राजीव रंजन।

उत्तमचन्द मोहनचन्द रावलपिंडी के एक रईस खानदान के चिराग थे। लन्दन के एक मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा चुके थे। जहाज़ में सीट भी बुक हो गई थी। रवाना होने में कुछ वक्त बाकी था। कलकत्ता में मेडिकल के लिए ज़रूरी शुरुआती कोर्स करने आ गए। कलकत्ता पहुंचकर उत्तमचन्द मोहनचन्द मेहनत से पढ़ने लगे। एक शाम दोस्तों के साथ नाचघर की एक महफ़िल में चले गए। उसकी आवाज़ की लहरों में ऐसे डूबे कि अपनी हस्ती ही भूल गए। डॉक्टरी की पढ़ाई, जहाज़ की सीट, ब्राह्मण परिवार के संस्कार- सब उस तिलिस्म के अंधेरे में गर्त हो गए। बाकी संगी-साथी अपने ठिकानों पर लौट गए, पर मोहन बाबू उसी दहलीज के होकर रह गए।
जद्दनबाई के पेशे में ऐसे दिलफेंक आशिकों की कमी न थी। 26 साल की उम्र में वह दो सम्बन्धों से दो बेटों की मां बन चुकी थी। उसका मकाम इस पेशे से अपने को निकालना था। जद्दनबाई की मां तेरह बरस की मासूम उम्र में विधवा हो गई थीं। ज़मींदारों का खानदान था। बच्ची को विधवा की बेरंग, बेमज़ा ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर किया गया। वह न तो शादी का मतलब समझती थी, न ही पति के मर जाने का। जुल्मों से तंग आकर एक दोपहरी में घर छोड़कर एक काफ़िले में मिल गई।

पहुंचा दी गई उसी कोठे पर, जो ऐसी सताई गई लड़कियों का ठिकाना था। मन ने विद्रोह किया, पर यहां उसे विधवा के दाग़ से दाग़ा नहीं जाता था। गहने, कपड़े, मनचाहा खाना सब मिलता था। अपने-आप नाच-गाने की लय पर थिरकने लगी, गाने लगी। उसी माहौल में सारंगी बजाने वाले मियां जान से विवाह कर लिया। धर्म परिवर्तन हुआ। गृहस्थी बस गई। दो बेटे, एक बेटी और प्रेमी पति साथ-साथ दिन गुजारते गए। बेटी छह वर्ष की ही थी कि एक बेटा और शौहर अल्लाह को प्यारे हो गए। बेटी जद्दनबाई को संगीत सिखाना शुरू किया। तंगहाली में कलकत्ता ले आई। उस समय की मशहूर तवायफ़ गौहरजान की शागिर्द बना दिया। गौहर के मरने के बाद जद्दन बाई ने गाना शुरू किया। इस लम्बी कहानी ने भी मोहन बाबू की निष्ठा पर कोई प्रभाव नहीं डाला। जद्दन बाई की एक हां पर वह परिवार और करियर सब छोड़ने को तैयार बैठे थे। इस अडिग, निःस्वार्थ प्रेम को जद्दन बाई अनदेखा न कर सकी। पर मुसलमान का ब्राह्मण से निकाह कैसे हो! तो मोहन बाबू अब्दुल रशीद बन गए। 1928 में निकाह पढ़ा गया। पंजाब में मोहन बाबू के घर पर ख़बर पहुंची, तो माता-पिता ने जमीन-जायदाद और पुत्र के अधिकारों से उन्हें बेदखल कर दिया। 1929 को जद्दन बाई ने एक लड़की को जन्म दिया। नाम रखा गया फ़ातिमा अब्दुल रशीद, पर मोहन बाबू ने उसे तेजेश्वरी मोहन ही बुलाया।
प्रसिद्ध उर्दू कहानीकार सआदत हसन मंटो ने अपने संस्मरणों की किताब ‘मीना बाज़ार’ में (जिसमें उन्होंने फिल्म जगत से जुड़ी शख्सियतों को याद किया है) नर्गिस पर भी एक अध्याय लिखा है। उसी में वह लिखते हैं- “जद्दनबाई थीं। उनकी मां थीं। उनका मोहनबाबू था। बेबी नर्गिस थी। उसके दो भाई थे। इतना बड़ा कुनबा था, जिसका बोझ सिर्फ़ जद्दनबाई के कन्धों पर था। मोहनबाबू एक बड़े रईसजादे थे। जद्दनबाई के गले के स्वरों और कोकिल-कंठ के जादू में ऐसे उलझे कि दीन-दुनिया का होश न रहा। खूबसूरत थे। शिक्षित थे। स्वस्थ थे। लेकिन ये सब दौलतें जद्दनबाई के दर पर भिखारी बन गईं। जद्दनबाई का उस जमाने में डंका बजता था। बड़े-बड़े ख़ानदानी नवाब और राजे उनके मुजरों पर सोने और चांदी की बारिश करते थे। मगर जब बारिशें थम जातीं और आकाश निखर जाता, तो जद्दनबाई अपने मोहन को सीने से लगा लेतीं कि उसी मोहन के पास उनका दिल था!”

