दयानंद पांडेय । 
नरेश सक्सेना (प्रख्यात साहित्यकार) जैसी जिजीविषा और कविता तो सब को मिले पर उनके जैसा दुःख और यह कथा किसी भी को न मिले। कहते ही हैं कि पिता के कंधे पर बेटे की लाश से बड़ा कोई दुःख जीवन में नहीं होता। दुर्भाग्य से आज (11 दिसंबर) यही दुःख नरेश सक्सेना को देखना पड़ गया। आज नरेश सक्सेना के पुत्र राघव नरेश दुनिया को अलविदा कह गए। मुझे यह खबर देर से मिली। शाम को फेसबुक खोला तो विष्णु नागर ने यह दुःख भरी सूचना लिखी थी। सहसा विश्वास नहीं हुआ। फिर सोचा कि विष्णु नागर जी गलत सूचना भला क्यों परोसेंगे। 

मित्रों से पता किया अंत्येष्टि आदि के बाबत। पता चला कि शाम को होना था, हो गया होगा। कुछ मित्रों ने बताया कि हम दिन दो बजे उन के घर तो गए थे पर अंत्येष्टि में नहीं गए। कोरोना से भय के कारण। खैर, नरेश जी के घर गया। कुछ समय पहले लौटा हूं। रात का तीसरा पहर है पर सो नहीं पा रहा हूं। उन से मिलकर उन से कुछ कहने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं थे। पर नरेश जी के पास शब्द ही शब्द थे। किताबों और कागज़ों के बीच लिहाफ़ ओढ़े, बिस्तर पर उठंगे हुए कहने लगे कि, अब जो हो गया है, इसे पलटा तो जा नहीं सकता। इधर-उधर की बात के बाद वह पूछने लगे, क्या लिख रहे हैं, इन दिनों। मैंने कहा कुछ नहीं। इन दिनों पत्नी सेवा में लगा हूं। गाल ब्लेडर का आपरेशन हुआ है।
ओह, कहते हुए लीलाधर जगूड़ी की पथरी की बात वह करने लगे। कहने लगे वह बीमार थे। आपरेशन होना था। अस्पताल में मेरी पत्नी ने उन्हें होमियोपैथी की एक दवा ले जा कर दी। वह बिना आपरेशन के ही ठीक हो गए। फिर अपने लिए भी होमियोपैथी की दवा कैसे, किस बाबत कारगर हुई, बताने लगे। डाक्टर हेमंत कुमार बनर्जी की बात करने लगे। कहने लगे कि एक बार मैं उन को दिखाने गया। तो उन्होंने बिना कुछ बताए ही दवा लिख दी। मैंने कहा, कुछ पूछ तो लीजिए। डाक्टर बोले, जो आप बताएंगे, देख लिया है। और देखिए कि दस रुपए में उन्होंने ठीक कर दिया। मैंने उन्हें बताया कि डाक्टर हेमंत कुमार बनर्जी तो हमारे गोरखपुर के थे। वह बोले- हां, लखनऊ भी आते थे।
Naresh Saxena Hindi Kavita Is Barish Mein - नरेश सक्सेना की कविता 'इस बारिश में' - Amar Ujala Kavya
फिर मैंने बहू के स्वास्थ्य के बाबत पूछा। वह थोड़ा गंभीर हुए। बोले, ठीक है। पर जीवन भर का दुःख तो उस का है ही यह। बेटी के मुंबई से आने के बाबत पूछा तो बोले, आ रही है। फ्लाइट लखनऊ आ गई है। रास्ते में है। अचानक वह कविताओं की चर्चा पर आ गए। गीतों की बात पर आ गए। गीतकारों की चर्चा शुरू हो गई। शंभूनाथ सिंह के गीत- मधुर चित्र कितने / किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए- का ज़िक्र करते हुए जैसे अपने सपनों के टूटने की बात कहना चाहते हों। मैं उन्हें याद दिलाता हूं, समय की शिला पर मधुर चित्र कितने / किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए। वह बोले , हां-हां , समय की शिला पर। उन्हें याद दिलाता हूं लेकिन समय शिला कैसे हो सकता है? नरेश जी हंसे और बोले, हां, समय तो बहता रहता है। उन्हें मैंने बताया है कि कभी शंभूनाथ सिंह जी से भी मैंने यह कहा था कि समय शिला कैसे हो सकता है। तो वह नाराज हो गए थे। नरेश जी को बताता हूं कि फिर भी यह गीत मुझे बहुत पसंद है। अकसर सुनता भी रहता हूं। उनकी आवाज़ में। नरेश जी के दुःख के संदर्भ में कि इस गीत का पहला अंतरा मन ही मन याद करता हूं कि नरेश जी के साथ यही तो हो गया है आज। शायद इसी बहाने अपना दुःख व्यक्त करना चाह रहे हों :
किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।
अभी यह सोच ही रहा था कि संयोग से माहेश्वर तिवारी का फोन आता है नरेश जी के पास। माहेश्वर तिवारी से भी नरेश जी कहते हैं, अब इसे पलटा तो जा नहीं सकता। जो हो गया, हो गया। अचानक माहेश्वर तिवारी से भी वह पूछते है, क्या लिख रहे हैं इन दिनों। माहेश्वर तिवारी ने उधर से गीत का मुखड़ा बताया है, सारे दुःख सिरहाने आ कर बैठ गए। नरेश जी हंसते हुए उनसे कहते हैं सारे दुःख क्यों आ कर बैठ गए। इसको ऐसे कीजिए कि कितने दुःख सिरहाने आ कर बैठ गए। फिर उनसे कहने लगे कि जल्दी यह गीत पूरा कीजिए नहीं, मैं इसे लिख दूंगा। ब्रैकेट में आप का नाम लिख कर। अपने दुःख को छोटा करने की कवायद है यह शायद। सारे दुःख को कितने दुःख का संशोधन। शायद माहेश्वर तिवारी ने उधर से कुछ भगवान की बात कर दी है। नरेश जी जैसे प्रतिवाद पर आ गए हैं। कहने लगे, देखा तो किसी ने नहीं उन्हें। वह कभी अयोध्या में पैदा हो जाते हैं कभी मथुरा में। कभी अफगानिस्तान में भी क्यों नहीं पैदा हो गए। पूरी दुनिया जब उन्होंने बनाई है तो पूरी दुनिया में पैदा होना चाहिए उन्हें। मास्को में भी पैदा होना चाहिए। ईराक में भी। बारी-बारी पूरी दुनिया में। उन का फोन बंद होता है तो वह पूछते हैं, कहां रह रहे हैं अभी माहेश्वर तिवारी । बताता हूं कि हैं तो हमारे गोरखपुर के। बल्कि बस्ती के। पर मुरादाबाद में रहते हैं। नरेश जी माहेश्वर तिवारी के एक बहुत पुराने गीत की सहसा याद करते हैं- जैसे कोई किरन अकेली / पर्वत पार करे। फिर पूछते हैं , इस गीत का मुखड़ा पूछते हैं। बताता हूं उन्हें, याद तुम्हारी जैसे कोई / कंचन-कलश भरे । बताता हूं कि यही उन का सिग्नेचर गीत है। जैसे शंभूनाथ जी का- समय की शिला पर मधुर चित्र कितने / किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए। सिग्नेचर गीत है।
माहेश्वर तिवारी के बहाने मैं उन्हें अपने शहर गोरखपुर के कवि और गीतकार देवेंद्र कुमार की याद दिलाता हूं। नरेश जी देवेंद्र कुमार की याद करते हुए उन का सिग्नेचर गीत सुना कर बच्चों की तरह खुश हो जाते हैं : एक पेड़ चांदनी / लगाया है आंगने / फूले तो / आ जाना एक फूल मांगने। नरेश जी कहने लगे अपनी तरह की अनूठी कल्पना है यह कि आ जाना एक फूल मांगने । अपनी कविताओं का पाठ तो नरेश जी उन्मुक्त हो कर करते ही हैं। पर हिंदी में शिवमंगल सिंह सुमन के बाद एक नरेश सक्सेना को ही देखा है जो अन्य कवियों की कविता का पाठ भी उसी विह्वलता से करते हैं, जैसे अपनी कविताओं का। और क्या तो याददाश्त है उनकी। सब की कविताएं उन्हें क्या तो कंठस्थ रहती हैं। जैसे कंप्यूटर में , गूगल में कुछ संकेत