सत्यदेव त्रिपाठी।

पिछले दिनों अख़बार में एक ख़बर पढ़ी- ‘उम्रदराज़ों पर ज्यादा भारी पड़ रहा कोरोना’। ऐसे में याद तो अपनी ही उम्रदराज़ी की आती है, लेकिन उस दिन मुझे कुछ दिनों पहले अपने मित्र-संसार में पुणे से मिला वह समाचार याद आ गया, जिसमें सुश्री सुमेधा पाटकर कोरोना अनुकूल (पॉज़िटिव) पायी गयी थीं। सुमेधाजी तो मुझसे चार-पाँच साल बड़ी ही होंगी। तब से निरंतर सम्पर्क में रहा और 15-20 दिनों बाद वे कोरोना-मुक्त हो गयीं थीं।


 

सुमेधाजी आजीवन अविवाहित हैं। पिछली सदी के अंतिम दशक में पूना-प्रवास के दौरान मेरी मित्रता हुई थी। वे भी एक कॉलेज में प्रोफेसर थीं। परिवार द्वारा आयोजित विवाह में उनकी आस्था न थी और जिसके साथ टूटकर प्रेम किया था, उससे शादी हो नहीं पायी थी। उनकी बचपन की सहेली थीं सन्ध्या कस्तवार– उन्हीं की हमपेशा और हमख़याल… और शायद इसी कारण ठीक इसी हालात से गुज़री हुई – बल्कि मारी हुई। वह उन्नीस सौ सत्तर के दशक का उत्तरार्ध था, जब पुणे जैसे परम्परा-पोषित शहर में कुलीन ब्राह्मण परिवार की कन्या होते हुए भी दोनों ने प्रेम करने की जुर्रत की थी और उससे चार कदम आगे बढ़के घर की कठोर मनाहियों की नाफ़रमानी करते हुए शादी करने का बग़ावती फैसला किया था। क्रूर दमन होना ही था। तो फिर प्रेम पर परवान चढ़ते हुए शादी न करने का फैसला भी दोनों ने किया। लेकिन उन्होंने भाई के परिवार के साथ रहना और भतीजों को बेटा मानकर, उनकी बुआमाँ होकर जीवन गुज़ार देने वाली रवायत को भी क़बूल न किया।

प्रगतिशीलता का उरोज़

वह प्रगतिशीलता के उरोज़ वाला जमाना था, जब पारम्परिक शादियों की भेंड़ियाधँसान में इज्जतदार सुहागन के नाम पर मिली जीवन भर की गुलामी की सचाई को बदलने की धारणा जीवन में उतरनी शुरू हो गयी थी। लेकिन कभी पारिवारिक ज़बर्दस्ती का शिकार होकर उसी शादी-प्रथा में दम तोड़ रही थी या आत्महत्या में ग़र्क़ हो रही थी। कभी ज्यादा हिम्मत दिखाते हुए भागकर प्रेमी के साथ शादियां करके तमाम तरह की समस्याओं से ग्रस्त होकर और अधिक दुख-संघर्ष की जिन्दगी में फँस रही थी, जहाँ कुलीनता की इज्जतदारी का वह तमग़ा भी नहीं होता था …आदि-आदि। ऐसे में सुमेधा और सन्ध्या ने तन्हाँ-तन्हाँ जीने का फैसला लिया था। दोनों छात्र-जीवन से ही मित्र थीं और संयोग ऐसा बना कि दोनों का पूरा जीवन भी एक जैसी नौका में ही तिरने लगा था।

