बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन में शामिल होने की खबरों को फर्जी करार देते हुये इसे एक एजेंडे के तहत भ्रम फैलाने की साजिश बताया और अपने समर्थकों से सावधान रहने की अपील की। मायावती ने बुधवार को ‘एक्स’ पर पोस्ट किया कि सपा नेता रामगोपाल यादव के हवाले से बीएसपी के आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन में शामिल होने के लिए मुलाकात की एक चैनल पर प्रसारित खबर पूरी तरह से गलत, बेबुनियाद व फेक न्यूज है ।

उन्‍होंने कहा कि बार-बार ऐसी मनगढ़न्त खबरों से मीडिया अपनी इमेज खराब करने पर क्यों तुला है। कहीं ये सब किसी एजेण्डे के तहत तो नहीं। मयावती का कहना रहा कि  मीडिया द्वारा ऐसी अनर्गल खबरों का सपा व उनके नेता द्वारा खण्डन नहीं करना क्या यह साबित नहीं करता है कि उस पार्टी की हालत यहाँ उत्तर प्रदेश में काफी बदहाल है और वे भी उस घृणित राजनीति का हिस्सा हैं जो बीएसपी के खिलाफ लगातार सक्रिय है। ऐसी फेक खबरों से पार्टी के लोग सावधान रहें।

अब सवाल ये है कि मायावती आई.एन.डी.आई.ए. से दूरी क्यों बना ली है, क्या उनका इरादा बीजेपी के साथ जाने का है, या फिर अकेले चुनाव लड़कर नुकसान पहुंचाना चाहती हैं लेकिन किसे? इसकी गहराई से पड़ताल करें तो बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने साफ कहा है कि वो इस गठबंधन का हिस्सा नहीं होंगी इसके साथ ही लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया है।  भले ही मायावती विपक्ष से दूरी बनाते हुए लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने की बात कर रही हैं लेकिन वो खुलकर केंद्र सरकार के बचाव में भी आई हैं, इससे पहले भी 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कई मुद्दों पर उन्होंने सरकार का समर्थन किया है।

उनके इन संकेतों से साफ है कि वे या तो भाजपा के साथ जाएंगी या स्‍वतंत्र चुनाव लड़ेंगी। वहीं, उनका विपक्ष को साथ नहीं मिलने के कारण से सबसे ज्यादा नुकसान यूपी में होगा ।  मायावती दलितों की नेता हैं ।  जितना प्रभाव उनका यूपी के दलितों में है ।  बीएसपी का वोट प्रतिशत यूपी में 13 फीसदी के करीब है।  फिर ये मान के भी चलना चाहिए कि मायावती का मन एनडीए से मिल सकता ह। . मायावती ये जरूर सोच सकती हैं कि जब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया जा सकता है तो उन्हें क्यों नहीं । मायावती के साथ आने पर बीजेपी को भी फायदा होगा क्योंकि देश में कुल दलित आबादी 18 -20 प्रतिशत है। बीजेपी इन समुदायों को साधना चाहेगी।

निश्‍चित ही बीएसपी सुप्रीमो मायावती विपक्ष से दूरी बनाते हुए खुलकर केंद्र सरकार के बचाव में आ गईं हैं ।  यह एक तथ्‍य है कि मायावती ने तीन बार बीजेपी के समर्थन में अपनी सरकार बनाई है ।  साल 1995, 1997 और 2002 में बीजेपी के समर्थन में उनकी सरकार बनी, हालांकि तीनों बार उनकी सरकार को गिराने का काम भी बीजेपी ने ही किया। इस दौरान बीएसपी ने कई हिंदी भाषी राज्यों में भी आंशिक कामयाबी दर्ज की ।   मायावती के हाल के कई बयानों से भी बहुत कुछ ज़ाहिर होता है. मायावती अब राजनीतिक नारों से भी पीछा छुड़ाती दिख रही हैं ।  कभी इन्हीं नारों के सहारे वे उत्तर भारत में दलितों और अति पिछड़े वर्गों यानी बहुजन समाज की शीर्ष नेता बनी थीं ।

चुनाव आयोग की एक रिपोर्ट देखें तो उत्तराखंड में बीएसपी का कुल वोट शेयर 4. 70 प्रतिशत है. पंजाब में 1.88 प्रतिशत है। हरियाणा में 2019 के चुनाव से पहले इनेलो और बीएसपी के बीच गठजोड़ रहा।  इनेलो को बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बाद ही मान्यता प्राप्त दल का दर्जा प्राप्त हुआ था। फरवरी 1998 में 12वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में हरियाणा में इनेलो को चार और बीएसपी को एक सीट मिली थी। प्रदेश या बिहार में भले ही मायावती का शासन नहीं रहा है लेकिन उनका एक  समर्थक तबका है, मायावती के उम्मीदवार बिहार में भी जीतते रहे हैं। इस स्थिति में मायावती का आई.एन.डी.आई.ए.  में नहीं जाना निश्‍चित तौर पर माना जाएगा कि विपक्ष को भारी नुकसान जरूर पहुंचानेवाला साबित होगा ।

मायावती के बयान के मायने क्या हैं?

