सत्यदेव त्रिपाठी।
मन्नू भंडारी का जाना न आकस्मिक है, न असामयिक। कबीर का कहा शाश्वत सत्य है- ‘आये हैं, सो जाहिंगे, राजा रंक फ़क़ीर। एक सिंहासन चढ़ि चले एक बंधे ज़ंजीर’। और निश्चितत: मन्नूजी सिंहासन पर चढ़के ही गयी हैं। जब तक जीवित रहीं – साहित्य के सिंहासन पर बिराजी रहीं। साहित्य की दुनिया में सभी रचनाकारों के लिए अच्छा-बुरा कहने की साहित्यदारी (दुनियादारी के वजन पर) रही है, लेकिन मन्नूजी इसकी अपवाद हैं।
बहुत सारा गाँज देने के लेखकीय लोभ से मुक्त
ऐसा कोई न मिलेगा, जो मन्नूजी के लेखन पर उँगली उठा सके। इसका कारण है – उनका बहुत सही विषय-चयन और इस मामले में बेहद ‘चूज़ी’ होना तथा बहुत सारा गाँज देने के लेखकीय लोभ से मुक्त होना। वही चुना और लिखा, जो उन्हें खूब आता रहा और खूब भाता रहा। जो लिखे बग़ैर रहा न जाता रहा। विषय की पकड़ व उसमें उतर (डूब) कर जो कहना है, उसे लेकर उतरा आना इतना सधा होता कि उसके लिए किसी रचनाविधान पर सोचना शायद उन्हें पड़ता ही न था। इसीलिए हम अध्यापकों को उसे पढ़ाते हुए मन्नूजी की शैली… आदि पर बोलना ख़ासा दुष्कर बन जाता था और छात्र बेचारे सृजन की उस प्रक्रिया से अनभिज्ञ, जिसे कालिदास ने ‘वागर्थाविव सम्पृक्तौ’ (शब्द व अर्थ की तरह मिले हुए) कहा- जिसका मानक है मन्नूजी का लेखन। फिर यूनिवर्सिटियों की जड़ता कि रचनाविधान नाम से पाठ्यक्रम में टॉपिक (मुद्दा) होना ही चाहिए, उस पर प्रश्न आना ही चाहिए। कौन समझाये उन्हें कि मन्नूजी जैसी खाँटी रचनाकार का सृजन इन सब अकादमिक ढर्रों से परे है- ऊपर है।
सृजन-संसार
हाँ, साहित्य-विमर्श में एक सूत्र है-‘हर विषय अपना रूप-विधान खुद लेकर आता है’। इसका सच्चा साखी है मन्नूजी का सृजन-संसार। और ग़ालिब के शब्दों में ‘ता रख सके कोई मेरे हर्फ़ पे अंगुश्त’ की उनकी इयत्ता व महत्ता का यही मर्म है। इसीलिए न उनके ऊपर कोई आरोप लग पाया, न लेखन को लेकर कोई विवाद हुआ कि साहित्य-संसार में ‘पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं’ की स्थिति बने। आप उन्हें पढ़ सकते हैं, उनके लेखन में डूब सकते हैं और ढेरों मानिक-मोती लेकर आ सकते हैं- ख़ाली हाथ न आने और काई-सेवार न पाने की ग़ैरंटी तो मैं क्या, कोई भी सही पाठक निस्संकोच दे देगा।
अस्तु, ऐसे कुछ मानिक-मोतियों की चर्चा अपनी यादों के भरोसे यहाँ दिल्ली के वाई एम सी ए छात्रावास में बैठकर भाई प्रदीपजी व प्रिय अजय विद्युत के अटाल्य आग्रह पर…। क्या इत्तफ़ाक़ है कि दिल्ली के मिरांडा हाउस में रहते हुए मन्नूजी लिखती रहीं– एक ही बार वहाँ जाने का अवसर मिला…लेकिन हम मुम्बई-बनारस में बैठ कर जो सब पढ़ते रहे और आज उन पर लिखते हुए उसी दिल्ली में बैठे हैं- छपेगा भी यहीं!
