प्रमोद जोशी।
यूक्रेन पर रूसी हमले पर भारत और चीन की प्रतिक्रियाओं पर पर्यवेक्षकों ने खासतौर से ध्यान दिया है। दोनों देशों के साथ रूस के मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। दोनों ने ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस-विरोधी प्रस्ताव पर मतदान में भाग लेना उचित नहीं समझा। मतदान में यूएई की अनुपस्थिति भी ध्यान खींचती है, जबकि उसे अमेरिकी खेमे का देश माना जाता है। तीनों के अलग-अलग कारण हैं, पर तीनों ही रूस को सीधे दोषी मानने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ चीन जिसे रूस का निकटतम मित्र माना जा रहा है, उसने रूसी हमले का खुलकर समर्थन भी नहीं किया है। प्रकारांतर से भारत ने भी इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण माना है।
चीनी प्रतिक्रिया अव्यवस्थित
भारत ने जहाँ साफ शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया लिखित रूप में व्यक्त की है, वहीं चीनी प्रतिक्रिया अव्यवस्थित रही है। उसने जहाँ वैश्विक मंच पर रूस का सीधा विरोध नहीं किया, वहीं अपने नागरिकों को जो सफाई दी है, उसमें रूस से उस हद तक हमदर्दी नजर नहीं आती है। चीन अपनी विदेश-नीति में एकसाथ तीन उद्देश्यों को पूरा करना चाहता है। एक, रूस के साथ दीर्घकालीन नीतिगत दोस्ती, दूसरे देशों की क्षेत्रीय-अखंडता का समर्थन और तीसरे किसी सम्प्रभुता सम्पन्न देश में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति।
हमले शब्द का इस्तेमाल नहीं
गत 24 फरवरी को यूक्रेन पर हुए हमले के बाद चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने 25 को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ टेलीफोन पर बात की, जिसमें उन्होंने यूक्रेन पर हमले शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि ‘पूर्वी यूक्रेन की स्थिति में नाटकीय परिवर्तन’ कहा। साथ ही इच्छा व्यक्त की कि यूक्रेन और रूस आपसी बातचीत से समझौता करें। उन्होंने सभी देशों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की परंपरागत चीनी नीति का उल्लेख भी किया। दूसरी तरफ चीनी मीडिया ने इसे रूस का विशेष मिलिट्री ऑपरेशन नाम दिया। चीनी मीडिया ने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के बयानों को उधृत किया और यूक्रेन में होते विस्फोटों के चित्र भी दिखाए। दूसरी तरफ रूस के सरकारी मीडिया ने यूक्रेन के नागरिक जीवन को शांतिपूर्ण बताया और सड़कों पर जन-जीवन शांतिपूर्ण और व्यवस्थित बताया। कम से कम मीडिया के मामले में रूसी और चीनी-दृष्टिकोण एक जैसे नहीं हैं।
चीन ने रूसी हस्तक्षेप की निन्दा नहीं की है, पर दूसरी तरफ यह भी कहा है कि रूस के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंध बेकार हैं और इस लड़ाई के लिए पश्चिमी देश जिम्मेदार हैं, जिन्होंने नेटो का विस्तार करके रूस को इस हद तक दबा दिया था कि उसे पलटवार करना पड़ा। चीन के सोशल मीडिया पर चीन के एक वरिष्ठ संपादक ने इस बात को साफ कहा।
मामले को सुलझाने का सुझाव
उधर भारत ने इस स्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण जरूर बताया, पर किसी पक्ष की निंदा नहीं की, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्लादिमीर पुतिन के साथ फोन पर हुए संवाद में बातचीत से मामले को सुलझाने का सुझाव दिया। भारत ने ज्यादातर खुद को रूस के खिलाफ मतदान से अलग रखा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि हम केवल अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति और राष्ट्रहित को रेखांकित करना चाहते हैं। अतीत में भी भारत ने मध्य-यूरोप की सुरक्षा-व्यवस्था में सोवियत संघ का समर्थन किया था। 1956 में हंगरी में और 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत सेनाओं के हस्तक्षेप का भारत ने विरोध नहीं किया था। 1980 में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश का भी भारत ने विरोध नहीं किया था।
