प्रदीप सिंह।
साइंस में कहते हैं कि कोई वैक्यूम नहीं रहता है। अगर कोई जगह खाली होती है तो कोई न कोई पदार्थ आकर उसकी जगह ले लेता है, वैसे ही राजनीति में भी होता है। अगर एक पार्टी गिरती है तो उसका स्थान लेने के लिए दूसरी पार्टी आ जाती है। 1980 के दशक के बाद कांग्रेस पार्टी का गिरना शुरू हुआ तो भारतीय जनता पार्टी और जनता दल उसके दो विकल्प के रूप में दिखाई देते थे। लेकिन उसकी जगह लेने के लिए उन दोनों की तैयारी उतनी नहीं थी जितनी तेजी से कांग्रेस गिर रही थी। इसलिए विकल्प बनने में लंबा समय लगा। 1996 से शुरू करें तो भारतीय राजनीति में 18 साल तक गठबंधन की राजनीति चली। कांग्रेस को पहले नंबर से बेदखल करने में भाजपा को 1998 से 2004 तक गठबंधन की राजनीति के जरिये कामयाबी मिली। इसे देखते हुए कांग्रेस ने भी गठबंधन की राजनीति को स्वीकार किया और 10 साल और सर्वाइव कर गई। उसके बाद से कांग्रेस पहले नंबर से खिसक चुकी है और उसकी जगह भाजपा ने बिल्कुल निर्णायक तौर पर ले ली है। वहां से उसको हिलाने वाला अभी दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता।
कांग्रेस पार्टी अभी नंबर दो पर है और नंबर दो से भी उसका गिरना दिखाई दे रहा है। कई बार होता है कि गिरता हुआ व्यक्ति पास से दिखाई नहीं देता है लेकिन दूर वाले को नजर आ जाता है कि वह गिर रहा है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत से भ्रमित न होइए। पार्टी की गिरावट का दौर लगातार जारी है। गुजरात के नतीजे बता रहे हैं कि वह अब वहां भी खत्म होने की ओर बढ़ रही है। दूसरे राज्यों में भी यही स्थिति है। राजस्थान में अगले साल दिसंबर में चुनाव होगा। वहां भी कांग्रेस का सत्ता से बाहर जाना तय लग रहा है। छत्तीसगढ़ में भी बहुत अच्छी स्थिति नहीं है लेकिन राजस्थान से बेहतर स्थिति है। कांग्रेस अभी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में नंबर दो पर है। उसकी जगह कौन लेगा इसके प्रयास में कई पार्टियां हैं। ममता बनर्जी कोशिश कर रही थीं, फिर चुप बैठ गई। अब सुनाई पड़ रहा है कि फिर से कोशिश कर रही हैं। मेघालय में फरवरी-मार्च में चुनाव होने वाला है। वह वहां अपनी जमीन तलाशने की कोशिश कर रही हैं। अंदाजा लगाने की कोशिश कर रही हैं कि क्या वहां कामयाबी मिल सकती है, खासतौर से आम आदमी पार्टी के उभार के बाद। आम आदमी पार्टी क्षेत्रीय दलों में एकमात्र पार्टी है जिसकी दो राज्यों में सरकार है। गुजरात में आम आदमी पार्टी को करीब 13 प्रतिशत वोट मिला है तो वह राज्य में नंबर तीन की स्थिति में आ गई है। लेकिन आपकी जो अपेक्षा होती है और आपकी ताकत अगर उससे कम आती है तो लगता है कि आप फेल हो गए। याद कीजिए पश्चिम बंगाल का चुनाव, भाजपा 200 सीटों का दावा कर रही थी लेकिन तीन सीटों से 77 पर पहुंची। उसकी इस उपलब्धि को लोगों ने कम आंका तो क्या आम आदमी पार्टी के गुजरात में 5 सीट जीतने और लगभग 13 प्रतिशत वोट पाने को कम आंका जा रहा है। मुझे ऐसा नहीं लगता है।
कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश में आप
