फिर सुर्खियों में फिलिस्तीन-इजरायल विवाद
सवाल है कि भारत का इजरायल को समर्थन देने का क्या मतलब है? इससे भारत की विदेश नीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या मोदी के इस बयान से अरब देश नाराज हो जाएंगे? क्या भारत का ‘इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर’ (IMEC) खटाई में पड़ जाएगा?
ईरान और अरब देशों की इसमें क्या भूमिका है ये भी समझेंगे. इसके साथ ही हम फिलिस्तीन और इजरायल की राजनीति को भी समझने की कोशिश करेंगे. इसके लिए हमने पश्चिम एशिया को समझने वाले JNU और AMU के प्रोफेसरों से बात की है. लेकिन, उससे पहले हम इजरायल, फिलिस्तिन पृष्ठभूमि को जान लेते हैं, जिससे आपको समझने में आसानी होगी.
इजरायल-फिलिस्तीन की भौगोलिक स्थिति क्या है?
हमास और ईरान
AMU में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर के फैकल्टी मेंबर डॉ. इम्तियाज अहमद का मानना है कि इजरायल को कमजोर करने के लिए ईरान हमास की मदद कर पश्चिम और मिडिल ईस्ट एशिया में ‘प्रॉक्सी वॉर’ छेड़े हुए है. इस क्षेत्र में अमेरिका के कम होते प्रभाव के खाली स्थान को ईरान अपने को स्थापित कर भरना चाहता है. चूंकि, प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आ सकता, इसलिए वह आतंकी संगठनों की मदद से इजरायल को कमजोर कर रहा है.
हमास के आक्रामक रूख से फिलिस्तीन का आंदोलन भी कमजोर पड़ा है. एक समय था जब फतह और हमास दोनों मिलकर फिलिस्तीन की स्वायत्ता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे, लेकिन पिछले कुछ दशकों में इन दोनों संगठनों के बीच भी दरार आई है, जिससे फिलिस्तीन आंदोलन दो गुटों में बंट गया है.
हमास: एक आतंकी संगठन है, जो फिलिस्तीन की स्वायत्ता की मांग करता है. इसका गठन 1987 में हुआ था. यह एक कट्टर सुन्नी मुस्लिम संगठन है. इस संगठन का उद्देश्य जिहाद का सहारा लेकर स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना करना है और आतंकवाद के माध्यम से इजरायल को कमजोर करना है. हालांकि, ये अपने आप को आतंकी संगठन नहीं मानता. ये खुद को फ्रीडम फाइटर मानता है.
फतह भी एक संगठन है, जो फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की मांग करता है. इसका गठन यासिर अराफात ने 1950 के दशक में किया था. फतह सबसे बड़ा फिलिस्तीनी राजनीतिक गुट है. यह संगठन वेस्ट बैंक में अपना प्रभाव स्थापित किए हुए है. हालांकि, इस संगठन की विचारधारा हमास की विचारधारा के विपरीत है. यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संगठन और ‘ओस्लो शांति समझौते’ को स्वीकार करता है, जबकि हमास इस समझौते को नहीं मानता है.
ओस्लो शांति समझौता: साल 1993 में अमेरिका और रूस की मध्यस्थता से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था. ओस्लो शांति समझौते का ‘दो राज्यों के समाधान’ (Two State Solution) के नाम से जाना जाता है. इस समझौते के तहत यह तय किया गया था कि इस क्षेत्र को दो हिस्सों में विभाजित किया जाएगा. उनमें से एक हिस्सा फिलिस्तीन को और दूसरा इजरायल के हिस्से में जाएगा. इसी समझौते का विरोध हमास करते आया है.
JNU में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर के प्रोफेसर अमित कुमार बताते हैं कि ईरान, इजरायल को कमजोर करने के लिए सिर्फ हमास की ही मदद नहीं करता है, बल्कि लेबनान में हिज्बुल्लाह का भी समर्थन करता है. हिजबुल्लाह भी हमास जैसा ही संगठन है, जो इजरायल को अपना दुश्मन मानता है.
सीरिया की बशर अल-असद भी ईरान की मदद करती है. इसके अलावा कतर खुलकर इजरायल के खिलाफ और ईरान के समर्थन में रहता है. ये जितने भी आतंकी संगठन है, इसके पीछे ईरान का बैकअप है और इन्हें कतर आर्थिक रूप से मदद करता है. आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि 32 दातों के बीच में इजरायल अकेला एक जीभ है, जिसको चारों तरफ से खतरा है.