गहन सामाजिक सरोकारों से युक्त लेखन
शुरुआत में एक बात और कह दूँ कि मन्नूजी का लेखन गहन सामाजिक सरोकारों से उसी तरह युक्त है, जैसे उनका विषय व विधान- याने सरोकार भी उछलते नहीं, कथा में बारीकी से गुँथे होकर शिद्दत से झांकते रहते हैं, लुभाते भी हैं और तिलमिला भी देते हैं। इसी से जुड़ी बात यह भी कि मन्नूजी के सरोकार समय से आगे रहते हैं। वे उन्हें तब उठा देती हैं, जब साहित्य (हिंदी) में किसी को उसकी ख़ास भनक नहीं रहती। इसी को शास्त्र में ‘भविष्य-द्रष्टा हि कवय:’ कहा गया है।
समय से आगे के उपन्यास
ऐसे ही दो रचनाकर्म को सबसे पहले लूँगा– ‘महाभोज’ व ‘आपका बंटी’। दोनो उपन्यास व दो ही उपन्यास (‘एक इंच मुस्कान’ तो राजेंद्रजी के साथ पति-पत्नी के सहलेखन का प्रयोग भर ही चर्चित हुआ, जो प्रयोग आगे चला भी नहीं)। दोनो नामी हो गए, तो भुनाने कि लिए मन्नूजी अनायास कामी हो जाएँ…ऐसा कभी हुआ नहीं। यह निस्संगता, यह समझ व संयम भी उनकी ख्याति व गुणवत्ता के सबब हैं। ‘महाभोज’ उस मज़दूर वर्ग के पिछड़े समाज पर लिखा गया है, जिनकी स्थिति तब कमोबेस बंधुआ मज़दूर की थी या फिर रोज़ही मज़दूर। दलित लेखन तब हिंदी में रवाँ न हुआ था, बल्कि ठीक से आया ही न था। शायद प्रकाश झा की फ़िल्म ‘दामुल’ भी उसके बाद आयी। हुआ यह कि मज़दूरों ने अपनी मज़दूरी बढ़ाने की माँग की और न बढ़ाने पर काम न करने की अरदास। और इसके बदले में हुई उनकी सामूहिक पिटाई तथा एक मज़दूर की हत्या। ध्यातव्य है कि इसकी दृश्य प्रेरणा बना था- उसी समय हुआ दिल दहला देने वाला नर-संहार – ‘वेलछी हत्या कांड’। सरकार जनता पार्टी की थी। फिर तो ज़मींदारों के साथ राजनीति का पूरा सच्चा खेला उपन्यास बनकर नुमायाँ होता गया। मंत्री दा साहब और उनके विरोधी शुक्लाजी खलनायक की वृत्ति में प्रतिनायक बनकर कुख्यात हुए। लेकिन वहाँ भी एक चिंगारी ढूँढ के लाया मन्नूजी का रचनाकार- विशू के रूप में, जो लड़ाई को न्यायपालिका तक ले गया, लेकिन वे शातिर राजनीतिज्ञ कब चूकने वाले! उसकी भी हत्या। इसके सामने न कोई उपाय तब था, न अब है। लेकिन एक रचनाधर्म होता है, जिसे पूरा करते सारे काग़ज़ात लेकर एक युवा पात्र कहीं निकल जाता है, जो एक अज्ञात उम्मीद की राह है- समाजचेता सर्जक की साहित्य चेतना- ‘कालो हि निरवधि, विपुला च पृथ्वी’- कहीं तो मिलेगा, कभी तो मिलेगा… न्याय – न्याय का हक़ और हक़ का न्याय। उपन्यास से कम लोकप्रिय न हुआ इस पर बना इसी नाम का नाटक भी, जिसे कई-कई बड़े निर्देशकों ने बनाया, ढेरों शोज़ किये। यूँ मन्नूजी ने ‘बिना दीवारों का घर’ नाम से ठीकठाक नाटक भी लिखा है।
तलाक़ व पुनर्विवाह
