में जितने कैंडिडेट्स आए थे उनमें मुझे फिर वही सबसे उपयुक्त और सर्वश्रेष्ठ लगे। इसलिए मैंने उनको फिर नियुक्त कर लिया।
आख़िरकार एक दिन ऐसा आया कि उनकी नियुक्ति की अवधि समाप्त हो गई। फिर वहां कॉन्ट्रैक्ट की कोई नौकरी नहीं बची थी। वहां नियमित स्थाई नियुक्ति होनी थी। वह पद आरक्षित पद था। और वह सज्जन उच्च जाति के माने जाते थे। इस कारण वह सज्जन विश्वविद्यालय से बाहर हो गए।
नास्तिक से आस्तिक बने
फिर उन्होंने कई अलग-अलग शहरों में नौकरी की। इस प्रकार उनके जीवन का अनुभव बहुत बढ़ गया। जीवन के तमाम तजुर्बों के बाद धीरे-धीरे वह कृष्णभक्त हो गए। वह माला जपने लगे। इस्कॉन के भगवद्गीता के क्लास में जाने लगे। उस क्लास में जाने के बाद वह इतना भावविभोर और उत्साहित हो जाते थे कि मुझे फोन करते थे और बताते थे कि उन्होंने क्या-क्या नया सीखा। उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि मुझे भी रोज भगवद्गीता पढ़नी चाहिए और रोज 16 माला जपनी चाहिए। उन्होंने मुझे इतना समझाया इतना समझाया कि मैं भी इस दिशा में थोड़ा प्रोत्साहित हुआ। हालांकि जीवन की तमाम उलझनों में फंसा रहने के कारण मेरे लिए 16 माला का नियमित जाप करना अभी संभव नहीं हुआ। ईश्वर के नाम के जप की महिमा तो सभी धर्मों में बताई गई है।
उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा
आजकल वह एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा रहे हैं। वह माथे पर बड़ा सा तिलक लगाकर क्लास में पढ़ाने जाते हैं। ऐसे लोगों को लम्बे समय से उत्तर भारत के कथित सभ्य समाज में पिछड़ा हुआ समझा जाता है। उनके विभागाध्यक्ष तथा विभाग के अन्य कुछ लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं।
पिछले वर्ष ऐसा हुआ कि उस कॉलेज की लगभग 12 छात्राओं ने अलग-अलग पत्र लिखकर उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगा दिया। उनकी नौकरी पर तुरंत बन आई। कॉलेज प्रशासन ने उनसे कहा कि आप इस्तीफा देकर चले जाएं, नहीं तो हम आपको निकाल देंगे। और अगर आपका टर्मिनेशन होगा, तो फिर आपको कहीं किसी कॉलेज में नौकरी नहीं मिलेगी। ऐसे में वे बहुत परेशान हो गए।
फिर वह अपने कॉलेज के चेयरमैन से मिले अर्थात मालिक से मिले। उन्होंने अपने खिलाफ लिखे गए पत्रों की भाषा पढ़ कर यह सिद्ध किया कि कि वे सभी पत्र किसी एक ही व्यक्ति ने लिखवाए हैं। अर्थात उनके खिलाफ कोई षडयंत्र किया गया है, जिसके अंतर्गत यह पत्र लिखवाए गए। कॉलेज के चेयरमैन ने उन छात्राओं को बुलाया, लेकिन उन 12 छात्राओं में से कोई भी चेयरमैन के सामने उपस्थित नहीं हुई।
इस प्रकार एक कृष्णभक्त की नौकरी बच गई। इस आलेख में मैं उन सज्जन का नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूं, ताकि लोग उन्हें किसी अन्य झमेले में न फंसा दें।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)
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इसकी भनक किसी को नहीं थी
मैं यदि किसी जीवित व्यक्ति के बारे में कोई लेख लिखता हूं, तो लिखने के बाद उस व्यक्ति को भेज देता हूं ताकि वह सारे तथ्य चेक कर लें। तो इस मामले में भी मैंने उन सज्जन को प्रकाशन से पूर्व अपना लेख भेज दिया था। उन्होंने इसे पढ़कर यह बताया कि उनको यह बात नहीं मालूम थी कि मैंने कभी कुलपति महोदय से उनको नौकरी से हटाने की मौखिक सिफारिश की थी।
यह सच है कि यह बात सिर्फ मेरे और कुलपति महोदय के बीच थी अन्य किसी को इसकी भनक भी नहीं थी।