बहरहाल, एक बार इसी बीच जद्दन बीमार पड़ गई। आमदनी रुक गई। मोहन बाबू को किसी फ़ैक्ट्री में लगवाया, पर कुछ दिन बाद छोड़ दिया। अब घर चलाने के लिए वेश्याओं को इत्र-फुलेल बेचने लगे। चंचल लड़कियां उनसे चुहलबाजी करतीं। जद्दन तक बात पहुंची तो बहुत नाराज़ हुई। फिर लॉन्ड्री की दुकान खोली। वहां भी नतीज़ा वही था। जद्दनबाई स्वस्थ होते ही कुन्दन लाल सहगल की प्रेरणा से लाहौर चली आई। रिकॉर्ड बनाने वाली कम्पनी ‘प्लेयर एंड फ़ोटोफ़ोन’ में काम शुरू किया। कोठों पर गूंजने वाली आवाज ग्रामोफ़ोन तक पहुंच गई। मुजरे से हमेशा के लिए नजात पा गई। कुछ समय बाद ‘इन्सान या शैतान’, ‘गोपी चन्द’, ‘सेवासदन’ जैसी फ़िल्मों में अभिनय और गाने का मौका मिला। फिर तो फ़िल्मों से वह ऐसी जुड़ी कि एक वक्त आया, जब उसने कहानी, संगीत, गीत, निर्देशन, प्रोडक्शन-सब दिशाओं में अपना हुनर दिखाया। बम्बई आकर 1935 में ‘संगीत फ़िल्म्स’ के बैनर तले ‘तलाशे हक़’ बनाई। इस फ़िल्म का महत्त्व दो कारणों से है। पहला, जद्दनबाई हिन्दुस्तान की पहली संगीतकार बनीं। और दूसरा, जद्दनबाई और मोहन बाबू की लाडली बेटी नर्गिस ने इसी फिल्म के ज़रिये बेबी रानी के नाम से फ़िल्मों में पहला कदम रखा। ‘बेबी’ नाम घर और नज़दीकी लोगों में बहुत प्रिय हुआ।

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आने वाले दिनों में अभिनय के नए आयाम स्थापित करने वाली नर्गिस हालांकि अभिनेत्री नहीं डॉक्टर बनना चाहती थी। ख़ैर घर में मां का कठोर शासन, 12 साल बड़े भाई अख़्तर की रोक-टोक, छोटे भाई अनवर का प्यार और पिता का दुलार, स्कूल ‘क्वीन मेरीज़’ के दिए जीवन मूल्य उसे एक अभिजात सुन्दर किशोरी बना रहे थे। भाइयों में पलने के कारण वह ‘टॉम ब्वाय’ भी थी। मरीन ड्राइव पर भेलपुरी, आइसक्रीम खाते हुए घूमना, फब्तियां कसने वाले मनचलों को नानी याद दिलाना-उसकी प्रिय हॉबी थी। पढ़ते समय उसका एकाग्र भाव देखने लायक होता। मोहन बाबू खुद जो न कर सके थे, दिल से चाहते थे कि तेजेश्वरी कर ले। वह चाहते थे कि नर्गिस डॉक्टर बने। तेजेश्वरी ने भी उनका सपना साकार करने का संकल्प ले लिया था। लेकिन जद्दनबाई मन-ही-मन उसे अभिनेत्री बनाना चाहती थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद।