फीड कीजिए और सब कुछ आप के सामने। ठीक वैसे ही नरेश सक्सेना से किसी कविता का ज़िक्र भर कीजिए। वह कवि और कविता का सारा कुछ आप के सामने रख देंगे। आप एक कविता की बात करेंगे, नरेश जी अनेक कविताओं को सुना देंगे। जैसे तन्मय हो कर वह बांसुरी बजाते हैं, उसी तन्मयता से वह कविता पाठ भी करते हैं। तुलसीदास, मीरा से लगायत वरवर राव और ब्रेख्त तक की कविताओं का पाठ नरेश जी से हमने बार-बार सुना है। तुलसीदास को तो वह बाक़ायदा हथेलियों से मेज पर ताल दे-दे कर सुनाते हैं। उनके कविता पाठ की लय देखते बनती है। अरुण कमल, राजेश जोशी आदि अपने तमाम समकालीन कवियों को वह पूरा सम्मान तो देते ही हैं, उनकी कविताएं भी खूब याद रखते हैं और जब-तब सुनाते रहते हैं। उन की यह यादादश्त , यह सहजता और सजगता मोहित करती है। पर आज गीतों की चर्चा तो खूब कर रहे थे पर कहीं-कहीं विस्मृत भी हो रहे थे तो मुझे लग रहा था वह जैसे दुःख को छान रहे हों, कविता के महीन कपड़े से। गोपाल सिंह नेपाली और बलबीर सिंह रंग के गीतों की भी बात आती है। दिनकर और बच्चन के गीतों की भी। और वह उन गीतों की याद में डूबते हुए बात ही बात में मुझसे कहते हैं, आप गीतों पर एक ज़ोरदार लेख लिखिए।
नरेश जी बुद्धिनाथ मिश्र और उनके गीत एक बार और जाल फेंक रे मछेरे की याद करते हुए कहते हैं कि मछेरे की ही वह सोचते हैं। मछली की क्यों नहीं। बताता हूं उन्हें कि इसलिए कि यह मछेरे के संघर्ष पर गीत है। और यही गीत बुद्धिनाथ मिश्र का सिग्नेचर गीत है। जैसे गीतों की स्मृति और गीतों की दुनिया उनके मन में सहसा जाग गई है। तो बेटे को विदा देने के बाद क्या गीतों के बहाने बेटे के शोक को विदा करना चाहते हैं वह। कम लोग जानते हैं कि नरेश सक्सेना ने एक समय गीत भी खूब लिखे हैं। धर्मयुग के रंगीन पृष्ठों पर नरेश जी के गीत मैंने पढ़े हैं। उन्हें उनके गीतों की याद दिलाता हूं। वह कहते हैं, हां, लेकिन अपने गीतों की किताब तो मैंने छपवाई नहीं। श्रीकृष्ण तिवारी के सिग्नेचर गीत की मद्धिम सी याद भी वह करते हैं। पर शब्द भूल रहे हैं। वन की याद है उन्हें। मैं याद दिलाता हूं उन्हें, भीलों ने बांट लिए वन राजा को खबर तक नहीं / रानी हो गई बदचलन / राजा को खबर तक नहीं। नरेश जी जैसे भड़क जाते हैं, यह क्या बात हुई। वन तो भीलों के ही हैं। राजा को क्या मतलब वन से। राजा का क्या दखल वन पर। भारत भूषण के गीतों की चर्चा भी वह करते हैं। मैं उन के सिग्नेचर गीत की याद दिलाता हूं :
ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई चाह में है और कोई
साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनो भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई
बात रमानाथ अवस्थी के गीतों की भी होती है। सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात / और पास ही कहीं बजी शहनाई सारी रात के बहाने। बातों में नईम और रामानंद दोषी भी आते हैं। लोगों के फोन भी आते जा रहे हैं। सो बीच-बीच में हमारी बात टूटती भी रहती है। लेकिन नरेश जी बात का सिरा नहीं भूलते। बात जहां थमी होती है, फोन बंद होते ही वहीँ से शुरू कर देते हैं। पूरे घर में सन्नाटा है। सन्नाटा हमारी बातचीत से ही टूटता रहता है। मुझे ऐसे समय में लिखने-पढ़ने और गीतों की चर्चा करना कुछ ठीक नहीं लगता पर नरेश जी का मन है सो वह बतियाते जा रहे हैं। जैसे किसी गायक के साथ संगतकार की सी संक्षिप्त भूमिका है मेरी। नरेश जी दुःख से उबरें , कोशिश यही है। पर क्या एक दिन में ऐसा दुःख जाता है भला। भले बहू के लिए वह कह रहे थे कि, जीवन भर का दुःख तो उस का है ही , पर जानता हूं कि पुत्र शोक में डूबे एक पिता का भी यह जीवन भर का दुःख है। नरेश जी की ही एक कविता है :
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है
कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।
मन करता है इस कविता में नदी की जगह दुःख शब्द लिख दूं। वह दुःख जो किसी के समझाने, किसी से बतियाने से नहीं जाता। कम नहीं होता। लेकिन नरेश जी तो ऐसे बतियाए जा रहे हैं जैसे कुछ बड़ा अनर्थ नहीं हुआ। उन के कंधे पर बेटे का शोक नहीं है। लिहाफ ओढ़े, पलंग पर लेटे वह, किसी बुद्ध की तरह, किसी जनक की तरह इस दुःख से तटस्थ हो चुके हैं। डर लगता है उनकी यह तटस्थता देख कर। यह भी अजब संयोग है कि एक समय नरेश सक्सेना और विनोद भारद्वाज ने लखनऊ से एक त्रैमासिक पत्रिका आरंभ निकाली थी। यह 1967 की बात है। अब यह 2020 का समय है। और दुर्भाग्य देखिए कि बीते अक्टूबर में विनोद भारद्वाज के इकलौते बेटे जीतेंद्र ऊर्फ जीतू को समय ने छीन लिया। और अब दिसंबर में नरेश जी के इकलौते बेटे राघव नरेश को समय ने छीन लिया है। आरंभ की यह कौन सी परिणति है भला। यह कैसा समापन है भला उस आरंभ का। अभी जब कल मंगलेश डबराल के विदा होने की खबर आई थी तो नरेश जी ने फेसबुक की अपनी वाल पर लिखा था :
मंगलेश मुझसे दस बरस छोटे थे। हमेशा वादा करते और अक्सर नहीं आते। अब वे कभी नहीं आयेंगे। मुझे ही जाना होगा। शब्द खोखले हो चुके। कुछ कहते नहीं बन रहा। मंगलेश जी, नमस्कार।
और आज मंगलेश जी के पास उनका बेटा चला गया। न कुछ कहते बन रहा है, न कुछ सुनते। शब्द सचमुच खोखले हो गए हैं। अकसर जब कोई कवि, लेखक लखनऊ आता है तो नरेश जी बज़िद अपने यहां ठहराते हैं। जैसे अभी कुछ समय पहले विष्णु नागर आए। रघुवीर सहाय पर किताब लिखने के बाबत। कहीं और ठहरना था उन्हें पर नरेश जी ने अपने घर ठहरा लिया। जम्मू से अग्निशेखर आए हिंदी संस्थान के कार्यक्रम में। जम्मू कश्मीर से कई कवि , लेखक आए थे इस कार्यक्रम में। नरेश सक्सेना सब को उठा लाए अपने घर। भोजन करवा कर ही भेजा। अग्निशेखर आज तक इस की चर्चा करते हैं। ऐसे अनेक वाकये हैं।
खैर आज शाम जब चलने को हुआ तो पूछा उनसे कि तीन दिन वाला श्राद्ध करेंगे कि बारह-तेरह दिन वाला। तो वह बोले, अभी कुछ तय नहीं है। बेटी आ जाए तो तय करते हैं। हिंदू तो हम हैं ही। करेंगे सब कुछ जैसे हिंदुओं में होता है। ताकि बाद में कोई पछतावा न हो कि यह क्यों नहीं किया। मैं उनसे विदा ले कर घर से बाहर आया तो फ़िराक़ गोरखपुरी की याद आ गई। 