64 फीसदी मरीज ग्रामीण इलाकों से।

डॉ. अजय खेमरिया।
देश में औसतन 2215 लोग रोजाना कैंसर से मौत के मुंह में जा रहे हैं। भारत में चीन के बाद सर्वाधिक मौतें कैंसर से हो रही हैं। आईसीएमआर औऱ राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के आंकड़े बताते हैं कि भारत में कैंसर की भयावहता किस त्रासदपूर्ण तरीके से बढ़ रही है। देश के 64 फीसदी मरीज ग्रामीण इलाकों से आ रहे हैं औऱ सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर व्यावहारिक रूप में कैंसर की पहचान के लिए कोई प्रमाणिक तंत्र ही उपलब्ध नहीं है।

संसद में हाल में सरकार ने जो जानकारी दी है उसके अनुसार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल, तमिलनाडु औऱ राजस्थान देश में कैंसर के बड़े हब के रूप में विकसित हो रहे हैं। पंजाब की हालत पहले से ही इस मामले में खराब है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री के आंकड़ों को ही विश्लेषित किया जाए तो देश में हर साल जितने मरीज कैंसर रोगी के रूप में चिन्हित होते है उनमें से 55 प्रतिशत की मौत हो जाती है। 2022 में 14 लाख 61 हजार 427 मरीज कैंसर रोगी के रूप में अलग अलग अस्पताल में भर्ती किये गए। इनमें से 8 लाख 8 हजार 558 की मौत हो गई। इसी तरह वर्ष 2021 में 14 लाख 26 हजार 441 में से 7 लाख 89 हजार 202 एवं 2020 में 13 लाख 92 हजार 179 में से 7 लाख 70 हजार 236 की मौत रिकॉर्ड पर दर्ज हुई हैं। कैंसर पीड़ित में 65 फीसदी मरीज 45 से 60 साल आयुवर्ग के हैं। खास ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि महिलाओं में तीसरी सबसे बड़ी बीमारी को कैंसर के रूप में चिन्हित किया गया है।

इन आंकड़ों के इतर जमीनी सच्चाई का एक अहम पहलू यह है कि आज भी देश के मैदानी हलकों में कैंसर की पहचान के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र सक्षम नही हैं। जिला चिकित्सालय जैसे सरकारी केंद्रों पर भी कैंसर की पहचान के लिए कोई व्यवस्था नही हैं। इन केंद्रों पर न तो ऑन्कोलॉजी विभाग है और न प्रयोगशाला जहां मरीजों के शुरुआती लक्षणों की जांच की जाती है। मजबूरी में ऐसे मरीजों को जांच हेतु मेडिकल कॉलेज स्तर के शहरी केंद्रों पर जाना पड़ता है। इस दौरान कैंसर के प्रारंभिक लक्षण गंभीर होकर शरीर में फैल जाते हैं। त्रासदी यहीं तक सीमित नही है क्योंकि बड़े शहरी केंद्रों पर भी कैंसर की पहचान और निदान की जो व्यवस्था है वह बहुत ही खर्चीली हैं।

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डॉक्टर के प्रारंभिक परामर्श शुल्क मुंबई, दिल्ली, भोपाल, लखनऊ, पटना जैसे शहरों में 800 रुपए से लेकर 5000 तक होते हैं। पीएफटी, ईईजी, सीबीसी, सीटी,पेट स्केन लैब टेस्ट अगर एक साथ हो तो खर्चा एक लाख तक आ सकता है। बायोफ्सी के 35000 औऱ एंडोस्कोपी के लिए अस्पताल 10 से 50 हजार तक चार्ज करते हैं।

कैंसर का पता चल जाने के बाद साधारण सर्जरी का खर्च 2.80 लाख से 10 लाख आम है। रोबोटिक सर्जरी पर लगभग 5.25 लाख का व्यय आता है।कीमोथेरेपी की एक यूनिट औसतन 18 हजार की पड़ती है। इंटरनल रेडियेशन थेरैपी 61,960 से 5,16,337 औऱ एक्सटर्नल रेडियेशन का खर्चा तीन लाख से बीस लाख तक जाता है। इम्यूनोथेरेपी की औसत दर 4,41,000 है। बॉनमोरो ट्रांसप्लांट पर 15 लाख से 48 लाख खर्च होता है। इनके अलावा टॉरगेट एवं हार्मोन थैरेपी का विकल्प भी लाखों में बैठता है। इस खर्च में अस्पताल की रेटिंग्स का खर्चा भी 5 से 15 प्रतिशत अलग से जुड़ जाता है। जाहिर है भारत में कैंसर के इस उपचार को वहन करना केवल आर्थिक रूप से करोड़पति पृष्ठभूमि वाले परिवारों के लिए ही संभव है।

असल में कैंसर की बीमारी हमारी विकृत जीवनशैली के साथ पारिस्थितिकी तंत्र में आये बदलाब के कारण भी तेजी से बढ़ी है। दूसरी तरफ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में कैंसर की नैदानिक सेवा उच्च स्तरीय विशेज्ञयता की मांग करती है। हमारे देश में विशेषज्ञता प्राप्त डॉक्टर जिला मुख्यालय को भी अपना परामर्श केंद्र बनाना पसंद नही करते है। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर के मानक उपचार की आशा करना आज बेमानी है। यूं तो सरकार ने 1975 में ही कैंसर की बीमारी की रोकथाम के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम आरम्भ कर दिया था।