इसी तरह ‘आपका बंटी’ भी तभी आ गया, जब हमारे देश में न तलाक़ इतने रवाँ हुए थे, न तलाकशुदा स्त्री-पुरुष के बच्चे की समस्या खड़ी हुई थी। हमारी पारंपरिक व्यवस्था में ‘डोली आती है, अर्थी जाती है’ और ‘लड़की की शादी एक ही बार होती है’-‘सकृद् कन्या प्रदीयते’के विधान प्रस्तर-प्रतिमा थे। अगर कहीं होता भी, तो छोटा बच्चा मां के साथ जाता और बड़े होने पर पिता ले आता- उसे ‘तरायन’ कहते। इसी तरह स्त्री का भी कभी दूसरा व्याह होता, तो नया बाप उसकी सारी ज़िम्मेदारी उठाता। तब जीवन में ऐसी व्यक्तिवादी आधुनिकता थी नहीं, लेकिन आ रही थी। और ‘आपका बंटी’ की पढ़ी-लिखी प्राचार्या मां शकुन दूसरी शादी करती है, जहां अच्छे पति हैं, वे बंटी के भी अच्छे पिता बनना चाहते हैं। घर में हर तरह का सुपास है, पर बंटी का कोमल बालमन न उस पिता को स्वीकार पाता, न मां के नए पति को और न ही उस घर को। इनकी वाहक घटनाएँ भी संवेदनशील हैं। तब उसे असली पिता के पास भेजते हैं, जहां जाकर तो वह बालकनी में खड़ा अकेला व बिलकुल कटा हुआ ही हो जाता है। मन्नूजी इस तलाक़ व पुनर्विवाह को स्त्री-पुरुष नहीं, बच्चे की नज़र से देखती हैं और ज़ाहिर है कि इसी बिना पर उनका मत इस प्रथा से विरोध का है। तब यह बात समय से पहले की थी। अब समय आगे बढ़ गया है। ढेरों तलाक़ व पुनर्विवाह होने लगे हैं। तमाम बंटी ऐसी पीड़ाओँ को झेल रहे होंगे….। ‘आपका बंटी’ को मोहन राकेश की ज़िंदगी से प्रभावित-प्रेरित भी माना जाता है। इस पर फ़िल्म भी बनी-‘समय की धारा’। विनोद मेहरा, शत्रुघ्न सिन्हा व शबानाजी की मुख्य भूमिकाएँ थीं। लेकिन निर्देशक शिशिर शर्मा ने बच्चे को छात्रावास भेजने के बदले उसके मर जाने का परिवर्तन कर दिया। कुछ और भी आपत्तियाँ थीं, जिन्हें लेकर मन्नूजी ने मुक़दमा कर दिया और न्यायालय ने लेखक की अस्मिता को तरजीह दी। लेखिका के रूप में मन्नूजी का यह दृढ़ व लड़ाकू रूप भी क़ाबिलेगौर है।
मानीखेज कहानियाँ
कहना होगा कि मन्नूजी के लेखन की शुरुआत कहानियों से हुई। वह नयी कहानी का दौर था, जिसके प्रवक्ता व पुरस्कर्त्ता तो कमलेश्वर-राजेंद्र यादव व मोहन राकेश रहे, लेकिन वह सार्थक होती है- मन्नूजी, अमरकान्तजी, रेणुजी, शिवप्रसादजी व मारकंडेयजी आदि में। मन्नूजी की तो क्या ही ढाँसू शुरुआत हुई- ‘मैं हार गयी’ से। संग्रह तो इसी नाम से बाद में निकला। शेष संग्रहों में ‘तीन निगाहों की तस्वीर’, ‘एक प्लेट सैलाब’, ‘अकेली’ और ‘त्रिशंकु’…आदि हैं। आज भी हिंदी कहानी-साहित्य से 15 सर्वोत्तम कहानियाँ चुनी जायें, तो उनमें ‘मैं हार गयी’ को रखना चाहूँगा मैं। अपने पात्रों के साथ लेखक के आपसी सम्बंध, उसमें पात्रों की स्वतंत्र इयत्ता के माध्यम से यथार्थ के साथ रचनाकार के सलूक… आदि माध्यमों से साहित्य की रचना-प्रक्रिया के दर्शन की जितनी मानक रहनुमाई हुई है, अन्यत्र दुर्लभ है। इस कालजयी थीम के साथ कहानी की रोचकता को मिलाकर मुझे यह कविता की तरह स्मरणीय व साहित्य-चर्चा में बेहद उद्धरणीय लगती है– करता भी हूँ ऐसा।
