ऋतुराज बसंत के आते ही छत्तीसगढ़ की गली-गली में नगाड़े की थाप के साथ राधा -कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुंह से बरबस फूटने लगते हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा में मथुरा की होली की छाप है और जनजाति समाज में होली मनाने की अनूठी परंपरा है। जनजाति समाज में होली में सेमर, चिरचिटा, चटकाही रेंड़ी वृक्ष, तेंदू वृक्ष की लकड़ियों का महत्व है और उनकी पूजा से ही पर्व की शुरुआत होती है। साथ ही सेमर, चिरचिटा, चटकाही रेंड़ी वृक्ष, तेंदू वृक्ष की लकड़ियों का महत्व से संबंधित मनमोहक होली गीतों का गायन किया जाता है। भगवान लक्ष्मण को शक्ति बान लगने समय का वर्णन यहां के होली गीत में मनोहारी चित्रण मिलता है-सरगुजा अंचल में इसे “होरी“ त्योहार के नाम से जाना जाता है। इस त्योहार के पहले दिन होलिका दहन और दूसरे दिन धूलेंडी, धेरंडी, धुरखेल और सरगुजा अंचल में “धूर उड़ाना“ के नाम से रंग, अबीर, गुलाल एक दूसरे पर खुशी-खुशी डाला जाता है। ढोल-नगाड़े के साथ होली (फाग) गीतों का गायन किया जाता है। सरगुजा अंचल में स्थानीय जनजातीय समुदाय के लोग अपने पारंपरिक लोक त्योहारों के साथ हर्षोल्लास पूर्वक होली मनाते हैं।

छत्तीसगढ़ के उत्तरांचल जनजातीय बहुल संभाग सरगुजा है यहां गोंड, कवंर, उरांव, कोडाकू, कोरवा, पंडो, खैरवार, चेरवा और अघ्रिया जनजाति के लोग मुख्यतः निवास करते हैं।ग्राम-बैकोना प्रतापपुर, सरगुजा निवासी राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षक जय कुमार चतुर्वेदी ने जनजातीय समुदाय में होली त्यौहार मनाये जाने संबधित परम्पराओ काअध्ययन कर विस्तार से उल्लेख किया है।

कंवर जनजाति में होली- सरगुजा अंचल में कंवर जनजाति के लोग फाल्गुन महीना के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक पूरे एक माह तक गांव में घूम-घूम कर सरगुजिहा बोली में होली गीतों का गायन झांझ, मजीरा और मांदर वाद्य यंत्रों के साथ करते हैं। होलिका दहन के दिन इसी स्थल पर होली गीतों का गायन किया जाता हैं। कंवर एवं चेरवा जनजाति में होली के एक दिन पूर्व गांव के बाहर एक स्थल का चयन किया जाता है। इस स्थल पर गाय के गोबर से पुताई कर सेमर वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है।सेमर वृक्ष की डाली को गांव का कोटवार जंगल से काट कर लाता है। इनकी मान्यता है कि इस डाली को एक बार में ही काटा जाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल रहता है। बैगा अग्नि सुलगाता है। सेमर के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। अंत में होलिका (सभी लकड़ी) जल जाती है और प्रह्लाद (सेमर की लकड़ी) बच जाता है।

सुबह होलिका दहन स्थल की राख को पांच लोग लेकर ग्राम देव स्थल पर जाते हैं। और महादेव-पार्वती को लगाते हैं। इसके बाद सभी लोग एक-दूसरे को उसी राख का टीका और अबीर-गुलाल लगाकर होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। इसे ही धूर उड़ाना कहते हैं।

जिला सूरजपुर, वि.खं. प्रतापपुर, ग्राम बैकोना निवासी भंवरनंद पैकरा ने बताया कि होली की राख से अनेक समस्याओं का निदान किया जाता है। इसलिए इस स्थल की राख को अपने घर में साल भर सुरक्षित रखते हैं। माना यह भी जाता है कि होलिका दहन के दूसरे दिन इस स्थल पर साधना करने से सभी मन्नतें पूरी होती हैं। कंवर जनजाति के लोग भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण से संबंधित मनमोहक होली गीतों का गायन करते हैं।

