नरेंद्र कोहली ।
लेखक भी अलग अलग कोटि के होते हैं। चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी जैसे लेखक पहले बैंकिंग क्षेत्र में रहे। लेकिन फिर उनके भीतर का लेखक उभरकर आया और उन्होंने अपना प्रोफेशन बदल लिया। जबकि नरेंद्र कोहली चौथे दरजे की पढ़ाई के दौरान ही कलम चलाने लगे थे और जैसे छोटे बच्चे खेलने में रम जाते हैं वह लिखने में रम जाते थे।
जयपुर में किशोरों के लिए एक प्रतियोगिता हुई थी जिसका विषय था कि आप बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं। उस प्रतियोगिता के जो निर्णायक थे और जिन्हें पुरस्कार वितरण करना था उन्होंने बहुत दुख से कहा कि ‘मैंने कम से कम सौ निबंध पढ़े। किसी को डॉक्टर बनना है, किसी को इंजीनियर… वगैरह वगैरह कई प्रोफेशन की बातें की गई हैं। लेकिन इन सौ में से एक भी ऐसा नहीं है जिसने कहा हो कि मुझे लेखक बनना है।’ वह बहुत चिंतित थे कि साहित्य का क्या होगा। अंत में मुझे बोलना था और मैंने कहा कि आपको इतना चिंतित और दुखी होने की जरूरत नहीं है क्योंकि लेखक बनता नहीं है लेखक पैदा होता है।
जो लेखक के रूप में पैदा हो गया वह लेखक है। जब मैं सोचता हूं कि मैंने किसके प्रभाव में लिखना शुरू किया, किसकी प्रेरणा से लिखना शुरू किया, या किस घटना ने मुझे लेखन की ओर मोड़ा… तो मुझे कुछ याद नहीं आता। मैं शुरू से एक ही बात जानता था कि मुझे लिखना है। क्यों लिखना है इसका कोई तर्क नहीं था। जैसे एक बच्चा गली में क्रिकेट, गुल्ली डंडा, कंचे कुछ भी खेल रहा है। उससे कहो क्यों खेल रहे हो? वह बच्चा है उसे खेलना है, यह उसका स्वभाव है। वैसे ही मेरा स्वभाव है लिखना। जब हम बड़े होते हैं और अपने से प्रश्न पूछते हैं तब मेरी समझ में आया कि लिखना मेरे स्वभाव में है।
मुझे तो जब से याद है मैं लिख ही रहा हूं। अच्छी तरह याद है कि चौथी कक्षा में था तो चार मित्रों ने मिलकर दस पेज की एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। उसमें भी मैंने लिखा। मन में यह नहीं था कि मुझे लेखक बनना है। मेरे मन में यह था कि मैं तो लेखक हूं। मैं तो पैदा ही इसी काम के लिए हुआ हूं। तो जैसा जिस समय जिस अवस्था के अनुसार लिखना था वह लिखता रहा। पहले स्कूल की हस्तलिखित पत्रिकाओं में लिखा। आठवीं में आया तो पत्रिका बाकायदा मुद्रित हुई और उसमें मेरी कहानी छपी। फिर जमशेदपुर और आसपास के शहरों जैसे धनबाद, झरिया आदि में छोटी मोटी पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं छपती थीं। 1957 में मैंने मैट्रिक किया तो मैं यह बात कर रहा हूं उससे पहले की। पटना में एक संस्था थी जो पूरे बिहार के स्कूली बच्चों की वाद विवाद प्रतियोगिताएं कराती थी। उनकी पत्रिका थी ‘किशोर’। उसमें भी छपा। फिर सन् साठ या उससे शायद कुछ पहले ‘सरिता’ के ‘नए अंकुर’ कॉलम में एक कहानी ‘पानी का जग, गिलास और केतली’ छपी।