नारी जीवन- प्रतिनिधि स्वर
लेकिन कुल मिलाकर मन्नूजी की कहानियों का प्रतिनिधि स्वर है- नारी जीवन। और इसमें भी मन्नूजी समय से आगे की बात करती हैं। ‘आपका बंटी’ के पुनर्विवाह की तरह ही वृद्ध नारी जीवन के अकेलेपन की थीम भी तब इतनी सरेआम न हुई थी, जब कहानी ‘अकेली’ लिखी गयी। परित्यकता सोमा बुआ पारंपरिक जीवन में पूरे गाँव-मुहल्ले के साथ मिल-जुलकर सबके काम आकर जीवन-यापन करती थीं। और ख़ुदा गवाह है की तब बूढ़ियाँ ऐसी ही होती थीं – और वे कभी अकेली न होती थीं, बल्कि पूरे गाँव-मुहल्ले की अपनी होती थीं, क्योंकि पूरा गाँव-मुहला उनका अपना होता था। लेकिन जमाने के उस बदलाव को मन्नूजी ने अग्रिम रूप से पकड़ा कि किस तरह वे बूढ़ियाँ नयी पीढ़ी की बहू-बेटियों के सामने हाशिए पर छूटती जा रही हैं। तभी तो आयोजनों में घर के सारे मूल कर्म करने-कराने वाली बुआ को बुलाया ही नहीं जाता। वे पूरी तैयारी कर चुकी हैं- अरगनी पर लटकती-सूखती सारी इसकी प्रतीक बनकर आती है और उसी के सूखेपन-एकाकीपन जैसी स्थिति सोमा बुआ की भी होती है। ऐसा अवसाद छाता है पाठक पर कि कहानी की टीस में सोमा सबकी बुआ हो जाती हैं।
छद्म आधुनिकता का नकार
जो दुःख उपजता है – सोमा बुआ व उनकी परंपराशीलता के खोने का, वही दर्द मन्नूजी की कहानियों में छद्म आधुनिकता के नकार का भी है। ‘जीती बाज़ी की हार’ उन तीन आधुनिक लड़कियों की कहानी है, जो शादी न करके जीवन में बड़े तीर मारना चाहती हैं। वे प्रतिज्ञा करती हैं कि शादी न करके कुछ बनेंगी – बड़ा काम करेंगी। लेकिन किसी तरह एक की शादी कर दी जाती है और उसके बच्चे के जन्म पर शेष दोनो आती हैं। अपनी मित्र को उस नन्हें से बच्चे के साथ संवाद व लाड़ करते देखकर बाहर निकलती हैं, तो उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए टिप्पणी करती हैं- इस मांस के लोथड़े में उसे कहाँ से क्या-क्या कुछ दिखायी पड़ रहा है। याने पत्नीत्व-मातृत्व या कह लें कि पारम्परिक रूप में स्त्रीत्व से इनकार का भाव ही आधुनिकता की पहचान बनता है। वहीं बाज़ी लगती है कि वे दोनो शादी कभी न करेंगी और नहीं भी करतीं। दोनो ही जीवन में बहुत आगे बढ़ जाती हैं और एक दिन दोनो में से एक किसी बड़े आयोजन में उस तीसरी के शहर में पहुँचती हैं। पुरानी सहेली के घर जाती है। चलते हुए वह