1982 में तब के दिनों फ़िराक़ साहब दिल्ली के एम्स में भर्ती थे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ उन्हें देखने गया था। तब दिल्ली में ही रहता था। सर्वेश्वर जी ने उन्हें जोश मलिहाबादी के निधन की सूचना दी। यह सुन कर फिराक साहब बहुत ज़ोर से चीखे, ओह, जोश! फिर बात ही बात में सर्वेश्वर जी का हाथ पकड़ कर वह कहने लगे कि सर्वेश्वर, मैं हिंदू हूं। इसलिए देखना कि कोई मेरे शव को दफना न दे। मुझे जलाना। सर्वेश्वर जी भावुक हो कर बोले, फिराक साहब, हम सब जानते हैं कि आप हिंदू हैं। जलाए ही जाएंगे। यह कहते हुए सर्वेश्वर जी की आंखें छलछला गई थीं। दुर्भाग्य से फिराक साहब का इकलौता बेटा भी भरी जवानी में दुनिया को अलविदा कह गया था। तो यह अनिश्चितता तो किसी भी को हो सकती है कि इतने बड़े शायर को बताना पडता है कि, देखना मैं हिंदू हूं। मुझे जलाना। दफनाना नहीं। प्रयाग में राजकीय सम्मान के साथ उन्हें जलाया भी गया। लेकिन दिल्ली रेलवे स्टेशन पर फिराक साहब को अंतिम विदा देने तब की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी आई थीं। सारा प्रोटोकाल देखकर फिराक साहब की टीनएज नातिन अपनी बिलखती मां से पूछ रही थी, ममा, नाना इतने ग्रेट थे? बिलखती मां सिर हिलाते हुए बता रही थी कि हां! फ़िरोज़ गांधी तो पारसी थे। पर उनकी भी इच्छा थी कि उन्हें जलाया जाए। दिल्ली के निगम बोध घाट पर उन्हें जलाया भी गया था। इसी निगम बोध घाट पर तब नए-नए बने बिजली वाले शवदाह गृह में सर्वेश्वर जी को उनकी बेटी ने स्विच  दबा कर जलाया था। 1983 में।
अभी जल्दी ही दीपावली , फिर चित्रगुप्त पूजा के बाद मुझे पता नहीं क्या सूझा कि नरेश जी को एक शाम को फोन किया पर उनका फोन नहीं उठा। बाद में रात 11 बजे उनका फोन आया। बड़ी देर तक बात होती रही थी। तो मैं ने उन्हें बताया कि बचपन से जवानी तक गोरखपुर के जिस मुहल्ले इलाहीबाग में मैं रहता रहा था , वह कायस्थों का मुहल्ला था। सो चित्रगुप्त पूजा पर कलम-दावात की पूजा मैं भी करता रहा हूं। पर चित्रगुप्त पौराणिक काल के हैं और कलम फारसी का शब्द है। तो यह कैसे हो गया भला। फारसी का शब्द चित्रगुप्त के साथ कैसे जुड़ गया? नरेश जी बोले, हमने तो कभी कलम-दावात की पूजा की नहीं। न इस बारे में पता है। फिर बात इधर-उधर घूमती हुई मीरा, कबीर, नानक, गोरख, रजनीश तक पहुंच गई। मैंने जब उन्हें बताया कि कबीर, मीरा, जायसी, नानक आदि सब के सब गोरख की परंपरा के कवि हैं तो वह चकित हो गए। गोरख के कुछ पद का भी ज़िक्र किया। कालिदास पर बात आई तो मैंने उन्हें सीता वनवास पर कालिदास का लिखा बताते हुए कहा कि इस पर लिखा तो बहुत लोगों ने है पर जिस तरह कालिदास ने लिखा है, किसी ने नहीं। कि लक्ष्मण जब सीता को वन में छोड़ कर जाने लगते हैं तो सीता को जब तक लक्ष्मण दीखते हैं, वह निश्चिंत रहती हैं। लक्ष्मण ओझल होते हैं तो जब तक रथ दीखता है, सीता निश्चिंत रहती हैं। रथ भी ओझल होता है तो जब तक रथ का ध्वज दीखता है, वह निश्चिंत रहती हैं। लेकिन जब रथ का ध्वज भी ओझल हो जाता है तो सीता बहुत ज़ोर से विलाप करती हैं। सीता का विलाप सुन कर मृग जो दूब चर रहे होते हैं, उनके मुंह से दूब गिर जाता है। उड़ रहे पक्षी जैसे ठहर जाते हैं। वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ खाकर जैसे सीता के विलाप में सुर मिलाने लगती हैं। पूरा वन सीता वनवास के शोक में डूब जाता है। कालिदास का यह वर्णन रुला-रुला देता है। पार्वती प्रसंग का भी ज़िक्र आया।
