प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीय भाषाएँ-2

बालेन्दु शर्मा दाधीच।

भारत जितनी बड़ी तकनीकी शक्ति आज है, उससे कई गुना बड़ी शक्ति बन सकता है यदि हम भारतीय भाषाओं के संख्याबल को सेवा प्राप्तकर्ता से सेवा प्रदाता में तब्दील कर दें।


दूसरे के सहारे नैया पार नहीं होती

बिना हिन्दी के हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं की जा सकती...

संख्या बल हमारी सबसे बड़ी ताकत है इसलिए तकनीकें बनती रहेंगी और हिंदी समृद्ध होती रहेगी। लेकिन खुद को महज बाजार मानकर बैठे रहना और विकास का काम दूसरों पर छोड़ देना कोई आदर्श स्थिति नहीं है। दूसरे लोगों के सहारे नैया पार नहीं होती। वे उतना ही करेंगे जितनी कि उनकी अनिवार्यता होगी। संख्याबल का उत्सव मनाने से आगे बढ़कर हमें खुद अपनी भाषाओं में तकनीकी तरक्की का नियंत्रण संभालना होगा। एक उदाहरण देखिए- बोलने वालों की संख्या के लिहाज से दुनिया की शीर्ष बीस भाषाओं में से छह भाषाएँ भारत की हैं जिनमें हिंदी तीसरे नंबर पर है (हममें से बहुत से लोग इसे दूसरे नंबर पर मानते हैं)। लेकिन इंटरनेट पर कन्टेन्ट के लिहाज से हिंदी का स्थान 38वें से 41वें के बीच रहता है। मुझे याद आता है कि लगभग 15 साल पहले गूगल के तत्कालीन सीईओ एरिक श्मिट ने कहा था कि आने वाले पाँच-दस सालों में इंटरनेट पर जिन दो भाषाओं का प्रभुत्व होगा, वे हैं- मंदारिन और हिंदी। खुश होने के लिए बहुत अच्छा उद्धरण है यह लेकिन वह अवधि कब की निकल चुकी है और जहाँ इस बीच मंदारिन इंटरनेट की दसवीं सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है, हिंदी अभी भी 41वें नंबर पर है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम बातों से आगे बढ़ें और वर्तमान अनुकूल परिस्थितियों का अधिकतम लाभ उठाते हुए आगे के लिए सुदृढ़ आधारशिला के निर्माण में जुटें। हमें भारतीय भाषाओं में तकनीकी उद्यमिता और टिकाऊ विकास का एक इको-सिस्टम (पारिस्थितिकीय ढाँचा) तैयार करना होगा, जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ भारतीय कंपनियों, छोटे स्टार्टअप्स, स्वतंत्र विकासकर्ताओं, सरकारी तकनीकी संस्थानों और अकादमिक संस्थानों की भूमिका हो। तेजी से परिणाम लाने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) एक अच्छा मार्ग सिद्ध हो सकता है।

मोबाइल भाषायी तकनीकों के विकास का बड़ा उत्प्रेरक

भारतीय भाषा अभियान: सितंबर 2014

हाल के वर्षों में मोबाइल भाषायी तकनीकों के विकास का बड़ा उत्प्रेरक बनकर उभरा है। कारण भी स्पष्ट है- कुछ ताजा अध्ययन और सर्वेक्षण इस तरफ इशारा करते हैं कि भारत में इंटरनेट स्थित कन्टेन्ट का सर्वाधिक प्रयोग भारतीय भाषाओं में किया जा रहा है। कुछ रिपोर्टों के अनुसार सन 2020 और कुछ के अनुसार एक साल बाद, भारत में इंटरनेट सेवाओं की खपत के मामले में भारतीय भाषाओं की हिस्सेदारी 75 फीसदी के आसपास होगी। लगभग इसी अवधि में मोबाइल फोन खरीदने वाले हर दस में से नौ लोग अपनी प्रधान भाषा के रूप में भारतीय भाषाओं का प्रयोग कर रहे होंगे। इतनी बड़ी संख्या में उपभोक्ता आ रहे हैं तो उनकी तकनीकी ज़रूरतें भी हैं जिन्हें पूरा करना किसी भी कारोबारी संस्थान के लिए समझदारी का काम है।

