प्रमोद जोशी।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं और उसके साथ ही गठबंधन की राजनीति के लक्षण भी प्रकट होने लगे हैं। चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और एकनाथ शिंदे ने सरकार को अपना समर्थन दे दिया है, साथ ही अपनी-अपनी माँगों की सूची भी आगे कर दी है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार ज्यादातर नेता कम से कम एक कैबिनेट मंत्री का पद और दूसरी चीजें माँग रहे हैं। चंद्रबाबू नायडू संभवतः लोकसभा अध्यक्ष का पद भी माँग रहे हैं। ऐसी बातों की पुष्टि नहीं हो पाती है, पर ये बातें सहज सी लगती हैं। बहरहाल अंततः समझौते होंगे, क्योंकि गठबंधनों में ऐसा होता ही है। बीजेपी लोकसभा अध्यक्ष पद अपने हाथ में ही रखना चाहेगी, क्योंकि इस व्यवस्था में अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
दिल्ली में एनडीए और ‘इंडिया’ की बैठकें हुई हैं। खबरें हैं कि कांग्रेस पार्टी किसी पर प्रधानमंत्री पद का चारा डाल रही है। बाहर से समर्थन देने के वायदे के साथ, पर ऐसी कौन सी मछली है, जो इस चारे पर मुँह मारेगी? आप पूछ सकते हैं कि कांग्रेस के पास ही ऐसा कौन सा संख्या बल है, जो बाहर से समर्थन देकर किसी को प्रधानमंत्री बनवा देगा? और कांग्रेस ऐसी कौन सी परोपकारी पार्टी है, जो किसी को निस्वार्थ भाव से प्रधानमंत्री बना देगी? बेशक वजह तो देश बचाने की होगी, पर याद करें अतीत में कांग्रेस पार्टी के इस चारे के चक्कर में चौधरी चरण सिंह, एचडी देवेगौडा, इंद्र कुमार गुजराल और चंद्रशेखर जैसे राजनेता आ चुके हैं। उनकी तार्किक-परिणति क्या हुई, यह भी आपको पता है।
आगामी 8 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार शपथ ग्रहण करेगी। पर सवाल उसके बाद के हैं। नरेंद्र मोदी के पास गुजरात में 12 साल से ज्यादा का और केंद्र में 10 साल सरकार चलाने का अनुभव है, पर उनकी सभी सरकारें स्पष्ट बहुमत पर आधारित थीं। पूरी तरह उनके नियंत्रण में। 2014 और 19 में जो सरकारें बनी थीं, उन्हें स्पष्ट बहुमत प्राप्त था। फिर भी एनडीए को भंग नहीं किया गया था। पर वह नाम का गठबंधन था, पर अब जो सरकार बनेगी, उसमें कई दलों की मंजूरी होगी। क्या मोदी ऐसी सरकार को आसानी से चला पाएंगे?
माना जाता है कि उनकी कार्यशैली अपनी टीम को मुट्ठी में रखने वाली है, पर अब गठबंधन धर्म की जरूरत होगी। इस शब्द का आविष्कार अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। उन्होंने ही गठबंधन के भीतर समन्वय समिति की अवधारणा दी थी। 2004 में जब यूपीए-1 बना तब न्यूनतम साझा कार्यक्रम जैसी अवधारणा बनी। पर अनुभव यही कहता है कि गठबंधन सरकार का मतलब होता है, न्यूनतम राजनीतिक जोखिम। हमें यह भी समझना होगा कि गठबंधनों को पटरी पर बनाए रखने के लिए पार्टी भी भूमिका निभाती है. सारे काम प्रधानमंत्री को ही नहीं करने होते हैं।
