लूट का माल के साथ महिलाओं को भी ले गए, पेशावर, रावलपिंडी की सड़कों पर पशुओं की तरह बेचा
आपका अखबार ब्यूरो ।
जम्मू-कश्मीर के इतिहास में 21-22 अक्टूबर 1947 की रात सबसे भयावह और अंधकारमय रात के रूप में दर्ज है। धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर को बर्बाद करने और उस पर कब्जे के इरादे से पाकिस्तान सेना और कबाइलियों ने जम्मू कश्मीर पर बर्बर हमला शुरू किया था। कितना कत्लेआम, बलात्कार, लूटपाट, चारों तरफ चीखें… पाकिस्तान का दिया यह दर्द जम्मू कश्मीर इस घटना को 73 साल बाद भी नहीं भूल पाया है। यहां प्रस्तुत हैं रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित डॉक्टर एसएन प्रसाद व धर्मपाल की लिखी पुस्तक ‘ऑपरेशंस इन जम्मू एंड कश्मीर 1947-48’ के कुछ अंश:
22 अक्टूबर को तड़के बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सेना और पाक सेना समर्थित कबायलियों ने गढ़ी हबीबुल्लाह से सीमा पार कर मुजफ्फराबाद पर हमला कर दिया। लोहार गली और रामकोट पर महाराजा की सेना की 4 कश्मीर इन्फ्रेंट्री ने मोर्चा संभाल रखा था। महाराजा की सेना के कई सैनिक गद्दारी कर हमलावरों से मिल गए। न सिर्फ उनका साथ दिया बल्कि उनको इस बात की पूरी जानकारी भी दी कि कुछ कितनी फौज है और किस किस स्थान पर कितनी फौज तैनात है। गद्दारों ने हमलावरों को यह भी बताया कि किस किस पिकेट पर वहां तैनात सेना की टुकड़ी पर हमला करने के लिए कितनी संख्या में हमलावर भेजे जाने चाहिए। रात को सोये नागरिक कुछ जान पाते कि क्या हो रहा है, इसके पहले ही पूरा मुजफ्फराबाद आगजनी और कत्लेआम का बेबस शिकार बन गया।
मुजफ्फराबाद के उत्तरी क्षेत्र के स्कूल एरिया में एक ऊंचे मैदान पर डोगरा सैनिकों के पिकेट थे। वहां तैनात दस्ते, विशेषकर मीडियम मशीनगन सेक्शन ने, हमलावरों का बहादुरी से मुकाबला किया और दुश्मन को भारी क्षति पहुंचाई। लेकिन हमलावर बहुत बड़ी तादाद में थे और सैलाब की तरह बढ़ते चले गए। हमलावरों की संख्या के आगे थोड़े से डोगरा सैनिक बेबस थे। डोमेल ब्रिज पर हमलावरों का दबाव बढ़ता जा रहा था। डोमेल ब्रिज पर तैनात लेफ्टिनेंट कर्नल नरम सिंह अचानक फायरिंग और मुजफ्फराबाद की तरफ से आ रही शोरगुल की आवाजों से घबरा गए। हमले की खबर मिलने के साथ ही वे वहां से भागे। उसके मुख्यालय पर भी हमलावरों ने आक्रमण कर दिया। डोमेल में तैनात मुस्लिम सैनिकों ने हमलावरों का साथ दिया और उनके साथ हो लिए। कैप्टन राम सिंह शस्त्रागार को खोलना ही चाह रहे थे कि हमलावरों ने उनको मार डाला। बटालियन हेडक्वार्टर और मोर्टार प्लाटून ने दुश्मनों से पूरा दिन मोर्चा लिया लेकिन उनको भारी नुकसान उठाना पड़ा। रात होने पर बटालियन के केवल पंद्रह सैनिक बचे थे। वे काफी घायल और बुरी तरह थके हुए थे। वे वहां से निकलकर पहाड़ी पर चले गए। बाद में उनकी कभी कोई खबर नहीं लगी।
बाकी ठिकानों पर भी ऐसी ही कहानियां थीं। महाराजा के सैनिक अलग-थलग पड़ चुके थे और अपने अपने ठिकानों से एक दुश्वार सी लड़ाई लड़ रहे थे। जैसे जैसे अंधेरा बढ़ता गया वे अपनी पोजीशनों से भागते चले गए। मुजफ्फराबाद का एमएमजी (मीडियम मशीन गन) सेक्शन हवलदार बिशन सिंह की निगरानी में था। वह भी वहां से भाग निकला और वे कई दिनोें बाद श्रीनगर पहुंचे।
बत्तिका में तैनात टुकड़ी भागकर वापस जा रही थी कि हमलावरों ने उन्हें पकड़ लिया। पहले उनके शस्त्र छीने फिर कपड़े उतार लिए। उनके शरीर पर केवल अंडरवियर बचा था। उन्हें नदी के किनारे ले जाया गया और फिर लाइन से खड़ा कर हमलावरों ने गोली मार दी।