परिस्थितियाँ अनुकूल हुई

रिलायंस जियो जैसी कंपनियों ने इस संकेत को समझा है और उन्होंने इसी मोबाइल उपभोक्ता के अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करने में बड़ा योगदान दिया है। हालाँकि यह उनके अपने व्यावसायिक हितों के भी अनुकूल है। किंतु इससे हुआ यह है कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों के पास मोबाइल के जरिए ठीकठाक बैंडविड्थ के साथ किफायती दरों पर इंटरनेट सेवाओं का प्रयोग करने की क्षमता आ गई है। इसका प्रभाव कंटेंट के उपभोग और संचार आधारित ऐप्स की लोकप्रियता में दिखता है। देश में बिजली और दूरसंचार सुविधाओं की स्थिति भी बेहतर हुई है जिससे निचले स्तर पर कंप्यूटरों के प्रयोग के लिए भी परिस्थितियाँ अनुकूल हुई हैं।

भाषायी सुविधाओं की बाढ़

इधर माइक्रोसॉफ़्ट और गूगल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी बढ़ती हुई मांग और जन-आकांक्षाओं के मद्देनजर भाषायी तकनीकी विकास पर ध्यान केंद्रित किया है। लगभग हर दूसरे महीने माइक्रोसॉफ़्ट या गूगल की ओर से कोई न कोई नया भाषायी अनुप्रयोग, फीचर या सेवा जारी की जा रही है। भारत सरकार ने भी राष्ट्रव्यापी फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क की स्थापना, मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से अनुकूल संदेश दिया है। डिजिटल इंडिया के नौ में से तीन स्तंभों में भाषायी तकनीकी विकास की प्रासंगिकता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि अब पर्सनल कंप्यूटर पर लगभग वह सब कुछ करना संभव है जो अंग्रेजी या दूसरी यूरोपीय भाषाओं में किया जा सकता है। बात टेक्स्ट इनपुट, फॉन्टों और यूनिकोड समर्थन से बहुत आगे जा निकली है। अब आप विभिन्न आकार के उपकरणों में (डेस्कटॉप, लैपटॉप, टैबलेट, मोबाइल) तथा ऑनलाइन-ऑफलाइन भारतीय भाषाओं का उत्पादकतापूर्ण प्रयोग कर सकते हैं। भाषायी सुविधाओं की बाढ़ आई हुई है। सामान्य सुविधाओं की तो छोड़िए, मशीन अनुवाद और ध्वनि प्रसंस्करण जैसे क्षेत्रों में भी काफी विकास हो गया है। आने वाले वर्षों में इस तरह की सुविधाएँ हमारे दैनिक जीवन का इतना सामान्य हिस्सा बन जाएंगी कि हमें उनकी मौजूदगी का अहसास तक नहीं होगा।

बात सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक सीमित नहीं है। बहुत सी भारतीय कंपनियाँ भी भाषायी तकनीकी विकास में योगदान दे रही हैं। इनमें रेवरी, प्रोसेस 9, इंडस ओएस, शेयर चैट, क्विलपैड, शब्दकोश, पाणिनि कीबोर्ड आदि के नाम लिए जा सकते हैं। इंटरनेट सामग्री के क्षेत्र में भी अधिकांश प्रधान अखबार, पोर्टल आदि भारतीय भाषाओं में सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। यू-ट्यूब पर भी भाषायी कन्टेन्ट निर्माण ने गति पकड़ी है।