तो इन सब में छपते हुए फरवरी 1960 में इलाहाबाद से श्रीपत राय की पत्रिका ‘कहानी’ में मेरी एक कहानी छपी ‘दोहा’। उसके बाद फिर लेखन का क्रम नियमित हो गया। दूसरे तीसरे महीने तो ‘कहानी’ में ही छपता रहा। जब मैं दिल्ली आया और एमए में था तो सारिका में मेरी कहानी ‘मेरी होने वाली पत्नी’ छपी। धर्मयुग में छपना शुरू हुआ। धर्मयुग में इतना छपा कि किसी ने मुझसे पूछा, ‘धर्मवीर भारती (धर्मयुग के संपादक) से आपकी कोई रिश्तेदारी है क्या जो आपको इतना छापते हैं?’ तो मैं नियमित निरंतर लिखता भी रहा और छपता भी रहा। और ऐसा नहीं कि केवल लिखने का ही जुनून था बल्कि अपना नाम छपा हुआ देखने की इच्छा भी शुरू से ही थी।
छोटी रचनाओं की रचना प्रक्रिया एक होती है। फिर आपने तो कई वॉल्यूम में भी लिखा।
पांच दस पेज की छोटी रचनाएं तो कई बार ऐसा भी होता है कि कोई विचार कौंधा- किसी कारण से, किसी के एक वाक्य से, किसी के व्यवहार से या अखबार में कोई घटना पढ़ी- और आपको लगता है कि यह तो बन गई कहानी। लगता था कि इसे लिख लिया जाए। पहले हम लोग इसीलिए कहते थे कि ‘हम लिखने के मूड में हैं, इस समय बात मत करो। अगर अभी नहीं लिखा तो यह उड़ जाएगा।’ मैंने कहानियां बहुत लिखी हैं। प्रेमचंद के बराबर भले न लिखी हों लेकिन काफी लिखी हैं।
लेकिन जब मैं उपन्यासों और वह भी उपन्यासों की श्रृंखला पर आया। अब रामकथा अठारह सौ पृष्ठों की रचना है। उसको लिखने में छह वर्ष लगे। अब ऐसा नहीं हो सकता है आप छह वर्ष मेज से उठे ही नहीं, कोई आपसे बात न करे, आप कहीं जाएं नहीं। बड़ी रचनाओं के बारे में मेरा अनुभव यह है कि वे आपके मन में कहीं गहरे उतर गर्इं। मंथन चलता रहता है भीतर। अब मैं सोया हूं और कोई कहेगा कि यह कह रहा है कि लिख रहा है पर यह तो सोया है। पर सोये सोये भी भीतर मंथन चलता है। छह वर्ष जैसे मैं उन पात्रों के साथ रहा। उनसे बातचीत कर रहा हूं। कभी कभी ऐसी अनुभूति होती है जैसे वे सब मेरे आसपास ही हैं। उस दौरान जीवन अपनी गति से चलता रहता है।
‘तोड़ो कारा तोड़ो’ लिख रहा था। मेरे बड़े बेटे का विवाह था। चार महीने मेज पर नहीं बैठा लिखने। जब विवाह हो गया और और सब कुछ सामान्य हो गया तो वापस टेबल पर आया और सब कुछ वहीं का वहीं था। ऐसी रचनाएं लिखने के लिए मूड या टाइम की जरूरत नहीं होती। मैंने तो जो कुछ भी लिखा है- साठ वर्ष से ऊपर हो गए लिखते हुए- घर में बैठकर लिखा है। घर में ऐसा नहीं हो सकता कि आवाज नहीं होगी, पत्नी किसी काम से आपको नहीं बुलाएगी। बच्चे पाले हैं दोनों बेटे, अब पोते हैं। मुझे आज भी याद है बेटा छोटा था तो रोता था, सोता नहीं था। उसे औंधा गोद में लिटाकर एक हाथ से थपकते गए और दूसरे हाथ में किताब लेकर पढ़ते गए। जब वह सो गया तो उसे लिटा दिया और लिखने बैठ गए।
