अभिषेक मेहरोत्रा।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन से ही जीवन में गतिशीलता आती है और जीवन को नयापन मिलता है। आदि काल से अब तक वातावरण, मनुष्य के रहन-सहन, उसकी सोच समेत तमाम गतिविधियों में जो परिवर्तन आया है, इसे ही विकास की परिभाषा कहा जा सकता है। हमारा जीवन भी एक तरह की यात्रा है, जो परिवर्तिनों के तमाम दौर से गुजरती हुई पूरी होती है। यानी परिवर्तन एवं गति इस पूरे संसार का अनिवार्य नियम है। इस शाश्वत नियम के द्वारा ही जीवन में गतिशीलता आती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस संसार में कुछ भी अपरिवर्तनशील नहीं है।

यदि परिवर्तन का पहिया न घूमे तो हम और आप एक ही जगह, एक ही ढंग से खड़े नज़र आएंगे। पत्रकारिता के मामले में भी यही है। आज (30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस पर) यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि पत्रकारिता कहाँ से चलकर कहाँ आ गई है। कुछ बदलाव या परिवर्तन सुकून देने वाले होते हैं। यानी जब हम उन्हें देखते हैं या उनके बारे में सुनते हैं, तो अच्छा लगता है। वहीं, कुछ ऐसे भी होते हैं, जो ताउम्र सालते रहते हैं। पत्रकारिता के लिए ये बदलाव खट्टे-मीठे रहे हैं। सीधे शब्दों में कहूं तो ऐसा बहुत कम है जो दिल को सुकून देता है।

तब फील्ड रिपोर्टिंग पर था जोर

Why Field Reporting Is A REALLY Hard Job - YouTube

जहां मैं आज हूं अगर वहां से पीछे मुड़कर देखूं तो मुझे वो दौर नज़र आता है जब फील्ड रिपोर्टिंग पर जोर दिया जाता था। एक सामान्य खबर के लिए भी हमें मौके पर भेजा जाता था, और तब तक उस खबर पर नज़र रखी जाती थी जब तक कि वो अपने अंजाम तक न पहुँच जाए। इसमें कोई दोराय नहीं है कि संसाधनों की सुलभता आज जैसी नहीं थी, लेकिन ऑफिस में बैठे-बैठे फोन पर पूरी खबर ले लेना तब भी संभव था। इसके बावजूद हमें फील्ड पर इसलिए भेजा जाता था कि खबर के साथ-साथ पत्रकार के तौर पर हमारी नींव भी मजबूत हो- और ये उसी मजबूत नींव का परिणाम है कि मैं कई संस्थाओं को पीछे से उठाकर सबसे आगे पहुंचाने में सफल रहा हूं।

बिना फील्ड पर जाए डेस्क से बैठकर रिपोर्टिंग मुमकिन नहीं होती थी, जबकि आज की आधुनिक पत्रकारिता काफी हद तक डेस्क रिपोर्टिंग पर केंद्रित है। कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन कई धुरंधर पत्रकार भी डेस्क से ही अपनी बीट मैनेज कर लेते हैं। आप कह सकते हैं कि जब सुविधा है, तो उसका लाभ उठाने में क्या गलत है? लेकिन ये ‘सुविधा’ न केवल आपके लिए नुकसानदायक है बल्कि उन तमाम पाठकों-दर्शकों के साथ भी धोखा है, जो आपसे ईमानदारी से काम करने की आस लगाए बैठे हैं। फोन पर आपको केवल वही सुनने को मिलेगा जो सुनाया जा रहा है, मगर फील्ड पर आप वो भी देख-समझ पाएंगे जो शायद दूसरे न देख पाएं। इसलिए मेरा सभी युवा साथियों को यही सुझाव है कि मैदानी रिपोर्टिंग पर जोर दीजिये। यही आपको बरगद की तरह खड़ा करने के लिए मजबूत नींव दे पाएगी। जो पत्रकार ये अच्छे से कर पा रहे हैं, वो लोग वही हैं, जिन्होंने सालों फील्ड में रहकर अपना मुकाम बनाया है, संपर्क बनाए हैं, तजुर्बा लिया है।