रूपांतरकारी परिवर्तन

भाषायी तकनीकी विकास की अगली सीढ़ी है- कृत्रिम मेधा या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस। किसी समय पर जो काम बहुत मुश्किल हुआ करते थे, मसलन बड़ी मात्रा में डेटा इकट्ठा करना और उसका विश्लेषण, वे नई परिस्थितियों में अपेक्षाकृत काफी आसान हो गए हैं। नई परिस्थितियों से मेरा आशय- क्लाउड कंप्यूटिंग की बढ़ती लोकप्रियता, बिग डेटा जैसी अवधारणों का घटित होना जिनमें हमारी कल्पनाओं से भी अधिक सूचनाएँ एकत्र तथा प्रोसेस की जा रही हों और कंप्यूटरों का ज्यादा से ज्यादा मेधावी या इंटेलीजेंट होते चले जाना है। एक ओर जहाँ हम तकनीकों को सीख रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ तकनीकें हमें सीख रही हैं। वे हमारे आचरण, कामकाज, पसंद-नापसंद, सूचनाओं के निर्माण व प्रयोग, संचार आदि से सीखकर नई क्षमताएँ उत्पन्न कर रही हैं जिनका इस्तेमाल हमारी मदद के लिए किया जा सके। हालाँकि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लेकर कुछ शंकाएँ और आशंकाएँ भी हैं जिनका समाधान सरकारों तथा कंपनियों को मिलकर करना है। किंतु इतना स्पष्ट है कि वह हमारे जीवन में रूपांतरकारी परिवर्तन लाने जा रही हैं। आने वाले वर्षों में मेधावी तकनीक लगभग उसी तरह हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाएंगी जैसे कि हमारे घरों में बिजली या पानी है। वे हमारी भाषाओं को भी लाभान्वित करने वाली हैं। भाषाओं के बीच दूरियाँ अप्रासंगिक हो जाने वाली हैं क्योंकि तकनीक भाषाओं के बीच एक अदृश्य दुभाषिये का रूप ले लेगी। आप अपनी भाषाओं का प्रयोग करते हुए ही विश्व की अन्य भाषाओं के साथ संपर्क कर सकेंगे और उनकी सामग्री का उपभोग कर सकेंगे, फिर भले ही वह शिक्षा के क्षेत्र में हो, व्यवसाय के क्षेत्र में या हमारे दैनिक जीवन में। इससे भाषाएँ मजबूत होंगी और उनका भविष्य सुनिश्चित होगा। तब हम अपनी ऊर्जा अपनी भाषाओं में सीखने और आगे बढ़ने पर केंद्रित कर सकेंगे।

तकनीकी जागरूकता बढ़ाना जरूरी

उससे पहले एक ज़रूरी बात यह है कि देश में तकनीकी जागरूकता का बड़े पैमाने पर प्रसार किया जाए। विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे आयोजन इस दिशा में अहम भूमिका निभा सकते हैं। लोगों को आज भी उन अनुप्रयोगों की जानकारी नहीं है जो पहले से मौजूद हैं और उनकी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं, जैसे कि इनपुट माध्यम (टाइपिंग, फॉन्ट आदि)। हम जागरूक होंगे तभी इन सीमाओं से आगे बढ़कर तकनीक का पूरा लाभ उठा सकेंगे। ज़रूरत है कि हम न सिर्फ सामान्य उत्पादकता सॉफ्टवेयरों, इंटरनेट, मोबाइल सेवाओं तथा क्लाउड सेवाओं के प्रयोग में निष्णात हों बल्कि उनसे आगे की भी सोचें। हमें भारत को सिर्फ बीपीओ और आउटसोर्सिंग के जरिए तकनीकी विश्व शक्ति नहीं बनाना है बल्कि उसे एक ज्ञान समाज में तब्दील करना है। तकनीक भारत में सामाजिक परिवर्तनों तथा आर्थिक विकास का निरंतर चलने वाला जरिया बन सकती है, और भाषाओं की इसमें बड़ी भूमिका होने वाली है। (समाप्त)

(लेखक माइक्रोसॉफ्ट में भारतीय भाषाओँ के निदेशक-स्थानीयकरण और अभिगम्यता के पद पर कार्यरत हैं/ साभार: समन्वय हिंची)