हमास और भारत
फिलिस्तीन में भारत कभी भी हमास का समर्थक नहीं रहा है. हालांकि, हमास गाजा में फतह सरकार के समानांतर सरकार चलाता है और गाजा की भौगोलिक स्थिति कई मायनों में महत्पूर्ण है.
AMU में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर के HOD, प्रोफेसर जावेद इकबाल कहते हैं कि “भारत का हमास के साथ प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं है, लेकिन भारत हमास के खिलाफ उतना खुलकर सामने नहीं आता जितना अमेरिका आता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमास का गाजा पर कब्जा है और गाजा व्यापारिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति पर है. क्योंकि, भूमध्य सागर के बिलकुल तट पर स्थित है. स्वेज नहर है जो भूमध्य सागर को रेड सागर से जोड़ती है, जो दुनिया का सबसे बिजी व्यापारिक मार्ग है.”
स्वेज नहर से वैश्विक समुद्री व्यापार का 10 फीसदी माल गुजरता है, इनमें ज्यादातर तेल और अनाज होता है. यह नहर एशिया और यूरोप को जोड़ने वाला शॉर्टकट रास्ता है. इसके अलावा दूसरा रास्ता अफ्रीका का चक्कर लगाकर केप ऑफ गुड होप के जरिए है, लेकिन उसके लिए जहाजों को अफ्रीका का चक्कर लगाना होता है और उसमें 12 दिन ज्यादा लगते हैं.
फिलिस्तीन और इजरायल के बीच कहां खड़ा भारत?
इजरायल पर हमास के हमले के बाद पीएम मोदी ने दुख जताया है और हमले की निंदा की. इसके साथ ही उन्होंने इजरायल के समर्थन में खड़े होने की बात कही.
पीएम मोदी के इस ट्वीट बाद से इसके अलग-अलग मायने निकाले जाने लगे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की इस प्रतिक्रिया पर AMU में फैकल्टी मेंबर डॉ. इम्तियाज अहमद का कहना है कि “अगर आप ऐतिहासिक तौर पर देखेंगे तो नेहरू से लेकर मोदी सरकार तक सभी ने फिलिस्तीन के स्वतंत्रता की बात की है. भारत का एक स्पष्ट मत रहा है कि दोनों देशों की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है.”
“हाल के दिनों में भारत का इजरायल के साथ अच्छे संबंध जरूर स्थापित हुए हैं, जो समय की मांग भी है. रक्षा, टेक्नोलॉजी या कृषि, सभी क्षेत्रों में इजरायल ने भारत का सपोर्ट किया है. लेकिन, इसका मतलब ये नहीं है कि भारत फिलिस्तीन के मुद्दे पर उसका साथ छोड़ देगा. पिछले कुछ दशकों से देखेंगे तो भारत की पश्चिम एशिया में रुचि बढ़ी है, इसके पीछे की वजह भारत की तेल पर निर्भरता है और भारत तेल के मामले में खाड़ी देशों पर ही निर्भर है. इसलिए वो कभी नहीं चाहेगा कि उसके एक कदम से खाड़ी देशों में नाराजगी बढ़े.”
JNU के प्रोफेसर अमित कुमार कहते हैं कि 21वीं सदी की जो डिप्लोमेसी है इसमें कोई भी देश किसी तीसरे देश के लिए किसी दूसरे देश से अपने संबंध खराब नहीं करेगा. आप ईरान का ही उदाहरण ले लीजिए. पीएम मोदी ने इजरायल के समर्थन में खड़े होने की बात कही है. इससे ईरान को नाराज होना चाहिए. लेकिन, ऐसा नहीं है. वैश्विक राजनीति में ईरान कभी भी भारत के साथ संबंध खराब नहीं करेगा.
“एक समय था जब भारत मिस्र के जरिए मिडिल ईस्ट को देखता था, लेकिन अब तो भारत का सऊदी अरब भी अच्छा दोस्त है, UAE भी अच्छा दोस्त है और ईरान भी. तो मौजूदा वक्त में भारत इन तीनों देशों के साथ मिडिल ईस्ट में आगे बढ़ रहा है.
हमास और इजरायल की राजनीति
हमास का दावा है कि उसने इजरायल के खिलाफ ‘ऑपरेशन अल-अक्सा फ्लड’ शुरू किया है. इस दावे के तहत उसने 5 हजार से ज्यादा रॉकेट दागे हैं, वहीं इजरायल ने इस बात की पुष्टि की है कि हमास के लड़ाके उसके कब्जे वाले इलाकों में घुस गए हैं.