बड़े पैमाने पर बदलाव जरूरी

Digital Media: Definition and Examples

एक दूसरी बात जो मैं यहां रखना चाहूंगा वो है डिजिटल मीडिया में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत। डिजिटल मीडिया को पत्रकारिता का भविष्य कहा जाता है।  जिस तेजी से हम टेक्नोलॉजी सेवी हो रहे हैं, वह आधुनिकता का परिचायक तो है- लेकिन यदि डिजिटल मीडिया का मौजूदा स्वरूप ही ‘भविष्य’ बनेगा, तो फिर उसके उज्जवल होने की संभावना बेहद कम है। मैं लंबे समय से डिजिटल मीडिया से जुड़ा रहा हूं, इसलिए उसकी नब्ज समझता हूं और यह भी खुले दिल से स्वीकार करता हूं कि भविष्य बनने के लिए उसमें बड़े पैमाने पर बदलाव की ज़रूरत है। हिंदी भाषियों के लिए डिजिटल मीडिया पर काफी कंटेंट मौजूद है, लेकिन उसे परिष्कृत करने की ज़रूरत है। आज लोग बिजनेस की पेचीदा शब्दावली को सरल हिंदी में समझना चाहते हैं, मगर गूगल वाले अहसास के बिना। आप मेरा कहने का मतलब समझ ही गए होंगे। बहुत कुछ है, जिसे बदलना होगा।

बेडरूम सीक्रेट जैसी स्टोरीज अधिकांश संपादकों की पहली पसंद

डिजिटल मीडिया में सारा खेल नंबरों का है। नंबर ज्यादा, तो आप हिट वरना फ्लॉप। अब ये नंबर आप कैसे, कहाँ से जुटाएंगे- इससे किसी को कोई लेना देना नहीं। इस नंबर के खेल ने संपादकों को मैनेजर बना दिया है, जिन्हें हर हाल में टारगेट पूरा करना है। इसलिए आप देख सकते हैं कि इंटरनेट पर आजकल कैसा कंटेंट मौजूद है। पत्रकारिता के मूल्य, सिद्धांत जैसी बातें डिजिटल जर्नलिज्म में आकर किताबी हो जाती हैं। इन किताबी हो चुकी बातों को फिर से अमल में लाना होगा और ‘बंदरिया का नाच’ और ‘सांड ने कैसे शख्स को पटका’ जैसी खबरों से गंभीर खबरों पर रुख करना होगा। डिजिटल पत्रकारिता आज उसी दौर से गुजर रही है, जिस दौर से कभी टीवी गुजरा था। भूत प्रेत की कहानियां, एलियन का गाय का दूध पीना, बिना ड्राइवर की कार जैसा दौर जिसने टीवी मीडिया का उपहास उड़ाया था- ठीक वैसा ही अब ऑनलाइन जर्नलिज्म में हो रहा है। सेमी न्यूड एक्ट्रेस से लेकर बेडरूम सीक्रेट जैसी स्टोरीज अधिकांश संपादकों की पहली पसंद बन गई है।

डिजिटल के ज्यादातर  संपादक ओपिनियन विहीन भी हो गए हैं। कितने डिजिटल संपादक किसी विषय पर लिखते हैं या किसी अमुक विषय पर टीम के साथ चर्चा करते हैं? यह कहना गलत नहीं होगा कि अधिकांश संपादक रोबोट बन गए हैं, जो केवल आदेशों का पालन करते हैं। और महज आदेशों के पालन से पत्रकारिता की गाड़ी को नहीं हांका जा सकता।

पत्रकारिता को जीवित रखने की चुनौती

हिंदी डिजिटल पत्रकारिता के सामने एक बेहतर भविष्य है, लेकिन उसी सूरत में जब हमारी तैयारी अच्छी हो। जब हम ये समझ सकें कि नंबरों के दौड़ में बने रहना जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण है पत्रकारिता को जीवित रखना। पत्रकारिता जीवित रहेगी तभी हमारा और आपका वजूद रहेगा।

पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए कड़ी मेहनत करने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। हमें अपनी मजबूत तैयारी के साथ आगे बढ़ना होगा। पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों का पालन करते हुए सही तथ्यों व तकनीक के बेहतर इस्तेमाल के द्वारा इसे नई दिशा में आगे ले जाना होगा, ताकि इसकी मूल भावना के साथ-साथ यह बदलते दौर में नई पीढ़ी के लिए भी प्रासंगिक बनी रहे। हमें ये भी देखना होगा कि तमाम तरह के प्रयोगों के दौरान क्रेडिबिलिटी जैसा इसका सबसे मेन पार्ट इसके मूल में बना रहे और तेजी से सूचनाओं का प्रवाह सुनिश्चित किया जा सके।

महादेवी वर्मा की लिखी ये पंक्तियां हमें याद रखनी चाहिए: ‘पत्रकारिता एक रचनाशील शैली है। इसके बगैर समाज को बदलना असंभव है। अत: पत्रकारों को अपने दायित्व और कर्तव्य का निर्वाह निष्ठापूर्वक करना चाहिए। क्योंकि उन्हीं के पैरों के छालों से इतिहास लिखा जाएगा’।

(लेखक बिजनेस वर्ल्ड ग्रुप में एडिटर- डिजिटल हैं)