मायावती ने पहले कहा था कि हम किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगे. मायावती ने एनडीए के साथ दूरी बनाए रखी तो वहीं विपक्षी एकजुटता की पूरी कवायद से भी. मायावती के रुख में बदलाव आया है और उन्होंने चुनाव बाद गठबंधन के संकेत दिए हैं तो इसके भी अपने मायने हैं. जिन चार राज्यों में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से तीन में बीजेपी और कांग्रेस मुख्य प्रतिद्वंदी है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले का इतिहास रहा है।

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विधानसभा चुनाव के बाद इन राज्यों में सरकार बीजेपी या कांग्रेस, इन्हीं दोनोों में से किसी दल की बनेगी. ऐसे में अगर बसपा किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन करती है तो निश्चित रूप से वह या तो एनडीए के पाले में खड़ी होगी या फिर विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. के. बसपा जब किसी एक खेमे में खड़ी हो जाएगी फिर लोकसभा चुनाव में उसके लिए न्यूट्रल स्टैंड रखना काफी मुश्किल होगा. बसपा के लिए उस राज्य या दूसरे राज्यों में उसी पार्टी को घेरना, उसपर तीखे वार करना आसान नहीं होगा जिसके साथ वह सरकार चला रही होगी।

क्या हवा का रुख भांपना चाहती हैं मायावती

मायावती उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और महत्वपूर्ण प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रही हैं. सियासी समीकरण कैसे सेट किए जाते हैं? मायावती बखूबी जानती हैं. मायावती का चार राज्यों के चुनाव के बाद गठबंधन की संभावनाओं पर विचार की बात करना किस बात का संकेत है? पहले गठबंधन से इनकार फिर विचार की बात, मायावती के बदले रुख के मायने क्या हैं? मायावती गठबंधन को लेकर फैसले से पहले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माने जा रहे इन चुनावों में हवा का रुख भांप लेना चाहती हैं।

दलित-मुस्लिम की बात, BSP जाएगी किसके साथ?

साल 2007 में सोशल इंजीनियरिंग से चौंका देने वाली बसपा अब नया समीकरण सेट करने की कोशिश कर रही है. मायावती ने अब गठबंधन को लेकर जो बयान दिया है, उसमें भी कहा है कि सरकार ऐसी हो जिसमें दलित-अल्पसंख्यक का उत्थान हो. बसपा ने हाल के यूपी निकाय चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे. बसपा की कोशिश है कि दलित के साथ एकमुश्त मुस्लिम वोट आ जाए तो पार्टी की स्थिति मजबूत हो जाएगी।

यूपी की बात करें तो लोकसभा की 80 सीटों वाले इस सूबे में करीब 21 फीसदी दलित और 20 फीसदी अल्पसंख्यक हैं. ऐसे में अगर दलित और अल्पसंख्यक एकजुट होकर किसी एक पार्टी के पक्ष में चले जाएं तो उसके जीतने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी. मायावती की कोशिश यही समीकरण तैयार करने की है. ऐसे में मायावती के लिए कांग्रेस से गठबंधन मुफीद माना जा रहा है. हालांकि, बसपा कई मौकों पर सत्ताधारी एनडीए के साथ खड़ी नजर आई है. बसपा और बीजेपी गठबंधन कर यूपी में सरकार भी चला चुके हैं. ऐसे में देखना होगा कि बसपा किसके साथ जाएगी।

गठबंधन पर नरम रुख की वजह क्या है?

गठबंधन को लेकर मायावती के रुख में आई नरमी की वजह क्या है? मायावती की पार्टी कभी जिस उत्तर प्रदेश में मजबूत मानी जाती थी, उसी सूबे में उसकी हालत खस्ता हो गई है. साल 2012 के बाद यूपी में बसपा के प्रदर्शन का ग्राफ लगातार गिरता गया. 2022 के यूपी चुनाव में बसपा एक सीट पर सिमट गई थी. वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने 10 सीटें जीती थीं लेकिन तब बसपा, सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरी थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था. मायावती को भी कहीं न कहीं इस बात का एहसास है कि अकेले चुनाव मैदान में उतरने पर बसपा की राह आसान नहीं रहने वाली।

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी से था गठबंधन

बसपा 2018 के छत्तीसगढ़ चुनाव में अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरी थी. हालांकि तब कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना ली थी. पिछले राजस्थान चुनाव में बसपा ने छह सीटें जीती थीं. बसपा ने कांग्रेस सरकार का समर्थन किया था. बाद में बसपा के सभी विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे। (एएमएपी)