इस स्थिति पर AMU के प्रोफेसर जावेद इकबाल सवाल उठाते हैं. उनका कहना है, “अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है तो इजरायल के उस ‘आयरन डोम’ यानी ‘प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली’ का क्या हुआ जो इजरायल को हवाई हमलों से बचाता है.”
JNU के प्रोफेसर अमित कुमार इसमें हमास और इजरायल की छिपी हुई रणनीति पर प्रकाश डालते हैं. अमित कुमार कहते हैं कि पश्चिम एशिया में अशांति की 5 प्रमुख वजहे हैं.
इजरायल पर हमला कर हमास अपनी मजबूती को मिडिल ईस्ट में कायम रखना चाहता है, वह बताना चाहता है कि वह कमजोर नहीं पड़ा है.
हमास चाहता है कि फिलिस्तीनी मुद्दे पर कोई भी देश उसके साथ नेगोसियशन करे.
हमास अरब देशों (ईरान, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, मिस्र) के अखंड फिलिस्तीन की अवधारणा का आगे बढ़ा रहा है. अरब के देश इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं.
हमास के इन्हीं हरकतों से इजरायल को फिलिस्तीनी आंदोलन को कुचलने का मौका मिलता है.
हमास ने नेतन्याहू सरकार को दोबारा लोगों के विश्वास हासिल करने का एक मौका दे दिया है. क्योंकि नेतन्याहू सरकार, सुप्रीम कोर्ट की शक्ति को कम करने और न्यायपालिका के नियमों में बदलाव को लेकर आंतरिक रूप से राजनीतिक विरोध का समाना कर रही थी. लेकिन, जब कोई देश संकट में आता है, तो आपसी मतभेद भूलाकर सब साथ आ जाते हैं और इसका फायदा नेतन्याहू को जरूर मिलेगा.
वैश्विक राजनीति पर क्या असर?
इजराइल पर हमास के हमले के बाद दुनिया दो गुटों में बंट गई है. इजराइल के समर्थन में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत जैसे बड़े देश हैं, तो वहीं हमास के समर्थन में ईरान, कतर, सीरिया और लेबनाने जैसे उसके पड़ोसी मुल्क हैं. चीन और रूस ने जल्दी सीजफायर करने की और शांति बहाल करने की बात की है.
इजरायल आने वाले दिनों में रूस और चीन को अपने समर्थन में लाने में कामयाब होगा. क्योंकि, रूस और चीन के भी आर्थिक लाभ इजरायल के साथ जुड़े हैं. हमास के मुद्दे पर ये दोनों देश जरूर इजरायल के समर्थन में बात करेंगे. हाल के दिनों में देखेंगे कि चीन का भी पश्चिम एशिया में रूची बढ़ी है. उसका अपना इकोनॉमिक इंट्रेस्ट है. वह भी मिडिल ईस्ट में शांति चाहता है. इसलिए ही उसने ईरान और सऊदी अरब को एक टेबल पर लाने में कामयाब हुआ. हालांकि, उसने फिलिस्तीन और इजरायल को भी लाने की कोशिश की थी, लेकिन इजरायल ने कोई रूची नहीं दिखाई.
इजरायल और भारत
फिलिस्तीन-इजराइल को लेकर भारत का रूख
फिलिस्तीन: भारत हमेशा से फिलिस्तीन को तमाम मंचों पर समर्थन करता आया है. भारत ‘फिलिस्तीन मुक्ति संगठन’ (PLO) शासन को मान्यता देता है.
PLO का गठन साल 1964 में हुआ था. ये संगठन फिलिस्तीनी लोगों का एक संगठन है, जिसका उद्देश्य फिलिस्तीन के लोगों का पुनर्वास करना, उनकी सुरक्षा करना और फिलिस्तीन के लोगों के भलाई सुनिश्चित करना है.
1970 के दशक में भारत ने PLO और उसके नेता यासिर अराफात का समर्थन किया था.
इसके अलावा 1975 में भारत ने PLO को मान्यता दी थी, जो ऐसा करने वाला पहला गैर-अरब देश था.
भारत ने 1988 में फिलिस्तीन को एक देश के रूप में औपचारिक तौर पर मान्यता प्रदान की थी.
साल 1996 में भारत ने फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण की स्थापना के बाद गाजा में अपना रेप्रेजेंटेटिव ऑफिस भी खोला था, जो 2003 में ‘रामाल्लाह’ में शिफ्ट कर दिया गया.