इस पर नरेश जी विह्वल हुए और बोले, ऐसा होता तो है। फिर उन्होंने जबलपुर में अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना की याद की। कि जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान हॉस्टल में जगह नहीं मिली तो टीचर्स के लिए रहने के लिए जगह उन्हें इसलिए मिल गई क्योंकि वह कैंपस भुतहा घोषित हो गया था। नरेश जी उसमें रहने के लिए तैयार हो गए। और जब साइकिल पर अपना सामान लेकर उस भुतहा कैंपस में रहने के लिए चले तो शाम को उनके साथ कुछ और लड़के भी चले। पर धीरे-धीरे वह छूटने लगे। और आखिर में जब उन्होंने उस भुतहा घर पहुंच कर मुड़ कर देखा तो कोई एक भी नहीं था तब। थोड़ा घबराए वह पर उन्होंने अकेले ही उस कैंपस में रहना शुरू किया। कोई भूत-वूत उन्हें कभी नहीं मिला। फिर वह कैंपस आबाद हो गया। लोग आकर रहने लगे। तो नरेश सक्सेना की जिजीविषा के क्या कहने। बार-बार हमने देखा है। कई बार इस लखनऊ शहर में भी एकला चलो के भाव में उन्हें पाया है। आक्रमण और प्रहार वह हंसते हुए टाल देते हैं। और उस सब से सदा मुक्त भी हो जाते हैं। कोई पैतीस बरस से उन्हें तमाम गरमी-बरसात सहते देखा है। पर इस पुत्र शोक में भी गीतों की याद में विह्वल होते उन्हें पहली बार देखा है। अपनी पत्नी विजय नरेश के शोक में भी उन्हें देखा है। बल्कि प्रतिवर्ष समारोहपूर्वक विजय जी का जन्म-दिन मनाते भी देखता आ रहा हूं। पर उनका यह पुत्र शोक हम सब को तोड़ गया है। विनोद भारद्वाज के पुत्र जीतेंद्र ऊर्फ जीतू के शोक टिप्पणी में ओम थानवी ने अशोक वाजपेयी की एक कविता उद्धृत की थी :
जो जाता है
थोड़ा थोड़ा हमें भी ले जाता है
और इसीलिए कभी
पूरी तरह नहीं जाता।
तो क्या नरेश जी ने भी थोड़ा ही सही अपने पुत्र राघव नरेश को अपने भीतर बचा रखा है। वह पूरी तरह नहीं गया है। क्या इसी लिए नरेश सक्सेना उसके दुःख से तटस्थ दिख रहे हैं। बुद्ध और जनक की तरह। पर हम राजकिशोर जी के पुत्र शोक को भी भूले नहीं हैं। राजकिशोर जी भी ऐसे ही तटस्थ हुए दीखते रहे थे। वह यातना और फिर जल्दी ही कुछ दिनों में राजकिशोर जी का भी विदा हो जाना डराता है। नरेश सक्सेना ईश्वर में विश्वास नहीं करते। पर मैं ईश्वर में पूरी तरह विश्वास करता हूं। और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि नरेश जी की यह जिजीविषा बनी रहे और उनका जीवन भी। नरेश सक्सेना की ही कविता याद आती है, उन के बेटे राघव के लिए :
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
समझता है सबकी मुस्कान
सभी के अल्ले ले ले ले
तुम्हारे वेद पुराण कुरान
अभी वह व्यर्थ समझता है
अभी वह अर्थ समझता है
समझने में उसको, तुम हो
कितने असमर्थ, समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
उसी से है, जो है आशा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार/साहित्यकार हैं)