सआदत हसन मंटो ‘मीना बाज़ार’ में लिखते है- “नर्गिस ने ऐसे घराने में जन्म लिया था कि उसको येन-केन-प्रकारेण अभिनेत्री बनना ही था। जद्दनबाई के गले में बुढ़ापे का घुंघरू बोल रहा था। उनके दो पुत्र थे, किन्तु उनका सारा ध्यान और सारा प्रेम नर्गिस पर ही केन्द्रित था। उसकी शक्ल व सूरत साधारण थी। गले में सुर की उत्पत्ति की भी कोई सम्भावना न थी, परन्तु जद्दनबाई जानती थीं कि सुर उत्पन्न किया जा सकता है और साधारण शक्ल व सूरत में भी आन्तरिक प्रकाश से, जिसे जौहर कहते हैं, आकर्षण और दिलकशी पैदा की जा सकती है। यही वजह है कि उन्होंने जान मारकर उसकी परवरिश की और कांच के अत्यन्त कोमल और छोटे-छोटे कण जोड़कर अपने सुनहरे स्वप्न को साकार किया।”

जद्दन बाई ने बेबी को अमानत खां साहब और लच्छू महाराज के पास गाना और नृत्य सीखने को कई बार भेजा, लेकिन ‘बेबी’ की अरुचि और बहानों के सामने दोनों दिग्गज हार गए। 14 साल की बेबी रानी के लिए फ़िल्म वाले बार-बार प्रस्ताव लेकर आते। मां सख्ती से मना कर देतीं। पर एक दिन एक बहुत बड़े निर्देशक स्क्रीन टेस्ट के लिए बेबी को स्टूडियो ले जाने के लिए आए। उनके रुतबे के सामने कोई मना न कर पाया। यह शख्स थे महबूब खान। बेबी बहुत रोई। वह एक्ट्रेस नहीं बनना चाहती थी, पर जद्दन बाई के सामने कभी किसी की चली, जो अब चलती! फिल्म का नाम था ‘तकदीर’, जो 1943 में रिलीज हुई।

मोती लाल और चन्द्र मोहन जैसे स्थापित कलाकारों के साथ हीरोइन बनेगी बेबी! बड़े भाई अख्तर को विश्वास नहीं हो रहा था। बेबी को उठाकर खुशी से नाच रहा था। बेबी यह सब देखकर अवाक् थी। क्या सचमुच नायिका बनना इतनी बड़ी बात है? वह सोचने लगी। मां ने शगुन के तौर पर उस समय की हीरोइन और महबूब की पत्नी सरदार अख्तर से पहला मेकअप लगवाया। मरीन ड्राइव पर बिना मतलब घूमने वाली टॉम-ब्वाय एक भद्र महिला बन गई थी। उसका नया नामकरण हुआ। महबूब ने किया। फ़ातिमा रशीद, तेजेश्वरी और बेबी रानी से अब वह नर्गिस बन गई थी। सब कुछ इतनी तेज़ी से हो रहा था। पुरानी जिन्दगी पीछे छूट गई थी।

‘मीनाबाज़ार’ में मंटो का बड़ा दिलचस्प वर्णन करते हैं- “नर्गिस को मैंने काफी दिनों के बाद देखा था। दस-ग्यारह बरस की बच्ची थी, जब मैंने एक-दो फ़िल्मों की नुमाइश में उसे अपनी मां की उंगली के साथ लिपटी देखा था। चुधियाई हुई आंखें, आकर्षणहीन-सा लम्बा चेहरा, सूखी-सूखी टांगें, ऐसा मालूम होता था कि सोकर उठी है या सोनेवाली है। मगर अब वह एक जवान लड़की थी। उम्र ने उसके ख़ाली स्थान भर दिये थे, मगर आंखें वैसी-की-वैसी थीं- छोटी और स्वप्नमयी, बीमार-बीमार – मैंने सोचा, इस ख़याल से उसका नाम नर्गिस उपयुक्त और सही है!

