#pradepsinghप्रदीप सिंह । 

वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का एक नारा दिया था। कांग्रेस मुक्त भारत का उनका प्रोजेक्ट देश के मतदाताओं की मदद से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। पिछले साढ़े नौ-दस साल में इस दिशा में काफी प्रगति हो चुकी है। मुझे लगता है कि इससे पहले गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस या गांधी परिवार मुक्त देश बन जाएगा। इसके कई कारण हैं जिसके बारे में आगे विस्तार से बताऊंगा। 

सबसे पहले बात करते हैं सोनिया गांधी की। वह 1998 में सक्रिय राजनीति में आई थीं। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद वह सक्रिय राजनीति में तो नहीं आईं, लेकिन कांग्रेस पार्टी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार के फैसले वह करती रहीं। राव को प्रधानमंत्री बनवाने से लेकर उनकी दुर्गति करने तक सब कुछ सार्वजनिक है। सक्रिय राजनीति में आने के बाद उन्होंने मनमोहन सिंह को किस तरह से प्रधानमंत्री बनाया और 2004 से 2014 तक कैसे उनकी सरकार चलवाई। उनकी इच्छा ही सरकार का निर्देश होती थी। मनमोहन सरकार के लिए वह राजाज्ञा की तरह होती थी। 2004 से 2014 के बीच में उनकी ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई थी। 2014 में जब कांग्रेस पार्टी हारी, तो उसके बाद से गांधी परिवार का पराभव शुरू हुआ और उसका असर देश की राजनीति और पार्टी पर पड़ा।

सोनिया की गलतबयानी

परिवार के तीन सदस्यों सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा में से दो सांसद हैं और दोनों के मामले  एथिक्स कमेटी में जा चुके हैं। आप अंदाजा लगाइए कि भारत में 543 लोकसभा के सदस्य हैं और 245 राज्यसभा के सदस्य हैं। उनमें से कितने के मामले एथिक्स कमेटी में जाते हैं। एथिक्स कमेटी में जाने का मतलब है कि आपने कुछ ऐसा किया है, कुछ ऐसी गलत जानकारी दी है जो आपके सांसद होने के नाते अपेक्षित नहीं थी। इसके बारे में आपके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। पहला मामला गया सोनिया गांधी का। उन्होंने अमेठी से चुनाव लड़ते हुए अपने हलफनामे में कहा कि वह कैंब्रिज से पढ़ी हुई हैं, जो एक झूठ था। कैंब्रिज से पढ़ने का मतलब लगाया गया कि कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़ी हुई हैं, लेकिन उन्होंने कैंब्रिज शहर के इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स चलाने वाले एक संस्थान से इंग्लिश स्पीकिंग का कोर्स किया था। उन्होंने 11वीं तक की पढ़ाई की है। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने उनके चुनावी हलफनामे के मुद्दे को संसद में उठाया, तो यह मामला एथिक्स कमेटी के पास भेजा गया। उस समय लोकसभा की एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष थे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। चंद्रशेखर ने मामले की सुनवाई को, तो उनको समझ में आ गया कि मामला क्या है। उनको यह भी पता चल गया कि अगर इसकी सुनवाई ईमानदारी से की गई और पूरी सुनवाई की गई तो सोनिया गांधी की सदस्यता चली जाएगी। उनकी प्रतिष्ठा भी चली जाएगी। उन्होंने सुब्रमण्यम स्वामी पर दबाव डाला और इस मामले को खत्म करवा दिया। सोनिया गांधी किसी सजा से बच गई। उनकी लोकसभा की सदस्यता जा सकती थी, उनके चुनाव लड़ने पर रोक लग सकती थी, लेकिन इससे बचा लिया गया क्योंकि उनके नाम के साथ गांधी सरनेम जुड़ा हुआ था। यह जो सेंस ऑफ इनटाइटलमेंट था उसने उनको बचा लिया।