रखनी होगी घटनाक्रम पर नजर
भारत ने हाल के वर्षों में फ्रांस के साथ रिश्ते बेहतर किए हैं। हमारे रुख के साथ सैद्धांतिक सवाल भी जुड़े हैं। सैनिक हमले का समर्थन कैसे किया जा सकता है? यदि हम दक्षिण चीन सागर में चीनी-प्रभुत्व को अस्वीकार करते हैं, तो मध्य यूरोप में रूसी प्रभुत्व को कैसे स्वीकार करेंगे? इन दिनों रूस के रिश्ते चीन और पाकिस्तान के साथ बेहतर हो रहे हैं। जिस वक्त यूक्रेन में सैनिक कार्रवाई हुई, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान मॉस्को में थे। उन्होंने पाकिस्तान से रवाना होने के एक दिन पहले ही भारतीय व्यवस्था के खिलाफ बहुत कड़वा बयान दिया था। दूसरी तरफ यह मान लेना गलत होगा कि रूस के चीन के साथ बहुत मधुर संबंध बने रहेंगे। इन जटिल बातों को समझने के लिए हमें अगले कुछ दिनों के घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी।
भारत का स्पष्टीकरण
भारत ने एक बयान जारी कर यूक्रेन मुद्दे पर अपनी राय रखी साथ ही ये भी बताया कि मतदान नहीं करने का विकल्प क्यों चुना गया, जो इस प्रकार है-
*यूक्रेन में हाल के दिनों में हुए घटनाक्रम से भारत बेहद विचलित है.
*हम अपील करते हैं कि हिंसा और दुश्मनी को तुरंत ख़त्म करने के लिए सभी तरह की कोशिशें की जाएं.
*इंसानी ज़िंदगी की कीमत पर कभी कोई हल नहीं निकाला जा सकता है.
*हम यूक्रेन में बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों समेत भारतीय समुदाय के लोगों की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित हैं.
*समसामयिक वैश्विक व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र चार्टर, अंतरराष्ट्रीय क़ानून और अलग-अलग देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान पर आधारित है.
*सभी सदस्य देशों को रचनात्मक तरीक़े से आगे बढ़ने के लिए इन सिद्धांतों का सम्मान करने की आवश्यकता है.
*मतभेद और विवादों को निपटाने के लिए बातचीत एकमात्र ज़रिया है, चाहें ये रास्ता कितना भी मुश्किल क्यों न हो.
*ये खेद की बात है कि कूटनीति का रास्ता छोड़ दिया गया है. हमें इस पर लौटना ही होगा.
इन सभी वजहों से भारत ने इस प्रस्ताव पर मतदान नहीं करने का विकल्प चुना है.
अमेरिका को भारत पर भरोसा
बीबीसी हिंदी ने खबर दी है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में हुई वोटिंग से दूरी बनाने के बाद अमेरिका ने भारत से कहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की सुरक्षा के लिए रूस पर अपने रिश्तों के प्रभाव का इस्तेमाल करे। अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है। अख़बार के अनुसार संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन मसले पर लाए गए प्रस्ताव को लेकर ख़ुलकर पश्चिमी देशों के गठबंधन का समर्थन न करने और वोटिंग से दूरी बनाए रखने के बाद भारत और अमेरिका के बीच थोड़ी असहजता आ गई है।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस से जब पूछा गया कि क्या यूक्रेन संकट ने भारत और अमेरिका के संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है क्योंकि भारत के रूस और अमेरिका दोनों से ही अच्छे संबंध हैं। इस पर नेड प्राइस ने कहा कि अमेरिका ये समझता है कि भारत की रूस से रिश्तों की प्रकृति अमेरिका से उसके संबंधों की तुलना में अलग है।
लेकिन उन्होंने कहा कि अमेरिका ने भारत पर भरोसा जताते हुए उससे कहा है कि दुनियाभर के देश, ख़ासतौर पर वे देश, जिनका रूस पर प्रभाव है, उन्हें अपने प्रभाव को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की रक्षा के लिए इस्तेमाल करने की आवश्यकता है।
(लेखक डिफेन्स मॉनिटर पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)