तीसरी इसके बाज़ी जीतने पर अपनी हार क़ुबूल करते हुए जो चाहे, माँगने के लिए कहती है। और अप्रत्याशित रूप से वह उसकी बेटी को माँग लेती है। इस प्रकार एकाकी जीवन की अपूर्णता व इस तरह जीवन से कट कर मिली कैरियर व भौतिक उपलब्धियों की व्यर्थता एवं सब कुछ के होते हुए भी जीवन के ख़ालीपन को जिस तरह उजागर करती हैं मन्नूजी, वह मारक भी है और मर्मिक भी। अपने भविष्य में आज इसका यथार्थहोना चर्चा (विवाद) का विषय हो सकता है, पर ऐसा जीवन कितना प्राकृतिक व मानवीय है, की अंतरिम सचाई सबके मन में निहित अवश्य है। ऐसी ही कहानी ‘दो कलाकार’ भी है, जिसमेंकला में बनते कैरियर की शीर्ष स्थिति भी गृहस्थ जीवन के बिना किस प्रकार नीरस व अधूरी है, का निदर्शन हुआ है। उसमें भी छात्रावास में रहती दो लड़कियाँ हैं। एक चित्रकार बन रही है और एक दिन बाढ़ में अनाथ हुए दो बच्चों का चित्र बनाकर लाती है और दूसरी को दिखाती है। कालांतर में वह बड़ी चित्रकार बनती है। देश-विदेश में ख्यात हो जाती है। बच्चों वाला चित्र बेहद लोकप्रिय होता है। फिर एक बार दूसरी वाली के शहर में उसके चित्रों की प्रदर्शनी लगती है। यह अपने दो बच्चों के साथ देखने जाती है और रात को उसे अपने घर लाती है। तब कुछ नाटकीय व ज्यादा आकस्मिक ढंग से उसे मालूम पड़ता है कि जिन बच्चों का चित्र उसकी लोकप्रियता का शीर्ष बना है, वही दोनो आज इसके बच्चे हैं- इसने शादी के बाद अपने बच्चे पैदा नहीं किये हैं…। अब क्या कहने की बात रह जाती है कि दोनो में असली कलाकार कौन है – तस्वीरों वाली चित्रकार या उन तस्वीरों को जीवन देनी वाली जीवनीकार!
ठोस व हृदयस्पर्शी संसार
ऐसी ही मारक व जीवनपरक काहानियों का एक बहुत बड़ा नहीं, पर बहुत ठोस व हृदयस्पर्शी संसार है, जो साहित्य के अध्येताओं ही नहीं, सामान्य पाठकों के गले का हार बना हुआ है। और यही मन्नूजी के रचनाकार विरल व बड़ी विशेषता है।
मौन इसरार-समर्पण के द्वंद्व में फँसी नायिका
इतनी ही कहानी-चर्चा आधी-अधूरी तो है ही, पर इसमें ‘यही सच है’ का नाम न लिया जाये, तो बात बनेगी नहीं। उसमें बड़ी द्वंद्वभरी मसर्रत से स्थापित होता है कि ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग’ की काव्यात्मक व रूमानी सचाई उतनी भी सच्ची नहीं है कि उसके बाद के असली व सही जीवन को नकार दिया जाये या पहले की याद को मन में रखकर एक पाखंड जीया जाये। दृश्यों में बँटी हुई कहानी एक-एक करके जिस तरह से प्रेम के बनाने-टूटने, फिर दूसरे के साथ पनपने-परिपक्व होने के बाद पहले के मौन इसरार-समर्पण के द्वंद्व में फँसी नायिका दूसरे के साथ जुड़ने का निर्णय लेती है, जो नितांत सहमतिदायक लगता है। बासुदा ने इस पर फ़िल्म बनायी और नायिका विद्या सिन्हा के पहले प्रेमी के रूप में दिनेश ठाकुर, दूसरे प्रेमी के रूप में अमोलपालेकर को लिया। नाम रखा ‘रजनीगंधा’, जिसके फूलों का गुच्छ लिए आता है दूसरा प्रेमी और उसी की महक से प्रतीक रूप में महक उठती है पूरी फ़िल्म। और फ़िल्म फ़ेयर से पुरस्कृत भी हुई।