राहुल ने भी बोला झूठ

राहुल गांधी का मामला भी एथिक्स कमेटी में गया। उसे भी डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ही ले गए। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी ने इंग्लैंड में एक कंपनी बनाई। वहां का नियम है कि जो वहां का नागरिक है वही कंपनी बन सकता है। उन्होंने कंपनी बनाते हुए लिखा था कि वे ब्रिटिश नागरिक हैं। भारत का कोई नागरिक अगर दूसरे देश की नागरिकता लेता है तो उसकी भारत की नागरिकता स्वतः ही समाप्त हो जाती है। सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि राहुल गांधी भारत के नागरिक ही नहीं हैं। इसलिए न तो वे चुनाव लड़ सकते हैं और न ही किसी सदन के सदस्य हो सकते हैं। यह मामला एथिक्स कमेटी में गया और इस बार एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष थे भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी। उन्होंने राहुल गांधी को बुलाया और पूछताछ की। राहुल गांधी ने जो जवाब दिया वह सुनकर आप हैरान रह जाएंगे। उनसे पूछा गया था कि इस फॉर्म पर आपके दस्तखत हैं, तो उन्होंने कहा कि इस फॉर्म पर मेरे दस्तखत हैं या नहीं, यह सुब्रमण्यम स्वामी साबित करे। सवाल यह है कि वह फॉर्म अपने भरा या नहीं भरा, या फिर आपके फर्जी दस्तखत किसी ने किए, यह साबित करना तो आपका काम है। मगर फिर वही गांधी सरनेम काम आया और इस मामले को भी खत्म कर दिया गया। राहुल गांधी की सदस्यता भी बच गई। जहां तक नैतिकता का मामला है, तो इन दो घटनाओं से इस परिवार के बारे में आप समझ लीजिए।

भ्रष्टाचार का मामला

Gujarat Elections 2022: पत्रकारिता से लेकर वकालत तक, रिकॉर्ड जीत से लेकर KHAM समीकरण तक के लिए Madhav Singh Solanki की कहानी जानिए - gujarat assembly elections 2022 former chief minister ...

तीसरा बड़ा मामला भ्रष्टाचार का है। 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार रहने के दौरान जो भ्रष्टाचार हुए वह तो अलग है। 1991 से 1996 तक जब बोफोर्स का मामला चल रहा था, तो उस समय के विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी ने स्वीडन के रक्षा मंत्री को एक पत्र लिखकर बोफोर्स मामले की जांच को बंद करने के लिए कहा था। इस सौदे में क्वात्रोकी को जो दलाली दी गई थी वह पैसा उसके इंग्लैंड के अकाउंट में था। उस अकाउंट को जांच एजेंसी के अनुरोध पर फ्रीज कर दिया गया था जिसे रिलीज कराया भारत सरकार ने। अभी जो मामला चल रहा है वह नेशनल हेराल्ड का है। यह साढ़े पांच हजार करोड़ से ज्यादा के मनी लॉन्ड्रिंग का केस है। इस मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों जमानत पर हैं। यह उनका इतिहास, अतीत और वर्तमान है। ये मामले गैर राजनीतिक हैं। राजनीतिक मामले की बात करें तो 2014 से लगातार वोट दिलाने की क्षमता इस परिवार की घटती जा रही है।