एक बार ‘धर्मयुग’ में इस पर बहस भी चली थी कि बड़ा शहर लेखक की प्रतिभा को खा जाता है। उसका कारण यह था कि कुछ लेखक जो इलाहाबाद, लखनऊ या कुछ और शहरों के थे वे काम करने मुंबई या दिल्ली जैसे महानगरों में गए। वे बड़े शहर में खो गए और लिखना उनका कम हो गया। मैंने तब भी यही लिखा कि ऐसा नहीं है मैंने तो सारा कुछ महानगर में ही लिखा है, दिल्ली में ही लिखा है। अगर इतना लिखना प्रतिभा को खा जाना है… तो क्या कहूं।
मेरे भीतर कथा है और मेरे भीतर कटाक्ष, वक्रता है। इसलिए कथा के साथ साथ व्यंग्य भी बहुत लिखा। ये जितने भी व्यंग्यकार है इन सबसे ज्यादा लिखा हुआ है मेरा।
लिखने की प्रक्रिया
लिखने की प्रक्रिया बड़ी जटिल है और मैं मानता हूं कि यह आपके हाथ में नहीं है। आपके भीतर से एक चीज उठी और आपके मन में हुआ कि मैं इसे लिख दूं। रात को यह सोचकर सोये कि सुबह उठकर इस पर लिखेंगे और तय किया कि पांच पृष्ठ लिखने हैं कि दस पृष्ठ लिखने हैं। सुबह हो सकता है कि आप लिखने बैठें और पचास पृष्ठ लिखकर उठें। यह भी हो सकता है कि आप लिखते रहें फाड़ते रहें, लिखते रहें फाड़ते रहें और आप कुछ भी न लिख पाएं। इसका मतलब यही है कि वह रचना अभी पकी नहीं है आपके भीतर। जैसे प्रसव में होता कि जब भ्रूण पूरी तरह से तैयार हो जाए तो प्रसव करना ही पड़ेगा नहीं तो मां भी मर जाएगी और बच्चा भी मर जाएगा। वैसा ही रचना के साथ भी है। विचार का बीज जो भीतर पड़ा है वह जब पक जाता है, मंथन पूरा हो जाता है, तो उसको नहीं लिखेंगे तो आप मर जाएंगे। रचना जब भीतर पक जाएगी तो उसे लिखना ही है। लेकिन जब तक वह बीज पका नहीं है तब तक आप लिखने की लाख कोशिश करते रहेंगे कि मैं इसे आज लिख दूंगा… वह हो नहीं पाएगा। इसलिए जब लोग पूछते हैं कि आप (योजना बनाकर) आप इस वर्ष में क्या लिखेंगे- तो मुझे क्या मालूम है कि क्या लिखूंगा। जब कुछ सामने आएगा और भीतर मन में उठेगा। तभी तो प्रक्रिया शुरू होगी। आप बाहर से हजार विषय दें, मैं दूसरे किसी का प्रोजेक्ट नहीं लेता। मेरे भीतर जब कोई चीज उग कर आएगी तो मैं उसे लिखूंगा और पूरी तरह से रमकर लिखूंगा। तो जैसा मैंने बताया ‘रामकथा’ में छह वर्ष लगे। महाभारत पर आधारित ‘महासमर’ में आठ-नौ वर्ष लगे। स्वामी विवेकानंद पर आधारित ‘तोड़ों कारा तोड़ों’ के तो सोलह-सत्रह वर्ष हो चुके हैं और अभी यह पूरा नही हुआ है। तो इतने लंबे समय तक एक रचना आपके भीतर रहती है, विस्तार पाती है और आपको छोड़ती नहीं- तभी यह सब लिखना संभव हो पाता है।
अक्सर पूछा जाता है कि आपने यह विषय चुना? तो मेरा उत्तर होता है- ‘मैंने नही चुना। विषय ने मुझे चुना।’