मेरे सामने की ही बात है जब दोनों ने साथ मिलकर ‘मेन्दले गैरेज’ जैसे अभिजात इलाके में आगे-पीछे से जुड़ा हुआ दुतरफा कुटीर (डुप्लेक्स कॉटेज) खरीदा। बीच में एक दरवाजा निकलवा लिया, जो यूं तो बन्द रहे, पर जरूरत पर खोला जा सके। याने साथ का साथ भी और अलग का अलग भी। अपनी-अपनी निजता भी और साहचर्य की सामाजिकता भी। ‘बज़्म की बज़्म भी, तनहाई की तनहाई भी’। ऐसा व्यावहारिक निर्णय मुझे लुभा गया था और इस मिली-जुली जीवन शैली के निर्वाह के प्रति उत्सुक भी बना गया था। लेकिन यह ‘दो दुखों का एक सुख’ उस वक़्त भी पुणे के शिक्षित-सुसंस्कृत समाज से देखा न गया था।

दो दुखों का एक सुख

मेरे सामने की ही बात है जब दोनों ने साथ मिलकर ‘मेन्दले गैरेज’ जैसे अभिजात इलाके में आगे-पीछे से जुड़ा हुआ दुतरफा कुटीर (डुप्लेक्स कॉटेज) खरीदा। बीच में एक दरवाजा निकलवा लिया, जो यूं तो बन्द रहे, पर जरूरत पर खोला जा सके। याने साथ का साथ भी और अलग का अलग भी। अपनी-अपनी निजता भी और साहचर्य की सामाजिकता भी। ‘बज़्म की बज़्म भी, तनहाई की तनहाई भी’। ऐसा व्यावहारिक निर्णय मुझे लुभा गया था और इस मिली-जुली जीवन शैली के निर्वाह के प्रति उत्सुक भी बना गया था। लेकिन यह ‘दो दुखों का एक सुख’ उस वक़्त भी पुणे के शिक्षित-सुसंस्कृत समाज से देखा न गया था। लेकिन इन दोनों ने पहले की तरह अब भी परवाह न की किसी की। समय ने भी परीक्षा की घड़ी जल्दी ही ला दी थी, जब दूसरे ही साल सन्ध्याजी को सघन शल्य-चिकित्सा से गुज़रना और दो महीने के शय्या-विश्राम में रहना पड़ा। मैं उन्हें देखने गया था– तबियत से ज्यादा दोनों की व्यवस्था व सलूक को। बीच का दरवाजा खुल गया था। सगी बहनें भी क्या रहेंगी, जैसे रह रही थीं वे लोग। देखकर मेरी तबियत प्रमुदित हो गयी थी और कहना न होगा कि सुमेधाजी की गहन तीमारदारी में सन्ध्याजी बिल्कुल चंगी हो गयी थीं।

एक दूजे के लिए

उस सदी के अंतिम वर्ष में मुझसे पूना छूट गया था, लेकिन मुम्बई रहते हुए भी हाल-चाल लेते-देते रहना नियमित था एवं पूना जाने पर दो-चार बार भेंट भी हो पायी थी। हमेशा उनकी जिन्दगी की इस अभिनव योजना से मुतासिर होता रहा। आज भी उस सोच-संकल्प व व्यवस्था से उतना ही लरज रहा हूँ, जब उसी व्यवस्था के बल सुमेधाजी कोरोना पर विजय हासिल कर पायी हैं। आज भी कल्पना कर सकता हूँ कि कोरोनाग्रस्त सुमेधाजी के इलाज व कोरण्टाइन के दौरान सन्ध्याजी ने क्या और कैसे किया होगा। आजीवन अविवाहित हिन्दी कवि सुमित्रानन्दन पंत को ‘चिरकुमार’ की संज्ञा मिली थी– शायद उन्होंने ही ख़ुद को दी थी। उसी तर्ज़ पर कहूँ, तो भले ये दोनों चिरकुमारियां अब उम्र के पचहत्तरवें पड़ाव के आसपास होंगी या पार कर गयी होंगी, लेकिन इनने एक दूसरे के साथ और ‘एक दूजे के लिए’ जीने की निराबानी मनुष्यता की जो मिसाल कायम की है, उसके सामने कोरोना या समाज के कोई भी वायरस इनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते।


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