तबीयत में बेहद ही मासूम खलंडरापन था। बार-बार अपनी नाक पोंछती थी, जैसे निरन्तर जुकाम से पीड़ित हो। (‘बरसात’ फ़िल्म में यह बात उसकी अदा के तौर पर पेश की गई है!) किन्तु नर्गिस के उदास-उदास चेहरे से यह स्पष्ट था कि वह अपने अन्दर कलाकारी का जौहर रखती है। होंठों को किसी कदर भींचकर बात करने और मुस्कराने में वैसे एक बनावट थी, मगर साफ़ पता चलता था कि यह बनावट श्रृंगार का रूप धारण करके रहेगी। आख़िर कलाकारी की बुनियादें बनावट ही पर तो निर्मित होती हैं!

एक बात जो विशेष रूप से मैंने महसूस की, वह यह है कि नर्गिस को इस बात का एहसास था कि वह एक दिन बहुत बड़ी स्टार बननेवाली है, स्टार बनकर फ़िल्मी दुनिया पर चमकने वाली है। मगर यह दिन निकट लाने और उसे देखकर प्रसन्न होने की उसे कोई जल्दी नहीं थी।”

बहरहाल, ‘तकदीर’ के बाद एस. फ़ाज़ली की ‘इस्मत’ 1944 में आई। ‘हुमायूं’ में महबूब ने अशोक कुमार के साथ नर्गिस को मौका दिया। मोतीलाल और अशोक कुमार जैसे हीरो के साथ काम करना मायने रखता था। इस फ़िल्म पर साम्प्रदायिकता के आरोप लगे। नर्गिस के संस्कारों में धार्मिक कट्टरता के लिए कोई जगह न थी, फिर भी कई बार उसे इस तरह की तंगदिली का सामना करना पड़ा।

1947 में ‘रोमियो जूलियट’ आई। फ़िल्म संसार के समानान्तर ही नर्गिस की जिन्दगी में एक और कहानी चल रही थी। ‘रोमियो जूलियट’ की शूटिंग के लिए पूना जाना हुआ। वहां ‘मेडिकल कोर’ का कैप्टन, अंसारी परिवार के सम्पर्क में आया। उसके आकर्षक व्यक्तित्व से मोहन बाबू को जैसे एक दुर्लभ अवसर मिल गया। बेटी के लिए पढ़ा-लिखा सुसंस्कृत पति चाहते थे वे। रोज उसे घर पर बुलाना शुरू किया। नर्गिस और अंसारी को मिलने का भरपूर मौका देते। दोनों में प्रेम बढ़ने लगा। अंसारी ने नर्गिस को शादी का पैग़ाम दे डाला। खुशी से पागल हुई नर्गिस सीधी मां के पास पहुँची। जद्दन बाई को अपना संसार हिलता हुआ नज़र आने लगा। अभी-अभी तो गृहस्थी में आर्थिक ठहराव आया था। और शादी? परिवार का क्या होगा। जद्दन बाई ने पैंतरा बदला। ऐसी आग उगली कि बाप-बेटी का सांस लेना मुश्किल हो गया। “अंसारी की हिम्मत कैसे हुई ! मैं मर गई थी क्या? उसके मां-बाप कहां हैं, जो खुद पैग़ाम लेकर आया। ऐसे छिछोरे का मुंह नहीं देखने दूँगी। अब आया तो चीर कर रख दूंगी।” उस दिन के बाद अंसारी ने सचमुच इस ओर का रुख नहीं किया। पहले प्यार की टूटन से तड़पती रही नर्गिस, पर मुंह नहीं खोला। एक बार छुपाकर अंसारी को चिट्ठी लिखी- ‘चलो भाग चलें, शादी कर लें।‘ अंसारी का दिल बुझ चुका था, अब अक्ल बोल रही थी, लिखा- ‘तुमसे मां-बाप को बहुत उम्मीदें हैं। तुम अल्हड़ हो। इस तरह भाग कर मैं भी अपना भविष्य मिट्टी में नहीं मिलाना चाहता।’