आम आदमी पार्टी खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है। उसको लग रहा है कि कांग्रेस जैसे-जैसे गिर रही है उसकी जगह वह ले सकती है। इसलिए आप देखिए कि आम आदमी पार्टी उन राज्यों में ज्यादा जोर लगा रही है जहां कांग्रेस नंबर दो की स्थिति में है। अनुमान, पूर्वानुमान, आकलन, विश्लेषण ये सब कुछ भी हो सकता है लेकिन तथ्य अपनी जगह पर अटल रहते हैं। तथ्य ये है कि आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब के बाहर कहीं कामयाब नहीं हो पाई। पहले उसका उद्देश्य था कि वह छोटे राज्यों से शुरू करेगी, पहले वहां सरकार बनाएगी और वहां से ताकत जुटाकर बड़े राज्यों की ओर बढ़ेगी। छोटे राज्यों में उसे उस तरह से कामयाबी नहीं मिली। हालांकि, उसने बड़े राज्य में भी कोशिश की। उत्तर प्रदेश गए वहां सबकी जमानत जब्त हो गई। उसके अलावा उत्तराखंड, गोवा, हरियाणा और गुजरात चुनाव में किस्मत आजमाई। कुछ दिनों पहले ही मैंने कहा था कि अरविंद केजरीवाल ने गुजरात जाकर अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल की है। गुजरात विपक्षी दलों की कब्रगाह बन गया है। वहां जो जाएगा उसका मारा जाना तय है। वहां बीजेपी दिन-प्रतिदिन मजबूत होती जा रही है। सरकार लंबे समय तक रहे, एंटी-इन्कमबेंसी बढ़ती जाए तो जो सत्तारूढ़ दल है वह खतरे में होता है और जो विपक्षी दल है उसके बढ़ने की संभावना दिनों-दिन बढ़ती जाती है। मगर गुजरात एक अपवाद है जहां सत्तारूढ़ दल बढ़ता जा रहा है। 27 साल की एंटी-इन्कमबेंसी के बावजूद बढ़ रहा है और रिकॉर्ड कायम कर रहा है। गुजरात के इतिहास में 156 सीटें आज तक किसी पार्टी ने नहीं जीती जो भाजपा ने इस चुनाव में जीता है।
गुजरात जाना केजरीवाल की राजनीतिक भूल
अरविंद केजरीवाल की एक आदत है जो बनी है 2013 में शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़कर। वह उस समय दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं। उनके खिलाफ चुनाव लड़े और जीत गए तो उनको लगा कि अगर मुकाबला करना है तो जो शीर्ष पर है उससे मुकाबला करो, उसके खिलाफ अपने को पेश करो कि हम उसके बराबर हैं, उसको चुनौती दे रहे हैं। इसीलिए 2014 में बनारस गए नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए। वहां क्या हुआ सबको पता है। बनारस की सीट तो जीतना छोड़ दीजिए, पूरे उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली, बल्कि बनारस के अलावा किसी सीट पर जमानत नहीं बची। आम आदमी पार्टी सिर्फ पंजाब में चार सीटें जीत पाई जो 2019 में घटकर एक सीट हो गई। मेरी नजर में गुजरात जाना अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी। यह जो एक परसेप्शन बन रहा था कि वह राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उभर रही है उसकी हत्या हो गई। अरविंद केजरीवाल को गुजरात में जो कुछ मिला और जितना उन्होंने दावा किया था दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। गुजरात से पहले उत्तराखंड, गोवा या फिर उत्तर प्रदेश में भी आम आदमी पार्टी ने अपना वही फॉर्मूला अपनाया कि हम सत्ता में आएंगे तो बिजली-पानी फ्री देंगे, हमारा तो वर्ल्ड क्लास का एजुकेशन और हेल्थ का मॉडल है। हम आपको वह सब सुविधाएं देंगे जो दिल्ली में दे रहे हैं। ये जो आडंबर बनता है वह कुछ समय तक चलता है। यह बुलबुले की तरह होता है जिसका जीवन बहुत लंबा नहीं होता है। यही आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के झूठ का है। उनका एजुकेशन और हेल्थ का जो मॉडल है उससे इस देश को बचाना चाहिए। यह ऐसा मॉडल है जिसमें 7 साल में कोई नया स्कूल नहीं बनता है, जिसमें क्लासरूम को अपग्रेड किया जाता है भ्रष्टाचार के लिए। यह ऐसा मॉडल है जिसमें 7 साल में कोई नया अस्पताल नहीं बनता है लेकिन दावा है कि दुनिया का बेस्ट मॉडल है, पूरे देश को और सभी राज्यों को इसको अपनाना चाहिए।