प्रियंका नहीं दिखा पाईं कमाल

परिवार की तीसरी सदस्य प्रियंका वाड्रा के बारे में कहा गया कि बंद मुट्ठी लाख की, जिस दिन खुलेगी देश में तूफान आ जाएगा क्योंकि वह दूसरी इंदिरा गांधी हैं, इंदिरा गांधी जैसी लगती हैं, उन जैसी साड़ी पहनती हैं। गलतफहमी की पराकाष्ठा देखिए कि यह सोचकर कि इंदिरा गांधी जैसी लगती हैं, उन जैसी साड़ी पहनती हैं, इसलिए लोग वोट देने लगेंगे। इस देश के मतदाता इतने नासमझ हैं, यह बात कोई परम नासमझ ही मान सकता है, इस पर विश्वास कर सकता है। कांग्रेस पार्टी और पार्टी नेतृत्व ने इस पर विश्वास किया और देश को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की। प्रियंका वाड्रा जब राजनीति में आईं तो 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश सहित प्रदेश के दो तिहाई हिस्सों का इंचार्ज बनाया गया। यह सोचकर कि वह चमत्कार करेंगी। आपको याद होगा कि 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान राजनाथ सिंह ने फैजाबाद में एक बयान दिया था कि कांग्रेस बूढ़ी हो गई है। प्रियंका वाड्रा ने उसके जवाब में मीडिया के लोगों से यह सवाल किया था कि क्या मैं आपको बूढ़ी लगती हूं। साथ ही चुनौती देने वाले स्वर में कहा था कि क्या मैं राजनीति में आऊं। उनके परिवार के लोग, उनके पति और करीबी रणनीतिकार यह मानते थे कि वह राहुल गांधी से ज्यादा सफल साबित होंगी। प्रियंका वाड्रा को 2019 में इंचार्ज बनाया गया, नतीजा क्या हुआ सबके समाने है। गांधी परिवार के तीनों सदस्य मिलकर भी अमेठी की अपनी पारिवारिक सीट नहीं बचा पाए।

मुलायम थे मददगार

मैं पहले भी बता चुका हूं कि 2014 के चुनाव में अमेठी से राहुल गांधी को जिताया था मुलायम सिंह यादव ने।  मतदान से तीन-चार दिन पहले सोनिया गांधी ने मुलायम सिंह को फोन किया था और उनसे मदद मांगी थी। हालांकि, समाजवादी पार्टी पहले से समर्थन कर रही थी और बहुजन समाजवादी पार्टी ने भी उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था, फिर भी राहुल गांधी की स्थिति खराब थी। मुलायम सिंह यादव ने पूरा संसाधन लगा दिया था। उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस पार्टी की। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दोनों ने किसी तरह से राहुल गांधी को चुनाव जिताया, लेकिन 2014 में जीतने के बाद राहुल गांधी पलटकर अमेठी नहीं गए। उनको लगा कि यहां हमें कौन हरा सकता है। यह अहंकार उनको 2019 में ले डूबा। 2014 में चुनाव हारने के बाद भी स्मृति ईरानी लगातार अमेठी जाती रहीं। जनता से उन्होंने अपना संपर्क बनाए रखा। इसका फायदा उन्हें मिला 2019 में और उन्होंने राहुल गांधी को चुनाव में हरा दिया। उत्तर प्रदेश की एकमात्र सीट जो कांग्रेस पार्टी जीती वह रायबरेली की थी। मेरा मानना है कि रायबरेली की सीट 2019 में सोनिया गांधी इसलिए जीतीं क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने उस सीट पर गंभीरता से लड़ाई नहीं लड़ी। सारा ध्यान अमेठी और बाकी सीटों पर दिया। टिकट भी ऐसे व्यक्ति को दिया जो कुछ दिन पहले तक कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी का वफादार रहा था। उसका कुछ असर हुआ नहीं और सोनिया गांधी जीत गईं। अब उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो हो सकता है कि वह इस बार लोकसभा का चुनाव न लड़े। फिर सवाल यह है कि रायबरेली से कौन लड़ेगा। इसके लिए प्रियंका वाड्रा का नाम लिया जा रहा है।