फ़िल्मों में शोहरत और कामयाबी मिल रही थी। मित्रों की कमी न थी। इस सबके बावजूद वह अकेली थी। बीमार पिता को उदास देखती तो तसल्ली देती- “आप मेरी शादी देखेंगे। मेरे बच्चे इस आंगन में खेलेंगे।” समय ने धीरे-धीरे जख्मों को भर दिया। एक बार फिर दिल में प्यार ने करवट ली। प्रिंस पृथ्वीसिंह के बेटे ‘होडसी’ से मुलाकात हुई। उसके वैभव ने जद्दनबाई को लुभाया। परिवारों का भी मिलना-जुलना रहा। क़ायदे से शादी का सन्देशा गया, तो पृथ्वीसिंह ने कूटनीतिज्ञ की तरह चतुराई से धन्यवाद दिया। अन्दर-ही-अन्दर चुपचाप बेटे को पढ़ाई के बहाने बाहर भेज दिया। जद्दनबाई तिलमिला कर रह गई। अब नर्गिस के मन में बैठ गया कि गाने वाली की बेटी और अभिनेत्री से कोई क्यों शादी करेगा! भाग्य के लेखे को स्वीकार करके वह अपने 12 भतीजे-भतीजियों के बीच मग्न रहने लगी। उनकी हर ज़िम्मेदारी को उसने ओढ़ लिया।

बाद के वर्षों में नर्गिस की इंदिरा गांधी से मित्रता हुई। पति-पत्नी दोनों का इन्दिरा गांधी पर अन्धविश्वास था। इमरजेंसी के दिनों में और चुनाव में हारने के समय सुनील दत्त और नर्गिस अपने सब काम छोड़कर मदद के लिए आगे आए। इन्हीं दिनों (1976) में नर्गिस को जीवन का बेहद कटु अनुभव हुआ। वह लंदन गई हुई थी। वहाँ के ‘मार्क एंड स्पैंसर’ स्टोर में गईं। कुछ खरीददारी की। आते-आते जुराबों का जोड़ा उठाया। उसकी कीमत चुकाना भूल गई। बाहर निकलते ही सुरक्षाकर्मियों ने ‘शॉप लिफ्टिंग’ के जुर्म में पकड़ लिया। नर्गिस ने बहुत अफ़सोस जताया, पर सुनवाई नहीं हुई। एयर इंडिया के ऑफ़िस में ले जाया गया। जार-जार रोती हुई नर्गिस को कोई चुप नहीं करवा पा रहा था। सौभाग्य से उस समय के डेप्यूटी हाई कमिश्नर नटवर सिंह, ब्रिटिश फॉरेन ऑफ़िस में थे। उन्होंने वहां के अधिकारी से कहा कि भारत की एलिस्बेथ टेलर को शॉप लिफ्टिंग के जुर्म में पकड़ा गया है। दूसरे दिन नर्गिस को कोर्ट में तो हाजिर होना पड़ा, पर माफ़ी मांगने पर मुक्ति मिल गई।