देश की राजनीति में सबसे लंबे अरसे तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। एक मायने वह खुद एक बड़ा गठबंधन है, पर उसकी चाभी का गुच्छा ‘परिवार’ के पास रहता है। आज वह ‘इंडिया’ गठबंधन का झंडा लेकर खड़ी है, पर गठबंधन उसकी दिलचस्पी का विषय तभी बनता है जब वह गले-गले तक डूबने लगती है। अतीत में तीन मौकों पर वह गठबंधन सरकारें बना चुकी है। दो मौकों पर उसने बाहर से गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया। हर बार सहयोगी दलों को कांग्रेस से शिकायतें रहीं। जब उसने बाहर से समर्थन दिया तो बेमौके समर्थन वापस लेकर सरकारें गिराईं। 2004 में पहली बार यूपीए बना, तो 2008 में वामदलों के हाथ खींच लेने के कारण सरकार गिरते-गिरते बची। यूपीए-2 के दौर में उसे लगातार ममता बनर्जी, शरद पवार और करुणानिधि के दबाव में रहना पड़ा।
भाजपा ने 2014 में नरेंद्र मोदी ने जनता में उम्मीदें जगाईं और स्वर्णिम भारत का सपना दिखाया था। इसके लिए मोदीजी ने कई साहसिक (जिन्हें दुस्साहसिक भी माना गया) फैसले किए उन्हें लागू भी किया। ‘सबका साथ’ के नारे के साथ उन्होंने वोटों की धार्मिक गोलबंदी पुख्ता की। राम मंदिर निर्माण का फैसला अदालत से करवाकर मंदिर को साकार किया। नोटबंदी की, जीएसटी लागू किया। तीन तलाक पर कानून बनाया, अनुच्छेद-370 की वापसी कराई वगैरह, महिला आरक्षण की व्यवस्था की और अब वे भारतीय न्याय संहिता लागू करने जा रहे हैं।
उनकी सूची में अभी तमाम आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक काम लिखे हैं। इनमें समान नागरिक संहिता और ‘एक देश, एक चुनाव’ जैसे कार्यक्रम भी शामिल हैं। खेती, भूमि, श्रम, उर्वरकों और बिजली पर सब्सिडी जैसे बहुत से ऐसे मसलों में सुधार से जुड़े कदम उठाए जाने हैं। कुछ सरकारी बैंकों और बीमा कंपनियों का निजीकरण भी होना है, जिनका संकेत वित्तमंत्री दे चुकी हैं। एक बड़ा काम संसदीय सीटों के परिसीमन का है। 2002 में सरकार ने इसे 25 साल के लिए टाल दिया था।
नई सरकार के सामने दो बड़े काम ऐसे हैं, जिन्हें होना ही है। पहले जनगणना और फिर परिसीमन। उसके साथ जुड़ा है महिलाओं को 33 प्रतिशत सीटों पर आरक्षण। जनगणना का काम फिलहाल 30 जून तक के लिए रोक दिया गया था, जो अब शुरू होगा। नीतीश कुमार चाहते हैं कि राष्ट्रीय-स्तर पर जातीय-जनगणना का काम भी होना चाहिए। राजनीति के दीर्घकालीन हित में यह भी किया जा सकता है।
जाने-अनजाने अब एनडीए सरकार के भीतर संवाद को प्राथमिकता देनी पड़ेगी। दूसरों की राय सुननी होगी। पिछले दस साल में बहुत से काम एक आवाज पर हुए। अब प्रक्रिया कुछ अलग और कुछ धीमी होगी। देखना यह भी होगा कि ‘इंडिया’ गठबंधन का क्या बनता है। महाराष्ट्र में चुनाव परिणाम आने के बाद उद्धव ठाकरे को इस बात पर हैरत हो ही रही होगी कि बीजेपी का साथ गठबंधन बनाया था, तो लोकसभा की 18 सीटें मिली थीं। अब नौ ही रह गईं हैं। हमें मिला क्या?
इस तरह के सवाल बहुतों के पास होंगे। मौके की तलाश का नाम भी राजनीति है। नीतीश कुमार पल्टी मार सकते हैं, तो यहाँ तमाम लोग पल्टी मारने के लिए भी तैयार बैठे हैं। यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि ‘इंडिया’ गठबंधन में सब परमार्थ-भाव से शामिल हुए हैं। सबके हित हैं। इसी का नाम राजनीति है। आपको यकीन नहीं है, तो इंतजार कीजिए। जल्द ही कुछ आपके सामने आएगा।
(लेखक ’हिन्दुस्तान’ नई दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)