प्रियंका पर जनता ने नहीं जताया भरोसा

प्रियंका वाड्रा के बारे में थोड़ा और बता दूं। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्हें प्रदेश का पूर्ण रूप से प्रभारी बना दिया गया। उन्होंने नारा दिया- लड़की हूं लड़ सकती हूं। यह माहौल बनाया गया कि प्रियंका की आंधी चल रही है और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार आने वाली है। चाहे वह हाथरस का मामला हो या उन्नाव का मामला हो, हर जगह प्रियंका वाड्रा दिखाई दे रही थीं। मीडिया मैनेजमेंट ऐसा था कि लग रहा था कि उत्तर प्रदेश का अगर सबसे बड़ा कोई नेता है तो वह प्रियंका वाड्रा हैं। यह मुट्ठी जो बंद थी, खुलेगी तो लाख की होगी। मुट्ठी 2022 में खुली तो खाक की हो गई। 2012 में कांग्रेस पार्टी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 12% वोट मिले थे और भारतीय जनता पार्टी को 15%। 2022 में भारतीय जनता पार्टी को 41% वोट मिला और कांग्रेस पार्टी को 2.23% वोट। यह है प्रियंका वाड्रा, राहुल गांधी और सोनिया गांधी का पूरे उत्तर प्रदेश में योगदान। उत्तर प्रदेश इस परिवार की कर्मभूमि रही है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी सबने यहीं से राजनीति की, यहीं से लोकसभा में पहुंचे। इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी की हालत गांधी परिवार के इन तीन लोगों के रहते हुए हुई और राहुल गांधी को लोकसभा में पहुंचने के लिए वायानाड जाना पड़ा। वह वायनाड में भी कांग्रेस के भरोसे नहीं, इंडियन मुस्लिम लीग के भरोसे जीते हैं। पूरे देश में लोकसभा की 543 सीटों में से एक भी सीट गांधी परिवार के लिए सुरक्षित नहीं है। इस बार रायबरेली भी सुरक्षित नहीं है। सोनिया गांधी लड़े तब भी, प्रियंका वाड्रा लड़े तब भी, जीतना बहुत कठिन है। जीतना संभव नहीं होगा अगर समाजवादी पार्टी साथ नहीं देगी। मगर क्या समाजवादी पार्टी साथ देगी जिसका अभी तक जवाब नहीं आया है।

सुरक्षित सीट के लिए तरसा परिवार

हालांकि, कुछ समय पहले समाजवादी पार्टी यह कह चुकी थी कि रायबरेली से वह अपना उम्मीदवार खड़ा करेगी, लेकिन यह विपक्षी दलों का गठबंधन बनने से पहले की बात है। गठबंधन में सीटों का तालमेल होगा तो  अमेठी और रायबरेली की सीट तो होगी ही। गठबंधन में सीट दे देना और उस सीट से जीतने के लिए अपने लोगों को लगाना, दोनों अलग-अलग चीज है। क्या अखिलेश यादव चाहेंगे कि गांधी परिवार उत्तर प्रदेश में मजबूत हो। रायबरेली और अमेठी की सीट गांधी परिवार के लोग जीतते हैं, तो यह संदेश जा सकता है कि उन्होंने अपना ध्वस्त गढ़ फिर हासिल कर लिया है। इस बार बहुत कुछ निर्भर करेगा कि राहुल गांधी वायनाड के साथ-साथ अमेठी से भी चुनाव लड़ते हैं या नहीं लड़ते हैं। अगर नहीं लड़ते हैं तो आप मान कर चलिए कि यह परिवार उत्तर प्रदेश को छोड़कर भाग गया। प्रियंका वाड्रा अगर लड़ी भी तो मुझे नहीं लगता कि अमेठी या  रायबरेली से वह चुनाव जीतने की हैसियत रखती हैं। उनकी जो राजनीतिक क्षमता है वह 2019 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में दिख गई है। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उनकी अपील भी अब पहले जैसी नहीं रही। राहुल गांधी की पहले ही कोई अपील नहीं थी। जिस परिवार का देश पर करीब 55 साल तक शासन रहा हो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, वह परिवार अगर 543 सीट में से चुनाव जीतने के लिए एक सीट खोजने में असमर्थ है, तो आप समझ सकते हैं कि उसकी राजनीतिक हैसियत कहां पहुंच गई है।

