फिर खुला वामपंथियों का काला चिट्ठा।
अनिल भास्कर।
साम्यवाद की चाक पर हमेशा रक्तचरित्र गढ़ने वाले वामपंथियों की राष्ट्रनिष्ठा एक बार फिर सवालों के घेरे में है। इस बार आईना दिखाया है पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने। अपनी हालिया प्रकशित पुस्तक “द लॉन्ग गेम : हाऊ द चाइनीज निगोशिएट विद इंडिया” में वे बताते हैं कि कैसे हमारे देश के बड़े वामपंथी नेता विदेशी शक्तियों का औज़ार बन जाते हैं। शत्रु देश का हित साधने के लिए अपनी ही सरजमीं पर राजनीतिक विरोध की खेती करते हैं। पुस्तक में किए गए दावों पर ये नेता अपनी सफाई में जो दलीलें पेश कर रहे हैं, वे कितनी खोखली हैं, यह समझने के लिए आइए पहले विस्तार से यह जानें कि गोखले ने अपनी किताब में क्या खुलासे किए हैं।
चीन ने किया वाम दलों-मीडिया का इस्तेमाल
उन्होंने लिखा है कि 2007-09 के दौरान वह (विजय गोखले) संयुक्त सचिव, पूर्वी एशिया के तौर पर विदेश मंत्रालय में चीन से जुड़े मामलों को देख रहे थे। इस दौरान भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौते पर बातचीत चल रही थी। इस समझौते से परेशान चीन ने भारत में वामदलों के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल किया और उन्हें इस समझौते के खिलाफ भारत में राजनीतिक माहौल बनाने का जिम्मा सौंपा। पूर्व विदेश सचिव ने लिखा है, “सीमा विवाद या द्विपक्षीय संबंधों के अन्य मामलों में देश की दोनों प्रमुख वामपंथी पार्टियां- माकपा और भाकपा बेहद राष्ट्रवादी हैं, लेकिन चीनियों को यह पता था कि भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर उनकी कुछ बुनियादी चिंताएं हैं। लिहाज़ा चीन ने भारत में लेफ्ट पार्टियों और लेफ्ट के प्रति झुकाव रखने वाले मीडिया का इस्तेमाल किया।”
भारत की घरेलू राजनीति में चीनी एजेंट
गोखले लिखते हैं, “चीन की कोशिश इन पार्टियों के जरिए भारत-अमेरिका समझौते के खिलाफ घरेलू स्तर पर विरोध खड़ा करने की थी। डॉ. मनमोहन सिंह की तत्कालीन यूपीए सरकार में लेफ्ट पार्टियों के प्रभाव को देखते हुए चीन ने अमेरिका के प्रति भारत के झुकाव के खिलाफ उनका उपयोग किया। इस दौरान भाकपा व माकपा के शीर्ष नेताओं ने इलाज के बहाने चीन जाकर वहां सरकारी नुमाइंदों के साथ विचार-विमर्श किया। भारत की घरेलू राजनीति में यह चीन के प्रवेश का पहला उदाहरण हो सकता है, लेकिन चीनी पर्दे के पीछे रहने को लेकर सावधान थे।” याद कीजिये, इसी परमाणु समझौते को लेकर वामदलों ने 2008 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
डोकलाम पर चीन के पक्ष में बोले करात
हो सकता है, भारत की अंदरूनी राजनीति में सीधी दखल की चीन की तरफ से यह पहली कोशिश हो (जैसा कि गोखले ने भी कयास लगाए हैं), लेकिन वाम दलों/नेताओं के इस्तेमाल होने या देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का पहला खुलासा नहीं है। अब से कोई तीन साल पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) सबरीमाला मंदिर मुद्दे पर अपना पक्ष जनता के सामने रखने के लिए केरल में जनमुनेत्र यात्रा निकाल रही थी। इसके लिए पलक्कड़ जिले में जगह-जगह पर जो पोस्टर चिपकाए गए, उनमें जानबूझकर भारत के नक्शे से जम्मू-कश्मीर को हटा दिया गया था। इससे ठीक पहले सिक्किम-भूटान सीमा पर डोकलाम में भारत-चीन के बीच की तनातनी पर माकपा के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने चीन का पक्ष लेते हुए भारत सरकार को सलाह तक दे डाली थी कि ये मामला भूटान और चीन का है। लिहाज़ा भारत को चीन के खिलाफ अड़ना नहीं चाहिये।
हमेशा नासूर पैदा करते रहे
गलवान घाटी में तनातनी पर भी अनर्गल प्रलाप करते वाम नेता चीन के पाले में खड़े नजर आए थे। इसी करात साहब ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इजरायल दौरे पर अफसोस जताया था और दौरे की निंदा करते हुए कहा था कि यह कदम फिलिस्तीन के साथ सहयोग करने की भारत की नीति के एकदम विपरीत है। कश्मीर घाटी के पत्थरबाजों के लिए सहानुभूति रखने वाले यही करात साहब सुरक्षा बलों की सख्ती पर आठ-आठ आंसू बहा चुके हैं। सेना पर पत्थर बरसाने वालों को सबक सिखाने वाले मेजर लितुल गोगोई को जनरल डायर बता चुके हैं। वैसे हरित क्रांति से लेकर कम्प्यूटर क्रांति का विरोध कर वाम दल सामाजिक विकास विरोधी छवि बहुत पहले बना चुके हैं। ट्रेड यूनियन की राजनीति के जरिए दशकों औद्योगिक विकास का पहिया रोकने का षड्यंत्र कर चुके हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध कर खुद को अप्रासंगिक साबित कर चुके हैं। नक्सलवाद का पोषण कर आंतरिक सुरक्षा के लिए हमेशा नासूर पैदा करते रहे हैं, लेकिन हाल के किसी भी बड़े जनसंघर्ष में उनका झंडा बुलंद नहीं दिखा।
ज्यादातर नेता खलनायक की भूमिका में
कुल मिलाकर देखें तो स्थानीय स्तर पर सामाजिक उन्नयन का संकल्प जीने वाले कुछेक नेताओं को छोड़कर बड़े और केंद्रीय वाम नेताओं की भूमिका अब तक भारतीय राजनीतिक मंच पर खलनायक की ही रही है। वे शायद इस सच को न मानें-स्वीकारें, पर देश की जनता ने उनकी सूरत और सीरत दोनों अच्छी तरह पहचान ली है। उसने वाम दलों को राजनीति की मुख्यधारा से निकाल फेंकते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि सनातनी पराम्पराओं वाली इस सहिष्णु राष्ट्र को किसी आयातित विचारधारा पर आधारित नकारात्मकता और रक्त पिपासु राजनीति कतई स्वीकार्य नहीं। त्रिपुरा के बाद अपने ही गढ़ पश्चिम बंगाल से जिस तरह वाममोर्चे का सफाया हुआ है, उससे यह संकेत साफ है कि बहुत जल्द हम वामपंथ को सिर्फ इतिहास की किताबों में पढ़ेंगे।
(लेखक ‘हिंदुस्तान’ के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)