नई दिल्ली में फिलिस्तीनी दूतावास भवन का शिलान्यास अक्टूबर 2008 में अपनी भारत यात्रा के दौरान खुद फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने की थी.
फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण का निर्माण ओस्लो समझौते से किया गया था. यह फतह गुट के राष्ट्रपति महमूद अब्बास के नेतृत्व में चलने वाला फिलिस्तीनी लोगों का आधिकारिक शासी निकाय है. ‘रामाल्लाह’ फिलिस्तीन की वास्तविक प्रशासनिक राजधानी है. ये वेस्ट बैंक का सबसे बड़ा शहर भी है.
संयुक्त राष्ट्र की महासभा के 53वें सत्र के दौरान फिलिस्तीन के आत्म निर्णय के अधिकार के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था.
अक्टूबर 2003 में इजरायल द्वारा एक दीवार के निर्माण के खिलाफ UN के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था.
2011 में फिलिस्तीन को यूनेस्को का पूर्ण सदस्य बनाने का समर्थन किया था.
इसके अलावा भारत ने 29 नवंबर 2012 को UNGA में फिलिस्तीन को गैर-सदस्य पर्यवेक्षक देश यानी ‘बिना वोटिंग के अधिकार के’ बनाने के पक्ष में भी मतदान किया था.
2014 में भारत ने गाजा क्षेत्र में इजरायल के मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) के प्रस्ताव का समर्थन किया था.
नवंबर 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में फिलिस्तीनियों के आत्म-संकल्प के अधिकार से संबंधित प्रस्ताव का समर्थन किया था.
इजरायल: भारत ने 1950 में इजरायल को मान्यता दी थी. हालांकि, 1992 से पहले भारत के इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं थे. 1992 में पहली बार भारत ने इजरायल के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत की थी. भारत ने कई मौकों पर इजरायल का साथ दिया है.
साल 2015 में UNHRC ने इजराइल के खिलाफ एक प्रस्ताव लेकर आया था, इस प्रस्ताव में गाजा क्षेत्र में इजरायल के मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांंच करना शामिल था, लेकिन भारत ने इजराइल के खिलाफ प्रस्ताव पर मतदान नहीं किया था.
ऐसे ही जून 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद में इजरायल की ओर से पेश किये गए एक निर्णय के पक्ष में मतदान किया, जिसमें एक फिलिस्तीनी गैर-सरकारी संगठन को सलाहकार का दर्जा देने पर आपत्ति जताई गई थी.
फिलिस्तीन-इजरायल विवाद की पृष्ठभूमि
जायोनी आंदोलन में यहूदियों को फिलिस्तीनी लोगों के विरुद्ध सफलता मिली और उन्होंने उस क्षेत्र में एक इजरायली राज्य की स्थापना की. तब तक प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई.प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1916 में ब्रिटेन और फ्रांस के मध्य एक ‘साइक्स पिकोट’ नामक समझौता हुआ. इस समझौते के तहत यह तय किया गया कि प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद फिलिस्तीन पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित होगा.
बाल्फोर घोषणा: फिलिस्तीन पर ब्रिटिश नियंत्रण के स्थापित होने के बाद ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव जेम्स बाल्फोर की अध्यक्षता में एक निर्णय लिया गया. इस निर्णय के तहत यहूदी मातृभूमि की स्थापना करने पर सहमति व्यक्त की गई और यहूदियों के लिए एक देश के गठन की मांग को स्वीकार कर लिया गया. इस घोषणा को इतिहास में ‘बाल्फोर घोषणा’ के नाम से जाना जाता है. इस घोषणा के बाद इजरायल के लिए एक अलग देश के गठन का आधिकारिक आधार तैयार हो गया.इधर, हिटलर के नेतृत्व में 1930 में जर्मनी में नाजी शासन की स्थापना हो गई. नाजी शासन ने यहूदियों को प्रताड़ित करना शुरू किया. यहूदी लोग इस प्रताड़ना से बचने के लिए अपनी जान बचाकर फिलिस्तीन में शरण लेने लगे. धीरे धीरे फिलिस्तीन के क्षेत्र में यहूदी बस्तियों का विस्तार होने लगा. फिलिस्तीनियों ने यहूदियों बस्तियों के विस्तार का विरोध करना शुरू कर दिया और यहीं से यहूदी और अरबों के बीच संघर्ष की शुरुआत हुई, जिसकी आग आज भी बुझी नहीं है.(एएमएपी)