नर्गिस के जीवन में राजकपूर का प्रवेश बड़े नाटकीय रूप में हुआ। राजकपूर ने ‘आग’ की शूटिंग के लिए ‘फेमस स्टूडियो’ के बारे में पूछताछ की। पता चला जद्दनबाई ‘रोमियो-जूलियट’ की शूटिंग वहीं कर रही हैं। राज स्टूडियो पहुंचे तो पैकअप हो चुका था। वह जानना चाहते थे कि स्टूडियो में शूटिंग के लिए क्या-क्या सुविधाएं हैं। वह मरीन ड्राइव पर जद्दनबाई के घर चले गए। दरवाजा खोला नर्गिस ने। उसके हाथ बेसन से सने थे। सकपका कर माथे पर आए बालों को ठीक किया, तो वहां भी बेसन लग गया। जद्दनबाई तो मिली नहीं, नर्गिस की उस छवि को वह आंखों और दिल में संभालकर ले आए। वह जानते थे कि नर्गिस फ़िल्मों में नाम पा चुकी है और अभी खुद का नाम पृथ्वीराज कपूर के बेटे के रूप में ही जाना जाता है। उन्होंने तय किया, अपनी फ़िल्म ‘आग’ में नर्गिस को कैसे भी लेना ही होगा। वह सीधे इन्द्रराज आनन्द के पास गए। एक और लड़की को पटकथा में डालना ही होगा। शूटिंग के लिए तैयार पटकथा में इस तरह की तबदीली पटकथा लेखक ने बड़ी मुश्किल से की। ‘आग’ में नर्गिस नौवीं रील के बाद दिखाई पड़ी। राज ने नर्गिस से पहली मुलाकात को करीब ढाई दशक बाद ‘बॉबी’ में डिम्पल पर फ़िल्मा कर दुबारा जिया। नर्गिस ने भी अपनी हमराज़ नीलम को राज से हुई भेंट के बारे में बताते हुए कहा था, ‘नीली आंखों वाला पिंकी’।

यह रिश्ता फ़िल्मों के साथ-साथ निजी जिन्दगी में भी उतरता गया। 16 फ़िल्मों में दोनों एक साथ आए। ‘आग’, ‘अन्दाज’, ‘बरसात’, ‘जान-पहचान’, ‘आवारा’, ‘अनहोनी’, ‘श्री 420’ आदि में नर्गिस अभिनय नहीं कर रही थी, उन भूमिकाओं को जी रही थी। देश-विदेश में दोनों का साथ रहना अब चर्चा का विषय बनने लगा था। पत्र-पत्रिकाओं में नर्गिस को ‘होम ब्रेकर’ कहा जाने लगा। राजकपूर पर भी परिवार का दबाव बढ़ने लगा और धीरे-धीरे इन दबावों का असर राज पर दिखाई देने लगा। अक्सर राज और नर्गिस में झड़पें होतीं। कुछ लोगों का कहना है कि नए साल पर एक बार राज ने मंगलसूत्र भी पहनाया था, पर समाज की स्वीकृति के बिना उसकी क्या हैसियत थी। उन दिनों एक अफवाह यह भी थी कि नर्गिस ने गृहमन्त्री मोरारजी देसाई के पास जाकर विवाह की अनुमति मांगी थी, पर तिरस्कार ही मिला। वह हताश हो गई थीं। एक दिन यह रिश्ता ख़त्म हो गया।

ऐसे ही पलों में महबूब की ‘मदर इंडिया’ का प्रस्ताव आया। नर्गिस ने हामी भर दी। अपने बूते पर बिना राज के अपना हुनर दिखाकर खोया आत्मविश्वास लौटा। एक पुरुष के लिए उसने मधुबाला और मीना कुमारी की तरह अपने को फ़ना नहीं किया। ज़िन्दगी के प्रवाह को दूसरा मोड़ देकर आगे बढ़ गई। जब मदर इंडिया के सेट पर सुनील दत्त ने नर्गिस के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उसने स्वीकीर कर लिया। बहरहाल, ‘तकदीर’ से महबूब नर्गिस को फ़िल्मी दुनिया में लाए थे और उनकी ‘मदर इंडिया’ से ही नर्गिस को अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

3 मई, 1981 को 52 वर्ष की आयु में नर्गिस का देहावसान हो गया। लेकिन वह अपनी फिल्मों के ज़रिये आज भी हमारे बीच मौजूद हैं।

(इस लेख में दी गई ज्यादातर जानकारी प्रख्यात लेखिका डॉ. कानन झींगन की पुस्तक ‘सिने जगत की रश्मियां’ से ली गई हैं।)