बहुस्तरीय खूबियां
कुल मिलाकर यह सिद्ध हुआ कि मन्नू भंडारी की कथा-कृतियाँ नाटकीयता व सिनेमाई तत्वों से भी भरपूर होकर बहुस्तरीय खूबियों से युक्त हैं। और ‘एक कहानी यह भी’ जीवन की- लेखन-सक्रिय जीवन के अंतिम दिनों में मन्नूजी ने अपनी आत्मकथा लिखी- ‘एक कहानी यह भी’। नाम बेहद व्यंजक है- इतनी जीवनपरक कहानियों के बाद अब ‘एक कहानी यह भी’- निजी जीवन की, जो सहज प्रेम से मिले छली जीवनसाथी के साथ रहने, न रहने के द्वंद्व में जीती रहने और आजीवन अनिर्णय की शिकार बनी रहने की सच्ची कथा है।इसके परिणाम स्वरूप जीवन पूरे परिवार का बना रहा- प्रेम की स्थिति चाहे जो हुई हो, जिसके लिए ‘पीड़ा में तुमको ढूँढा, तुममें ढूँढूँगी पीड़ा’ की कल्पना की जा सकती है। यहाँ यह सवाल भी नाजायज़ न होगा कि इस क्षमता वाली लेखिका का आजीवन अनिर्णय में बने रहकर सब कुछ को सहते रहना उसके बड़े पाठक-वर्ग पर कैसी छाप छोड़ता रहा है! शुरू में कही बात की निरंतरता में कहा जा सकता है कि साहित्य में वे जिस तरह के सिंहासन पर आसीन रहीं, जीवन का सिंहासन वैसा बिलकुल न रहा।
जाज्वल्यमान साहित्य-तारिका
फिर भी इस भयावह द्वंद्व के बावजूद उन्होंनेअपना पूर्ण जीवन जीया- बल्कि आम तौर पर पूर्ण जीवन से अधिक जीके गयीं। इसलिए आज व्यक्त किया जाता दुःख औपचारिक या आचारगत ही कहा जायेगा। ‘भगवद्गीता’ में जीवन-मृत्यु को एक सहज प्रक्रिया कहा गया है- जैसे जीर्ण वस्त्र को छोड़कर नया पहनना, वैसे ही आत्मा का इस जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करने जाना-‘वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोपराणि, तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यानि संयाति नवानि देही’… चलिए- यह तो दर्शन है, लेकिन हिंदी में अलग प्रतीक के माध्यम से यही बात बड़ी सरलता से राम नरेश त्रिपाठी ने कही है- मृत्यु एक सरिता है, जिसमें श्रम से कातर जीव नहाकर, फिर नूतन धारण करता है काया रूपी वस्त्र बहकर।
और मैं मन्नूजी के लिए यही कहूँगा तथा साथ ही मंदसार (म.प्र.) में पैदा हुई महेंद्र कुमारी नाम्नी कन्या के मन्नू भंडारी रूपा संतरण करने वाली इस जाज्वल्यमान साहित्य-तारिका को सलाम नहीं बल्कि सैल्यूट करता हूँ।
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)