सत्यदेव त्रिपाठी ।
26 अप्रैल, 2020 को बीजो हमें छोड़कर अपनी महायात्रा पर निकल गया।
कोरोना न आया होता, तो 26-27 अप्रैल को मैं मुम्बई में उसके पास होता।
लेकिन उस महामारी की तालेबन्दी (लॉकडाउन) लगने के समय इत्तफाक़ से मैं अपने गाँव (आज़मगढ़) के घर पहुँच गया था। और सबसे सुरक्षित जगह रहने पर इतरा ही रहा था कि बन्दी का ठीक एक महीना बीतते-बीतते 21 अप्रैल की सुबह मुम्बई से कल्पनाजी (पत्नी) का भेजा वीडियो आया, जिसमें फर्श पर नीमबेहोशी में लेटे बीज़ो के सूजे नथुने और भारी हो आये मुँह से बहती लार देखकर यह इतराना परम दुर्भाग्य का सबब लगने लगा। उसके अंतिम प्रयाण के आसार साफ दिख रहे थे। अंत समय साथ न हो पाने का क्लेश सालने लगा था।
काल तुझसे होड़ है मेरी
उसकी उत्कट जिजीविषा और डॉक्टर उमेश जाधव की चिकित्सा पर कहीं भरोसा भी था और 14 सालों के अपने गहन लगाव व गाढ़े सह-वास की भावात्मक आस्था का सम्बल भी। इसी के बल विश्वास-सा था कि चार सालों से ढेरों स्वास्थ्य-संकटों से ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के बल जिस तरह पार पाता रहा है, अब इस आसन्न मौत को भी मेरे आने तक टाल ही देगा। लेकिन काल से अपनी इस अंतिम होड़ में वह पाँच दिन ही जूझ पाया। शायद उसे भी मेरे-अपने आसंगों के चलते भरोसा था कि चाहे कहीं रहूँ, उसके पास पहुँचने के लिए मुझे एक दिन काफी है। लेकिन इस बार के प्रकोप की वैश्विक विवशता से वह बेचारा अनजान था और मैं मजबूर।
कोरोना-बन्दी के बावजूद अकुल (बेटे) की तत्परता से डॉ. जाधव लगभग रोज़ ही उपचार के लिए आते रहे। जो कुछ भी उचित व कारग़र लगा, करते रहे – सुई (इंजेक्शन) लगाते रहे, दवाएँ चढ़ाते रहे। तल्लीन सम्मोहित-सी अवस्था में बेटा उनके साथ मंत्रवत सब कुछ कराता रहा। पहले दिन ही जाँच के लिए ख़ून ले गये– कैंसर का अन्देशा था। गले में बड़ी-सी गिल्टी निकल आयी थी। पानी के अलावा कुछ अन्दर जा न रहा था। हाँ, अपने बेहद पसन्दीदा पेडिग्री के दो-चार दाने अवश्य किसी-किसी तरह निगल ले रहा था।
कारवाँ गुज़र गया
प्राय: हर गतिविधि को मोबाइल में कैद करके भेजती हुई कल्पनाजी यथासम्भव मेरी अनुपस्थिति की पीड़ा को पूरने का उपक्रम करती रहीं। मैं चित्रलिखे-सा देखता रहा… जिन्दगी भर खाने पर इतना ज़ोर देने वाला, मेरी तरह खाने के लिए कुख्यात बीजो के न खा पाने की दयनीयता देखी न जा रही थी। आख़िर परसों सुबह 11 बजे के वीडियो में डॉक्टर के परीक्षण के दौरान ही उसकी साँस थमने और अकुल द्वारा नयी मोटी चद्दर में लपेटे जाने तथा इन कोरोना-दिनों के ख़ास सेवक राहुल के सहयोग से गाड़ी की डिक्की में रखने और डिक्की के बन्द होने के दृश्य के साथ लगभग चौदह सालों की उसकी इहलीला का पटाक्षेप हो गया। बीजो की जिन्दगी का कारवाँ गुज़र गया, हम गेट के बाहर निकलती बेलिनो की डिक्की देखते और हाथ मलते रह गये।