एक देशभक्त मुस्लिम मकबूल शेरवम को चौराहे पर लोगों के बीच गोली मार दी गई क्योंकि वह हिंदुओं और सिखों से अपने भाइयों की तरह बर्ताव करने की बात कह रहा था। बारामुला में मिशनरी अस्पताल चला रहे अंग्रेज कर्नल डाइक्स और उनके कई सहायकों की भी हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी। उनका अपराध क्या था यह अब तक पता नहीं चला। वहां की सड़कों पर दहशत का साम्राज्य था। वहां रहने वाले हिंदू, सिख और मुस्लिम अपनी सारी संपत्ति छोड़कर जान बचाने के लिए भागकर पहाड़ियों पर चले गए।
कोटली में तैनात सैनिकों का एक अन्य दस्ता सुरक्षित उड़ी जाने का प्रयास कर रहा था। उनका गोलाबारूद खत्म हो रहा था। उन्हें डर था कि रात में हमलावर उन्हें घेर लेंगे। 26-27 अक्टूबर की रात वे सैनिक बारामुला की ओर जा रहे थे। पीछे हटने के दौरान उन्हें कई जगह पर सड़कें बंद मिलीं। काफी प्रयास के बाद वे रास्ता साफ कर सके। इस छोटे से दस्ते में भी सैनिकों का बुरा हाल थे। वे घायल हो रहे थे या थकान कमजोरी के कारण गिर रहे थे। आगे चलकर फिर एक स्थान पर उन्हें सड़क बंद की गई मिली और वहां वे दुश्मन की जबरदस्त गोलीबारी का शिकार बन गए। दस्ते के हर सैनिक ने अंतिम सांस तक बहादुरी का परिचय दिया और दुश्मन का भरपूर मुकाबला किया। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह भी बहादुरी से दुश्मन का सामना करते हुए शहीद हो गए। अप्रतिम बहादुरी और कर्त्तव्य परायणता के लिए उन्हें महावीर चक्र प्रदान किया गया। उन्होंने अपने मुट्ठी पर सैनिकों के साथ हजारों की तादाद में आई दुश्मन सेना का चार दिनों तक सामना किया और उसे आगे बढ़ने से रोके रखा। इस तरह निसंदेह पूरी कश्मीर घाटी को हमलावरों की बर्बरता का शिकार होने से बचाया जा सका।
हमलावर 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के समृद्ध शहर बारामुला में घुस गए। वहां उन्होंने सबसे ज्यादा लूटपाट, नरसंहार और बर्बरता की। हिंदुओं और सिखों के घर लूटकर आग लगा दी और उन्हें मार डाला। हमलावर युवा महिलाओं को जबरन पकड़कर अपने साथ ले गए, उनके साथ बलात्कार किए गए और बाद में रावलपिंडी और पेशावर की सड़कों पर उन्हें पशुओं की तरह बेचा।
एक देशभक्त मुस्लिम मकबूल शेरवम को चौराहे पर लोगों के बीच गोली मार दी गई क्योंकि वह हिंदुओं और सिखों से अपने भाइयों की तरह बर्ताव करने की बात कह रहा था। बारामुला में मिशनरी अस्पताल चला रहे अंग्रेज कर्नल डाइक्स और उनके कई सहायकों की भी हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी। उनका अपराध क्या था यह अब तक पता नहीं चला। वहां की सड़कों पर दहशत का साम्राज्य था। वहां रहने वाले हिंदू, सिख और मुस्लिम अपनी सारी संपत्ति छोड़कर जान बचाने के लिए भागकर पहाड़ियों पर चले गए। सड़कें सूनी थीं और केवल हमलावरों के लश्कर की बूटों की आवाजें ही कभी कभार उस सन्नाटे को तोड़ती थीं। वे चारों तरफ बिखरी पड़ी लाशों के बीच से रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ रहे थे। पूरे शहर में जलाए गए घरों और बमों के हमले से ध्वंस इमारतों से आग की लपटें उठ रही थीं। गाढ़ा काला धुआं पूरे शहर में खूब ऊंचे तक फैला था। कुछ समय पहले तक ये सब मुस्कुराते घर और रौनकदार बाजार थे। हमलावरों के कब्जे में बड़ी संख्या में युवतियां और महिलाएं थीं। इसके अलावा खूब सारा खजाना भी उन्होंने लूटा था जिसके सहारे वे अपने सौभाग्य की जीत का जश्न मना रहे थे।
लूटपाट में हाथ लगे खजाने और जबरन अगवाकर युवतियों से बलात्कार… ये थी हमलावों की सफलता! हमलावरों ने ‘पवित्र युद्ध’ का मकसद भुला दिया था। हर हमलावर ज्यादा से ज्यादा खजाना हथियाने और ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को अपने कब्जे में करने की जुगत में था। ज्यादातर हमलावर लूट का माल संदूकों में भर भरकर अपने घरों को लौटे और अपने अधिकारियों को उन्होंने यह कहकर मनाया कि संपत्ति सुरक्षित रखने के बाद वे वापस लौट आएंगे।
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