आपका अख़बार ब्यूरो।
भारत आधारित सांस्कृतिक विरासत के बूते भी हमारी सरकार ने दुनिया के विभिन्न देशों के साथ प्रगाढ़ सम्बंध बनाने में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। इसके तहत ताजा अवसर मंगोलिया की राजधानी उलन बटोर में वहां के 50 बौद्ध मठों और शैक्षणिक संस्थाओं को पवित्र मंगोलियन कंजूर के सेट भेंट करने का रहा। भारत के संस्कृति मंत्रालय, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की ओर से इस सेट के 108 खंड पुनर्प्रकाशित काराए गए हैं।
इसके साथ ही नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा आपसी अकादेमिक सहयोग को बढ़ाने के उद्देश्य से मंगोलिया की चार प्रमुख संस्थाओं-नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ मंगोलिया, मंगोलियन एकेडमी ऑफ साइंसेस, गान देन टेक्निकल मोनेस्ट्री और जानबाजार बुद्धिस्ट युनिवर्सिटी ऑफ मंगोलिया के साथ अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए। भारत की ओर से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने समझौतों पर हस्ताक्षर किए।
सद्भाव का प्रतीक
आयोजन से स्वदेश लौटे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के डीन और राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन के निदेशक प्रो. प्रतापानंद झा ने उक्त जानकारी देते हुए बताया कि मंगोलिया की अत्यंत प्रसिद्ध गान देन मोनेस्ट्री में इस अवसर पर एक आयोजन हुआ। आयोजन में मंगोलिया के मुख्य बौद्ध गुरु नौआन खान खम्बो लामा, तिब्बत के प्रमुख धर्म गुरु लिन रिमपोचे, मंगोलिया के पूर्व राष्ट्रपति नाम बारयान इंख बायार के साथ मंगोलिया के शिक्षा मंत्री, संस्कृति उप मंत्रीसहित 50 संस्थानों के प्रतिनिधि, 500 से अधिक बौद्ध भिक्षु तथा बड़ी संख्या में मंगोलियन नागरिक उपस्थित थे। मंगोलिया के प्रमुख बौद्ध गुरु नोमेन खान जी ने इस अवसर पर भारत सरकार की सराहना करते हुए कहा कि मंगोलिया की धर्मप्रिय जनता इसके लिए भारत की ऋणी रहेगी। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी ने प्रकाशन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह ऐतिहासिक अवसर है तथा भारत के मंगोलिया के प्रति प्रेम और सद्भाव का प्रतीक है। इस अवसर पर यह आशा व्यक्त की गई कि भारत और मंगोलिया मिलकर विश्व शांति की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि कंजूर भागवान बुद्ध की वाणी को कहते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार, प्रारम्भ में इसका अभिलेखीकरण नहीं हो सका और यह मौखिक रहा। समय के साथ, नालंदा में अध्ययन करने आये तिब्बती छात्रों के जरिये यह पहले तिब्बत, फिर चीन और उसके बाद मंगोलिया पहुंचा।कम्युनिस्ट शासन के दौरान इन्हें नष्ट कर दिया गया था। भारत के प्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर रघुवीर के प्रयासों से इसकी माइक्रोफिल्मिंग यहां लाई जा सकी। फिर पहली बार 1970 में प्रो. लोकेश चंद्र ने इसका प्रकाशन कराया।