शीर्ष अदालत को अपने ही फैसले क्यों पलटने पड़ रहे
प्रदीप सिंह।
जवाबदेही एक ऐसा शब्द है जिससे देश चलते हैं, समाज चलता है और समाज एवं देश की संस्थाएं चलती हैं। जवाबदेही न हो तो संस्थाएं बेलगाम हो जाती हैं। लेकिन अपने देश में तो बड़ी विचित्र सी स्थिति हो रही है।
बहुत पुरानी बात नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने फैसला दिया था कि गवर्नर लंबे समय तक किसी बिल को मंजूरी देने से रोक नहीं सकते या लटका नहीं सकते और अगर विधानसभा ने बिल को दूसरी बार पास कर दिया है तो उसे वह राष्ट्रपति के पास भी नहीं भेज सकते। उनको मंजूरी देनी ही पड़ेगी। सुप्रीम कोर्ट यहीं तक नहीं रुका। उसने तीन महीने की समय सीमा गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए तय कर दी कि इस अवधि के अंदर आपको मंजूरी देनी पड़ेगी। अगर आप मंजूरी नहीं देते हैं तो मान लिया जाएगा कि मंजूरी मिल गई।
उस समय इस फैसले को लेकर खूब आलोचना हुई थी। पहली बात तो यह कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जो यह कहती हो कि सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार है कि वह गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए फैसला लेने की समय सीमा तय कर सके। तो यह संविधान के दायरे से बाहर दिया गया फैसला था और कई संविधान विशेषज्ञों ने कहा कि आप संविधान को ही बदल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार नहीं है। संविधान में कोई भी संशोधन केवल इस देश की संसद कर सकती है। संवैधानिक प्रावधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट, संसद जो कानून बनाती है,उसकी परीक्षा कर सकता है। उसकी स्क्रूटनी कर सकता है कि यह संवैधानिक मापदंडों पर खरे उतरते हैं या नहीं। संविधान बनाना,संविधान में जो प्रोविजन नहीं हैं उसको लागू कर देना या उसके अनुसार फैसला कर देना, यह सर्वोच्च अदालत के अधिकार के बाहर है। लेकिन उन दो जजों पर इन सब बातों का कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने फैसला सुना दिया।
अब गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की ही एक दूसरी बेंच ने कहा है कि यह फैसला संविधान के दायरे से बाहर है। खासतौर से जो शक्तियों का बंटवारा है सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसके विरुद्ध है। राष्ट्रपति और गवर्नर के फैसला लेने की समय सीमा अदालत तय नहीं कर सकती। अगर बहुत देर हो तो भी अदालत उस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। अगर मान लीजिए कि देर बहुत ज्यादा हो तो अदालत केवल इतना दखल दे सकती है कि वह गवर्नर को कहे कि उचित समय में फैसला लें, लेकिन क्या फैसला लें? कितने समय में फैसला लें? यह तय करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं है।
अब देखिए यह तो संविधान में बड़ा स्पष्ट रूप से लिखा है। शक्तियों का जो विभाजन हो वह भी बड़ा स्पष्ट है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के उन दो जजों को संवैधानिक व्यवस्था के बारे में पता न हो, यह कैसे कोई मान सकता है? फिर भी उन्होंने ऐसा फैसला क्यों दिया? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट मनमानी पर उतर आया है। उसे लगता है कि वह जो भी फैसला दे सकता है- वह कानून बना सकता है- वह संविधान बना सकता है। वह सरकार को निर्देश दे सकता है कि इस बारे में इस तरह का फैसला करें। बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की जवाबदेही कौन तय करेगा। अब सुप्रीम कोर्ट ने तो यह कह दिया कि जो पुराना फैसला था, वह गलत था। संविधान सम्मत नहीं था। तो अब सवाल यह है कि ऐसा फैसला दिया ही क्यों गया जो संविधान सम्मत नहीं था? और जिन लोगों ने दिया उनकी जवाबदेही क्या है? संवैधानिक व्यवस्था या संविधान की व्याख्या में मतभेद हो सकते हैं। एक बेंच उसकी व्याख्या किसी तरह से कर सकती है और दूसरी किसी और तरह से कर सकती है।

संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर की जो थ्योरी आई थी,उसमें फैसला 13 जजों की बेंच ने दिया था। फैसला 7-6 से आया था। यानी छह जज उसके खिलाफ थे। वह बात समझ में आती है कि अलग-अलग प्रावधानों को लेकर अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन जो संविधान में है ही नहीं,वह व्यवस्था आप कैसे दे सकते हैं? और अगर आपने दे दी तो फिर आपकी जवाबदेही क्या है? क्या सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि उन जजों से पूछें। ये बात केवल इस मामले की नहीं है। यह भविष्य की दृष्टि से है। सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर विचार करना चाहिए कि पिछले कुछ सालों की अवधि के दौरान उसने जो फैसले दिए, उनमें से कितने सुप्रीम कोर्ट ने ही पलट दिए। लोअर कोर्ट का फैसला हाईकोर्ट पलट दे,यह समझ में आता है। हाईकोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट पलट दे, यह समझ में आता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसले को पलट दे। ये रेयर ऑफ द रेयरेस्ट केस में तो संभव हो सकता है कि उस समय कुछ पहलू थे जिन पर विचार नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट एक कॉन्स्टिट्यूशनल कोर्ट है। हाईकोर्ट भी कॉन्सिट्यूशनल कोर्ट है। उनकी जिम्मेदारी और उनका अधिकार क्षेत्र संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करना और सरकार एवं संसद द्वारा बनाए गए कानून और नीतियों के बारे में यह फैसला देना है कि वे संविधान सम्मत हैं या नहीं। संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं। संविधान लिखने या संविधान में नए प्रावधान जोड़ने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ऐसा कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट में अगर इस तरह की बातें बार-बार हो रही हैं तो यह एक ही बात की ओर इशारा करता है कि सुप्रीम कोर्ट में रिफॉर्म्स की सख्त जरूरत है। बल्कि हमारी पूरी न्याय व्यवस्था में ही सुधार की जरूरत है। दुनिया में कहीं कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं है जहां जज ही जज को अपॉइंट करते हों। ऐसा केवल भारत में है। सुप्रीम कोर्ट को सरकार से बड़ी तकलीफ है। जो चुनी हुई सरकार है, जो जनता के प्रति जवाबदेह है, जो मैंडेट लेने के लिए हर 5 साल में जनता के सामने जाती है। सुप्रीम कोर्ट की ऐसी कोई जवाबदेही नहीं है। आपको डॉक्टर अंबेडकर की बात याद दिलाऊं। जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को अधिकार देने की बात आ रही थी तब संविधान सभा में ऐसे लोग थे जिनका मानना था कि वीटो का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को होना चाहिए। प्रधानमंत्री को नहीं होना चाहिए। तब डॉ.अंबेडकर ने कहा था कि वह दिन बहुत बुरा होगा। आप एक अनइलेक्टेड व्यक्ति को अधिकार देने और भरोसा करने को तैयार हैं कि वह सारे राग द्वेष से ऊपर होगा। वह हर तरह की पारदर्शिता बरतेगा। उसके मन में कोई विद्वेष नहीं होगा और वह कोई गलती नहीं कर सकता। लेकिन जिस प्रधानमंत्री को देश के करोड़ों लोग चुनकर भेजते हैं,उसको वीटो पावर देने को तैयार नहीं हैं। अगर ऐसा होता है तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा। तभी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को वीटो पावर नहीं दी गई। लेकिन अब दो जजेस की पीठ तक ऐसे मामलों में फैसला देती है जिस मामले को सिर्फ संविधान पीठ (कम से कम पांच जज हों) को ही