रेवड़ी संस्कृति को जनता ने नकारा
गुजरात, उत्तराखंड, गोवा, उत्तर प्रदेश के लोगों ने कहा कि ये जो रेवड़ी संस्कृति है वह अपने पास रखो। यह जो मिथक बनाया गया था कि अरविंद केजरीवाल जहां जाएंगे, खासतौर से पंजाब के बाद जहां जाएंगे मुफ्त की घोषणा करेंगे कि पानी-बिजली, स्वास्थ्य-शिक्षा देंगे और इसके बाद चुनाव जीत जाएंगे, वह मिथक पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है कि इसके कारण लोग वोट देते हैं। मैं बार-बार कहता हूं कि दिल्ली और पंजाब की राजनीतिक परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं जिनकी वजह से आम आदमी पार्टी को कामयाबी मिली। केवल मुफ्त बिजली-पानी की वजह से कामयाबी नहीं मिली, अगर कामयाबी का सिर्फ यही फॉर्मूला होता है तो हिमाचल प्रदेश, गोवा, उत्तराखंड में भी सरकार बन जाती है। इन राज्यों के मतदाताओं ने आखिर मुफ्त के इन प्रलोभन से क्यों इंकार किया और दिल्ली-पंजाब के लोग इसमें क्यों फंसे। मैं पहले भी बता चुका हूं, एक बार फिर संक्षेप में दोहरा देता हूं। दिल्ली और पंजाब में जो नंबर एक की पार्टी थी वह उस समय उस गति से गिर रही थी जैसे एवरेस्ट से किसी चीज को गिरा दिया जाए। दिल्ली में नंबर दो की जो पार्टी थी भाजपा उसकी कोई क्रेडिबिलिटी नहीं बन पा रही थी। इसलिए आम आदमी पार्टी को बीच से निकल कर ऊपर पहुंचने का रास्ता मिल गया। यही पंजाब में था। कांग्रेस उसी तरह से गिर रही थी और अकाली दल लोगों के मन से पूरी तरह उतर चुका था इसलिए आम आदमी पार्टी को मौका मिल गया। उसके अलावा जिन राज्यों में आम आदमी पार्टी गई उनमें से किसी में ऐसी परिस्थिति नहीं थी। जब तक किसी राज्य में ऐसी परिस्थिति नहीं बनती है तब तक आम आदमी पार्टी के लिए गुंजाइश नहीं है। वह नई राजनीति की बात करते हैं। वह कहते हैं कि हम राजनीतिक बदलाव के लिए आए हैं लेकिन भारतीय राजनीति की वास्तविकता से इंकार करके आप राजनीति नहीं कर सकते।
भारतीय राजनीति की वास्तविकता से परे है आप
भारतीय राजनीति की वास्तविकता में दो चीजें खास हैं। पहली विचारधारा, अगर आपकी पार्टी या संगठन का आधार कोई विचारधारा नहीं है तो वह टिक नहीं सकेगा। जैसे आपके पास बालू हो, ईंट हो, अगर सीमेंट नहीं हो तो वह स्ट्रक्चर टिक नहीं सकता। कुछ दिन खड़ा रहेगा और हवा से भी गिर सकता है। आम आदमी पार्टी की स्थिति यही है। दूसरा है संगठन, संगठन के बिना कोई राजनीतिक दल काम नहीं कर सकता। आम आदमी पार्टी के संगठन का जो तरीका है वह टॉप टू डाउन अप्रोच है यानी उनका संगठन ऊपर से बनता है। दुनिया में जहां भी जनतंत्र है और जब से है वहां नीचे से संगठन बनता है। जो नीचे से उठता है वही भार उठा सकता है, वही गाड़ी को आगे खींच सकता है। जो ऊपर है वह बोझ है। आम आदमी पार्टी के संगठन का जो ढांचा है वह एक बोझ की तरह है। उसमें से एक ईंट भी खिसकी तो वह भरभरा कर गिरेगा। मेरी नजर में उसके गिरने में ज्यादा समय नहीं है। पंजाब की हालत बहुत ज्यादा खराब है। वहां की सरकार कुछ ही महीनों में लोगों की नजर से उतर चुकी है। लोगों में यह भावना है कि उन्होंने गलती कर दी। उन्हें गलती का अहसास अभी से होने लगा है। आमतौर पर किसी नई पार्टी या नई सरकार के लिए एक-डेढ़ साल का समय हनीमून पीरियड होता है। आम आदमी पार्टी के साथ ऐसा नहीं हुआ। पंजाब में अगर आज कोई सर्वेक्षण हो जाए तो आम आदमी पार्टी सबसे अलोकप्रिय पार्टी के रूप में उभर कर आएगी। दिल्ली में वह इसलिए टिकी हुई है क्योंकि वहां कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति में कोई सुधार ही नहीं हो रहा है। बीजेपी का जो कोर वोट है वह उससे ऊपर बढ़ नहीं पा रही है। इसके अलावा दिल्ली में बीजेपी की समस्या लीडरशिप की है। जब तक ये दो मुद्दे बीजेपी हल नहीं करती तब तक दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को हरा नहीं सकती।