दक्षिण का दुर्ग कितना कारगर

कांग्रेस पार्टी दक्षिण में मजबूत दिख रही है। अभी तेलंगाना का चुनाव जीती है। उससे पहले कर्नाटक विधानसभा का चुनाव जीती थी। मगर मैं बार-बार कहता हूं कि विधानसभा और लोकसभा का चुनाव अलग-अलग है, खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के युग में। लोकसभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने लिए वोट मांगने जाते हैं तब लोगों का व्यवहार अलग होता है और लोग दिल खोलकर भाजपा को वोट देते हैं।  विधानसभा चुनाव में जब वह राज्य के नेताओं के लिए वोट मांगते हैं तब लोग कंजूसी भी करते हैं और कई बार दिल खोलकर वोट भी देते हैं। मुझे लगता है कि 2024 का चुनाव इस परिवार के लिए राजनीतिक रूप से निर्णायक साबित होगा। 2024 के चुनाव के बाद ये तीनों सदस्य चुनावी मैदान या राजनीति के मैदान में रह नहीं पाएंगे क्योंकि राहुल गांधी की लीडरशिप पर अभी जो दबी छुपी आवाज उठती है, वह आवाज 2024 का चुनाव हारने के बाद दबने वाली नहीं है। प्रियंका वाड्रा अपनी कोई छाप छोड़ नहीं पाई है। मीडिया मैनेजर्स ने बड़ी कोशिश की कि हिमाचल प्रदेश की जीत को उनके खाते में डाला जाए। दिखाया जाए कि उनकी वजह से जीत गई, लेकिन ऐसा कुछ उन्होंने हिमाचल में किया नहीं था जिसकी वजह से कांग्रेस जीत जाए। कुल चार या पांच रैलियां की थीं। उसके अलावा कुछ नहीं किया था। केवल मीडिया में छवि बना देने से या यह परसेप्शन बना देने से कोई नेता वोट दिलाने वाला या चुनाव जीताने वाला नहीं हो जाता है। इस समय गांधी परिवार में तीनों में से कोई ऐसा नहीं है जो वोट दिलाने की क्षमता रखता हो। संसदीय लोकतंत्र में जिस नेता में वोट दिलाने की क्षमता नहीं हो उससे ज्यादा कमजोर नेता और कोई नहीं होता है। गांधी परिवार की स्थिति यही हो गई है।

आने वाले दिनों में नेशनल हेराल्ड का केस और भ्रष्टाचार के जो दूसरे मामले हैं उनकी जांच तेज होने वाली है। परिवार पर शिकंजा कसने वाला है। इस परिवार की राजनीति अगर 2024 के नतीजे आने के बाद खत्म हो जाए या खत्म होने की शुरुआत हो जाए तो कोई आश्चर्य मत कीजिएगा। इस परिवार का कोई राजनीतिक भविष्य अब मुझे तो दिखाई नहीं देता। हो सकता है कि कुछ समय तक यह आगे खिसकता रहे। साल-दो साल उनका प्रभाव और चल जाए, लेकिन उसके बाद एक के बाद एक विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उसमें कांग्रेस की क्या स्थिति होने वाली है, इसकी भविष्यवाणी करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। गांधी परिवार राजनीतिक रूप से अपने आखिरी दौर से गुजर रहा है। उसके लिए इस देश की राजनीति में अब कोई भविष्य बचा नहीं है। कांग्रेस को अब तय करना है कि वह अपना भविष्य इस परिवार के साथ देखती है या इस परिवार के बिना देखती है। अगर परिवार के साथ जाएगी तो एक तरह से आत्महत्या करने जैसा होगा, लेकिन कांग्रेस पार्टी ऐसा कर सकती है। लंबे समय से यह दिखाई दे रहा है, दीवार पर लिखी इबारत दिखाई दे रही है, लेकिन कांग्रेस पार्टी उसको स्वीकार करने को तैयार नहीं है। क्या 2024 के नतीजे आने के बाद इस सच्चाई को कांग्रेसी स्वीकार करेंगे, यह एक बड़ा प्रश्न है जिसका जवाब बहुत जल्दी मिलने वाला है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)