गोंड जनजाति में होली- होली से एक दिन पूर्व शाम को सम्मत भरा जाता है। इसके लिए गांव के बाहर एक स्थल का चयन उसे गाय के गोबर से पुताई कर चटकाही रेंड़ी वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। गांव का बैगा सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा-अर्चना कर अग्नि सुलगाता है। प्रतापपुर, ग्राम सौतार निवासी हेमंत कुमार के अनुसार एक मान्यता प्रचलित है कि किसी वृक्ष में फल नहीं लगता है, तो होलिका दहन स्थल की जलती हुई लूठी (जलती लकड़ी) से उस वृक्ष को दागने से उस में फल लगना प्रारंभ हो जाता है। गोंड जनजाति में भी भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण से संबंधित मनमोहक होली गीतों का गायन किया जाता है।

पंडो जनजाति की होलीः जिला सूरजपुर, वि.खं.ओडगी, ग्राम लांजीत निवासी अतवारी पंडो (उम्र 55 वर्ष) ने बताया कि पंडो जनजाति की होली में गांव के बाहर एक स्थल का चयन कर वहां चिरचिटा वृक्ष, तेंदू वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) की डाली को काट कर लाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना कर अग्नि सुलगाता है। सुबह सभी लोग अबीर-गुलाल और रंग जलती हुई होलिका में डालने के बाद एक-दूसरे को लगाकर भाईचारे और आपसी प्रेम का परिचय देते हैं। चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। पंडो समाज में मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन की राख के उपयोग से जर-बुखार, खाज-खुजली और खसरा ठीक होता है।

उरांव जनजाति में होलीः फाग के पहले वाले दिन शाम को होलिका दहन के लिए सम्मत भरा जाता है। इसके बीच में सेमर की लकड़ी गाड़ी जाती है। चारों तरफ अन्य लकड़ियां रखी जाती हैं। सेमर की लकड़ी को गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से काट कर लाता है। और विधि विधान से होलिका दहन स्थल पर गाड़ता है। भोर में दारू, फूल, अच्छत, चावल, जल और अगरबत्ती से पूजा अर्चना कर होलिका दहन करता है।

उरांव जनजाति के ग्राम बोड़ा झरिया निवासी सुंदर राम किंडो के अनुसार उनके समाज में इस स्थल की अग्नि को अपने घर ले जा कर उसी से घर का चूल्हा जलाकर पकवान पकाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि होली के दिन से घर में अच्छाई रूपी अग्नि प्रज्वलित होती है, इसलिए ऐसा किया जाता है।

कोड़ाकू जनजाति की होली-कोड़ाकू जनजाति में होलिका दहन के दिन शाम से ही पारंपरिक वाद्य यंत्र से लैस होकर फाग गीत गाया जाता है। होली की पूर्व संध्या में सभी गांव वाले सम्मत भरते हैं। सम्मत के बीच में सेमर की लकड़ी को बैगा (पुरोहित) द्वारा पूजा अर्चना कर गाड़ा जाता है।सेमर की लकड़ी लेने बैगा के साथ चार-पांच कुंवारे लड़के जंगल जाते हैं और कुंवारे सेमर की लकड़ी काट कर लाते हैं। कुंवारा लकड़ी का मतलब जिस पर कभी टांगी न चलाई गई हो। भोर में होलिका दहन के पूर्व बैगा (पुरोहित) चावल, फूल अगरबत्ती और धूप से पूजा-अर्चना कर एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर सम्मत में डालकर अग्नि सुलगाता है।

ग्रामीण लोग पटाखे फोड़ कर खुशियां मनाते हैं। जब पूरी लकड़ी जल जाती है, तो बची हुई सेमर की ठूंठ को ग्रामीण लोग 50 फीट की दूरी से पत्थर से निशाना लगाते हैं। जिसका निशाना लग जाता है। उसे ग्राम प्रमुख के द्वारा एक महुआ का पेड़ इनाम में दिया जाता है। इसके बाद सेमर की ठूंठ को जमीन के बराबर काटा जाता है। फिर खोदकर निकालते हैं और उसे 4 भाग में फाड़ कर वहीं छोड़ देते हैं।

सभी लोग वहां की राख से ही होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। ग्रामीण लोग गोबर के कंडे में उस स्थल की अग्नि को अपने घर ले जाकर उसी से चूल्हा जलाकर पकवान पकाते हैं। ऐसा करने के संबंध में उनकी मान्यता है कि घर में अच्छाई रूपी अग्नि का प्रवेश हो और बुराई चली जाए। होलिका दहन करने के बाद नदी में स्नान करके ही अपने घर में प्रवेश करते हैं।(एएमएपी)