राष्ट्रीय मुद्दों पर अस्पष्टता
भारतीय राजनीति की जो तीसरी चीज है, राजनीति ही नहीं बल्कि सामाजिक जीवन की जो सच्चाई है वह है जाति। इसे आप सामाजिक आधार के रूप में भी देख सकते हैं। जातीय या सामाजिक आधार के बिना, अलग-अलग वर्ग समूहों में अपनी पैठ बनाए बिना कोई राजनीतिक दल सर्वाइव नहीं कर सकता। पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी इसलिए सर्वाइव कर रही है कि दिल्ली कैपिटल सिटी है इसलिए यहां जातिवाद उस तरह से नहीं है जैसे बाकी राज्यों में है। यहां जातीय अस्मिता की राजनीति वैसी नहीं है। पंजाब में सिख, गैर सिख, दलित, गैर दलित वर्गों में तो लोग बंटे हुए हैं लेकिन जातियों का वह प्रभाव नहीं है जैसा उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र में है। इसलिए आम आदमी पार्टी को इन दो राज्यों में सफलता मिल गई। इन दो राज्यों से बाहर उसे सफलता तब तक नहीं मिलेगी जब तक इन तीन चीजों पर उसकी स्थिति साफ नहीं होती। चौथी बात, आम आदमी पार्टी का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर कोई विचार नहीं है। सेक्युलरिज्म या कम्युनलिज्म के बारे में उसका क्या स्टैंड है, हिंदुत्व या इस्लाम के बारे में वह क्या सोचती है। कुल मिलाकर उसकी जो विचारधारा समझ में आती है वह है गंगा गए तो गंगादास, जमुना गए तो जमुनादास यानी जहां जब जैसा माहौल हो उस तरह का बन जाओ। यह खेल ज्यादा दिन चलता नहीं है। दिल्ली में यह दिखना शुरू हो गया है। एमसीडी का चुनाव आम आदमी पार्टी जीत गई है। 15 साल से एमसीडी पर काबिज बीजेपी को उसने हराया है। इससे आम आदमी पार्टी और बीजेपी विरोधी खुश हो सकते हैं लेकिन जो इसके संकेत हैं वह आम आदमी पार्टी को डराने वाले हैं। मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस का साथ दिया। दंगों के समय अरविंद केजरीवाल की जो भूमिका थी उसके कारण। जब आप स्टैंड नहीं लेंगे तो यही हश्र होगा।
दो तरह की पार्टियां हैं। एक कांग्रेस है जो दो नाव की सवारी करती है और बीच में रहती है। यह शुरू हुआ था शाहबानो मामले और अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के समय से। तब से संतुलन साधने की कोशिश में कांग्रेस हर बार नीचे गिरती रही है। न इधर के रहे, न उधर के रहते हैं। आम आदमी पार्टी उससे अलग है। वह किसी नाव पर सवार होने की कोशिश नहीं करती इसलिए किनारे पर खड़ी है। डूबेगी तो नहीं लेकिन कभी नदी पार नहीं कर पाएगी। नदी के उस पार जाने का उसका सपना धरा ही रह जाएगा। जब तक वह तय नहीं करती कि किस नाव की सवारी करनी है, जब तक इन मुद्दों पर स्पष्टता नहीं लाती तब तक वह ज्यादा दूर तक नहीं जा सकती है। तकनीकी रूप से वह भले ही राष्ट्रीय पार्टी बन गई हो उसका कोई मतलब नहीं है। सीपीआई और सीपीएम को भी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त है। राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने से आम आदमी पार्टी कहीं नहीं पहुंच रही है, जहां थी वहीं है। बदली नहीं तो वहीं रहेगी और बदलने में ज्यादा देर की तो वहां भी नहीं रह पाएगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)