पहली प्रतिक्रिया मन में उभरी– चलो, मुक्त हुआ… बहुत हलकान हो रहा था। हमें भी राहत हुई– सर्वाधिक कल्पनाजी को, क्योंकि मैं तो इस दौरान अधिकतर बनारस व गाँव ही रहता हूँ और अकुल भी एपिक चैनल की अपनी गुरुतर जिम्मेदारी के सिलसिले में बाहर… प्राय: देश-विदेश तक। बाकी घुमाने-नहलाने-खिलाने-साफ-सफाई आदि सभी कामों के लिए सेवकों के रहने के बावजूद आठो याम की उनकी देख-रेख तो अ-निवार्य रूप से कल्पनाजी को ही करनी पड़ती। लेकिन सबकुछ के बावजूद बीजो के जाने के साथ सबकी मुक्ति की राहत का ख्याल नितांत फौरी निकला। घर से उसके जाते ही सूनापन पसरने लगा– घर में, मन में… बीजू की जोड़ीदार दूसरी चीकू की सूनी आँखों और मूक बेचैनियों में।
बरबस आँखों में उभर रहे दृश्य
परेल स्थित श्वान-श्मशान में दफ़ना के एक-डेढ़ बजे के आसपास बेटा लौट आया था। इसके बाद कुछ हाल-चाल लेने-देने के लिए जैसे बचा ही न हो। हालाँकि बीजो यहाँ गाँव भी आया था मेरे साथ। तीन-चार दिन रहा था। पूरे गाँव की परिक्रमा की थी। उसकी सुन्दरता व स्वभाव से घर व पास-पड़ोस भी बीजो से काफी मुतासिर है। सुनकर सभी उदास व मेरे प्रति सदय भी हो रहे, लेकिन मेरी भरी-भरी यादों के सामने सबके आसंग रीते हैं। अपनी यादों में डूबा मैं तो अकेला… लेकिन वहाँ वे दोनों माँ-बेटे तो मिलके यादों को बाँटके हल्के हो सकते हैं, पर शायद ऐसा हो नहीं पा रहा है। हम तीनो ‘अपने ही में हूँ मैं साक़ी, पीने वाला, मधुशाला’ की पूर्णता के एकांतों में, अपने दिवंगत प्यारे बीजो की तमामो-तमाम हलचलों के सूनेपन में डूब-उतरा रहे हैं। अब जब दृश्य रूप में उसे पाने की आशा अंतिम रूप से टूट चुकी है, सोते-जागते, उठते-बैठते, उसके रूप-गुण-क्रियादि के एक-एक दृश्य बरबस आँखों में उभर रहे हैं।
सन् 2006 के अक्टूबर वगैरह के किसी दिन की बात है, जब अकुल अपना खुला लैपटॉप लेकर पास आया और एक सुन्दर से श्वान-शिशु की तस्वीर दिखाते हुए पूछा – कैसा लग रहा है यह? मैंने सहज ही कहा –‘सुन्दर है…बहुत सुन्दर’। और उसने चहक कर कहा –‘तो ले आऊँ’? बताया कि गोरेगाँव के किसी एजेण्ट की मार्फ़त मिलेगा आठ हजार रुपये में।
‘पैसे से कोई ‘पेट’ (पालतू) नहीं आयेगा’- मेरा गँवईं व पारम्परिक मन बिदक उठा था।
फिर स्पष्ट किया कि जिस नस्ल-जाति का जैसा कहो, मैं एक-दो महीने के भीतर मँगा दूँगा, पर पैसे देकर खरीदेंगे नहीं। बता दूँ कि बचपन से ही दूरदर्शन धारावाहिकों में काम करता बेटा सारे पैसे माँ को देकर जेब-खर्च माँग कर लिया करता था। इसलिए मैंने यह भी जोड़ दिया था कि यदि फिर भी तुम पैसे देकर लाये, तो हमारा-तुम्हारा हिसाब अलग-अलग हो जायेगा।
डैडी, मैं वह डॉगी लाऊँगा
मेरी इस कड़ी और निर्णायक बात को सुनकर उस वक्त तो वहाँ से हट गया था, पर लैपटॉप में छिपा बैठा वह प्राणी उसे लुभाता रहा। और सप्ताह-दस दिनों बाद सन् 2006 के नवम्बर महीने की वह छ्ठीं तारीख़ थी, जब सुबह ही सुबह मैं अखबार पढ़ रहा था, आके सामने बैठा और पूर्ण विश्वास के स्वर में स्मित अदा के साथ बोला– डैडी, मैं वह डॉगी लाऊँगा – खरीदके ही लाऊँगा और हिसाब भी अलग नहीं करूँगा’। दो मिनट की अपलक मौन समक्षता के बाद मैं धीरे से मुस्कुरा उठा और वह हाहा-हाहा करके हँसने लगा। असल में लैपटॉप के पर्दे पर बिराजमान उस प्यारी सूरत पर मैं भी रीझ गया था और उसके आने की कामना कर रहा था। फिर क्या, उसी शाम इस नायक का आगमन होके रहा… और फिर तो खरीदकर पेट्स लाने का चलन बन गया। आगे चलकर पैसे से डोबरमैन श्वान गबरू आया, चित्तू (बिल्ली) आयी और मेरी जड़ता भी टूटी…।