सुनना चाहिए। वह न केवल फैसला देती है बल्कि संविधान को रीराइट करने की कोशिश होती है। तो अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा करेगा और बार-बार करेगा तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि दूसरी संवैधानिक संस्थाएं जवाबदेही के रास्ते पर चलेंगी। तब आप राजनीतिक दलों और राजनीतिक नेताओं से जवाबदेही की उम्मीद कैसे करेंगे? इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजनीति में आज राहुल गांधी हैं। वह कोई भी आरोप किसी पर लगा देते हैं। चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उन्होंने किसी को नहीं छोड़ा है जिसकी नीयत पर सवाल न उठाया हो। सवाल यह है कि राहुल गांधी या ऐसे नेताओं की कोई जवाबदेही होगी कि नहीं? अगर वे संवैधानिक संस्थाओं पर आरोप लगा रहे हैं तो उनसे कहा जाना चाहिए कि आपको प्रमाण देना पड़ेगा। केवल आरोप लगाकर भाग जाएं, यह नहीं होगा क्योंकि आप संदेह पैदा कर रहे हैं। संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसकी चिंता नहीं करता।
संविधान में जो व्यवस्था नहीं है, संविधान में जो लिखा नहीं है, उसके अनुसार सुप्रीम कोर्ट की कोई खंडपीठ फैसला सुनाएगी तो उस पर सुप्रीम कोर्ट स्वत:संज्ञान नहीं लेता। सुप्रीम कोर्ट ने क्यों इतने दिन तक इंतजार किया कि राष्ट्रपति पत्र लिखें तब उस पर सुनवाई होगी और फैसला होगा। जिस दिन दो जजेस की पीठ का फैसला आया, उसी दिन सीजेआई या सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम ने क्यों नहीं स्वतः संज्ञान लिया। जवाबदेही तो तय करनी पड़ेगी। नहीं तो एक दिन जनता सड़क पर आकर जवाब मांगेगी और सभी से मांगेगी,जो भी जवाबदेही से भाग रहे हैं। सरकार को या नेताओं को तो हर 5 साल में बताना पड़ता है कि उन्होंने जो वादा किया था पूरा क्यों नहीं किया? उन्होंने जो घोषणा की थी,जो नीतियां बनाई थीं,उनको लागू क्यों नहीं किया? नीतियां लागू कीं तो उसमें गड़बड़ी क्यों हुई? लेकिन इन अनइलेक्टेड संस्थाओं का क्या? इनकी जवाबदेही कैसे तय हो? और यह सेल्फ रेगुलेशन से बड़ा धोखा कुछ नहीं है। अपने देश में कोई ऐसी संस्था नहीं है जो सेल्फ रेगुलेशन का प्रभावी इस्तेमाल करती हो। आपको नियम बनाने पड़ेंगे। संवैधानिक संस्था है तो उसके लिए संविधान में व्यवस्था करनी पड़ेगी। बिना उसके आप एक तरह से पूरे जनतंत्र और पूरे देश को खतरे में डाल रहे हैं।
चंद दिन पहले ही मैंने जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट को क्या अधिकार है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ जिस प्रदेश का मामला हो,वहां वह तय करे कि कब चुनाव कराए जाएं। सुप्रीम कोर्ट यह कहे कि चुनाव होना चाहिए,लेकिन सुप्रीम कोर्ट तारीख तय करे कि इस तारीख तक चुनाव कराइए। सरकार को मालूम है कि वहां की आंतरिक सुरक्षा की स्थिति क्या है? देश के लिए किस तरह के खतरे हैं? इनकी कोई जानकारी सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं है। फिर भी वह फैसला सुनाएगा कि इस तारीख तक चुनाव कराइए। उस चुनाव का नतीजा क्या हुआ? उस चुनाव का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। सुप्रीम कोर्ट का कोई जज उसकी जवाबदेही लेगा क्या? और अभी तो यह शुरुआत हुई है। 5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने जो उपलब्धि हासिल की थी,उस सबको नेगेट करने का काम सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने किया है।
तो आखिर में फिर सवाल वही है जवाबदेही का। आपने यह फैसला क्यों दिया? और गुरुवार को जो फैसला आया है वह क्यों आया है? पहले का फैसला गलत था तो उस गलती का जिम्मेदार कौन है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