1990 में जिला स्तर पर कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम भी शुरू हुआ बाद में 2005 औऱ 2017 में देश के 100 जिलों में उत्कृष्ट कैंसर संस्थान के लिए पहल हुई।इसके बावजूद आज कैंसर रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लाखों मरीज तो आरंभिक जांच के लिए भी चिन्हित नही हो पाते हैं और जिस तरह 55 फीसदी मरीज सालाना इस बीमारी से मर रहे हैं, वह बताता है कि हमारे देश में कैंसर की उपचारात्मक प्रविधियां नाकाम साबित हो रही हैं। जहां तक संसाधनों का सवाल है इस मामले में भी हम बहुत पिछड़े हुए है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति 10 लाख की आबादी पर एक रेडियेशन मशीन की आवश्यकता होती है लेकिन हमारे यहां यह केवल 0.41 ही है। नेशनल मेडिकल काउंसिल के अनुसार देश में कुल 594 एमडी  रेडियेशन ऑन्कोलॉजी की पीजी सीट्स है जिनमें 282 निजी कॉलेजों में हैं।

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जाहिर है जिस तरह से कैंसर की चुनौती तेज हो रही है उस अनुपात में हमारे पास दक्ष कार्यबल नही है। ऐसा नही है कि सरकार इस चुनौती को समझ नही रही है। हरियाणा के झज्जर में एक राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र की स्थापना इसी उद्देश्य से की जा रही है ताकि इससे संबंधित शोध और डेटा को ज्यादा प्रामाणिक बनाया जा सके।

केंद्र और राज्य सरकारों ने कैंसर को बिलंब से ही सही अपनी प्राथमिकतताओं में लेना शुरू भी किया है। पिछले कुछ सालों में सरकारी जिला अस्पतालो में कैंसर यूनिट की स्थापना आरम्भ हुई हैं। मेडीकल कालेजों में भी रोग की पहचान,परीक्षण औऱ निदान के संस्थागत प्रयास संस्थित हुए हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या कैंसर उपचार का अत्यधिक महंगा होना और इस रोग के आरंभिक लक्षणों का बहुत देर से पता चल पाना। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आमतौर पर अभी भी काबिल डॉक्टर उपलब्ध नही है और सरकार ने जिन सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर जांच के लिए उपकरण उपलब्ध कराएं है उन्हें संचालित करने के लिए एलाइड सर्विसेज की भारी कमी है।

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अधिकतर  सरकारी अस्पतालों एवं नए मेडिकल कॉलेजों में उपकरण तो खरीद कर स्थापित कर दिए गए है लेकिन मानव संसाधन के अभाव में यह अनुपयोगी साबित हो रहे हैं। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है जागरूकता की कमी। कैंसर को लेकर संचारी रोगों की तरह जागरूकता नही है। सरकार को चाहिए कि अन्य बीमारियों की तरह इसे लेकर भी माइक्रो स्तर पर जनजागरूकता सुनिश्चित करने वाले राष्ट्र व्यापी अभियान आरम्भ किये जायें, ताकि आरंभिक लक्षणों के साथ ही कैंसर के शरीर में प्राणघातक फैलाव को रोका जा सके। एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि अगर आरंभिक स्तर पर ही कैंसर की पहचान कर निदान शुरू किया जाए तो एशिया में करीब 60 फीसदी मौतों को रोका जा सकता है।

इसके साथ ही आयुष्मान समेत अन्य बीमा योजनाओं को कैंसर के मामले में समावेशी बनाया जाए। निजी बीमा कम्पनियां अक्सर स्वास्थ्य बीमा करते समय केंसर की अनदेखी करती हैं। आयुष्मान में केवल पांच लाख तक बीमा कवरेज है लेकिन आम तौर पर मरीजों का उपचार इससे ज्यादा होता है। ऐसे में आयुष्मान योजना भी कैंसर पीड़ितों को अंतिम रूप से मदद नही कर पा रही है। महिलाओं के लिए भारत में सर्वाइकल कैंसर सबसे बड़ी चुनौती है इसका उपचार आसान हो सकता है अगर 14 साल तक की बालिकाओं के मध्य पाठ्यक्रम स्तर पर जागरूकता सुनिश्चित की जाए।

इसी तरह मुख औऱ गले का कैंसर पुरुषों में सर्वाधिक देखा जाता है। इसके लिए सरकार को तंबाकू खासकर सिगरेट औऱ गुटखे पर मौजूदा करारोपण की स्लैब को चार गुना बढ़ाने में कंजूसी नही करनी चाहिए। जागरूकता औऱ कैंसर फैलाव वाले कारकों पर सख्ती के साथ सरकार कैंसर की रोकथाम पर कारगर साबित हो सकती है। साथ ही दक्ष मानव संसाधन खासकर सहबद्व सेवाओं को विकसित करने के लिए भी चरणबद्ध ढंग से मेडिकल कॉलेजों को केंद्र बना सकती है।
(लेखक वरिष्‍ठ स्‍तम्‍भकार हैं)