प्रदीप सिंह।
देश की राजनीति में बड़े अविश्वसनीय परिवर्तन हो रहे हैं। जो घटनाएं हो रही हैं, जिस तरह का घटनाक्रम चल रहा है उनको सुनकर देखकर कई बार लगता नहीं कि यह अपने देश में हो रहा है। अप्रैल महीने में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) की कांग्रेस- यानी एक तरह से कहें तो अखिल भारतीय सम्मेलन- होने वाला है। कांग्रेस के पहले पार्टी एक ड्राफ्ट रेजोल्यूशन- जो पॉलिटिकल रेजोल्यूशन का ड्राफ्ट होता है- सभी स्टेट यूनिट्स को भेजती है। उस पर उनसे राय लेती है। उसके बाद फाइनल ड्राफ्ट बनता है। इस बार जो ड्राफ्ट भेजा गया है उसमें ऐसी बात कही गई है जिस पर बड़ा हंगामा मचा है।
कांग्रेस पार्टी कह रही है कि सीपीएम केरल में खत्म हो गई है। उसने अंदर खाने भारतीय जनता पार्टी से से समझौता कर लिया है, हाथ मिला लिया है। सीपीआई कह रही है कि सीपीएम को यह अपना स्टैंड बदलना पड़ेगा। कांग्रेस तो यहां तक कह रही है कि अब सीपीएम का स्थान किसी भी राष्ट्रीय गठबंधन में नहीं हो सकता। तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही है।
पहले तो जान लें कि मामला क्या है? सीपीएम ने अपने ड्राफ्ट रेजोल्यूशन में कहा है कि वह यह नहीं मानती कि केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार एक फासिस्ट या नियो फासिस्ट सरकार है। उन्होंने कहा कि हमने कभी नहीं कहा कि मोदी रेजीम फासिस्ट या नियो फासिस्ट है। आगे उन्होंने कहा कि “हमने यह भी नहीं कहा कि देश में फासिज्म आ गया है। हम जो कह रहे हैं वह सिर्फ इतना है कि 10 साल से लगातार सत्ता में रहने के कारण सारी राजनीतिक शक्तियां बीजेपी और आरएसएस के हाथ में आ गयीं। इसकी वजह से नियो फासिज्म के कैरेक्टरिस्टिक दिखने लगे हैं। सिर्फ इतना कहा है हमने।”
याद कीजिए इससे पहले जब सीताराम येचुरी (सीपीएम के राष्ट्रीय महासचिव) जीवित थे, तब वह मोदी और भाजपा-आरएसएस की तुलना कर रहे थे। खासतौर से मोदी की तुलना हिटलर की तानाशाही प्रवृत्तियों से करते हुए वे गिना रहे थे कि किस-किस तरह से मोदी सरकार के काम फासिस्ट नेताओं के काम की तरह हैं। क्या सीपीएम वहां से अपना पूरा रास्ता बदल रही है- यूटर्न ले रही है? विरोधियों की तो बात छोड़ दीजिए सीपीएम के साथी दल यह सवाल उठा रहे हैं।
लेखक, तुषार गांधी ने तो यहां तक कह दिया कि सीपीएम लाल झंडे का लाल गलीचा बिछा रही है- आरएसएस का स्वागत कर रही है। केरल में अब इतनी एक्सट्रीम प्रतिक्रिया क्यों आ रही है? उसकी वजह यह है कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस 10 साल से लगातार कह रही कि देश में फासिज्म आ गया है- जनतंत्र खत्म हो गया है- मोदी ने सारी संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता खत्म कर दी है। राहुल गांधी दुनिया भर में घूम-घूम कर कह रहे थे कि आइए और जनतंत्र को बचाइए। उन्होंने नारा दिया भारत में संविधान खतरे में है और लोकसभा चुनाव में यह अभियान चलाया। अब भी वह अपने इस मुद्दे पर कायम हैं। ऐसे माहौल में सीपीएम का भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बोलना उसे कैसे रास आ सकता है?
कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों की दृष्टि में तो इसको पक्ष में ही बोलना कहेंगे हालांकि सीपीएम पक्ष में नहीं बोल रहे बल्कि जो सच्चाई है वही कह रहे हैं। उनका कहना कि देश में जिस दिन फासिज्म आ जाएगा उस दिन देश का पूरा पॉलिटिकल स्ट्रक्चर बदल जाएगा। जो लोग कह रहे हैं कि देश में फासिज्म आ गया है- या यह मोदी की फासिस्ट रेजीम है- या नियो फासिस्ट रेजीम है… उनसे सीधी सी बात पूछिए वे प्रमाण दें कि किस आधार पर ऐसा कह रहे हैं। इसका कोई जवाब नहीं है किसी के पास… बस हमने ठप्पा लगा दिया- सर्टिफिकेट जारी कर दिया- इसे आप सब लोग मान लीजिए।
तो केरल में जो सीपीएम है वह पुरानी वाली सीपीएम नहीं है जिसे हम देखते आये थे। उससे अलग है… खासकर पिनराई विजयन के केरल का मुख्यमंत्री बनने के बाद से। दरअसल सीपीएम सिमटकर केरल तक रह गई है। वह पिनराई विजयन की सीपीएम बन गई है। केरल में जिस तरह का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है- या कहें धार्मिक ध्रुवीकरण है- उसमें सीपीएम को एक तरह से हिंदू पार्टी के रूप में माना जाता है। मुसलमान बहुत कम वोट देते हैं… या, नहीं के बराबर वोट देते हैं। सीपीएम के जीतने का कारण यह है कि उसे हिंदू और क्रिश्चियन वोट मिलते हैं। यह कॉम्बिनेशन उसे जिताता है। भारतीय जनता पार्टी की नजर भी इसी वोट बैंक पर है। सीपीएम को शायद यह लग रहा है कि अगर वह भाजपा से सीधा टकराव मोल लेगी तो उसके लिए अपना हिंदू वोट बचाना मुश्किल हो जाएगा।
ऐसे में कुछ लोग यह कह रहे हैं कि यह सीपीएम का एक टैक्टिकल मूव है। वह चुनाव से पहले इस तरह की टैक्टिस अपना रही है जिससे उसका हिंदू वोट कंसोलिडेटेड रहे। वह भाजपा-आरएसएस के विरोध में उस तरह से नहीं दिखना चाहती जिस तरह से कांग्रेस पार्टी या एलडीएफ में शामिल उसके सहयोगी दल। केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट में सीपीआई नहीं है पर उसकी कोई विशेष ताकत नहीं है। वैसे भी वामपंथी दल सिमटकर केरल तक रह गए हैं। पहले तीन राज्यों पश्चिम बंगाल। त्रिपुरा और केरल में उनकी सरकारें हुआ करती थीं। पश्चिम बंगाल में पिछले 13 साल से ममता बनर्जी हैं। उसके अलावा त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार दूसरी बार चुनकर आ चुकी है। केरल में सीपीएम को चुनौती इस बार कांग्रेस पार्टी से है। 2026 में जब विधानसभा चुनाव होगा तो 10 साल की एंटी इनकंबेंसी हो जाएगी। केरल में तीस पैंतीस सालों से परंपरा रही कि हर चुनाव में सरकार बदलती रही है। वहां दोनों गठबंधन के बीच वोट शेयर का अंतर आधा से एक फीसदी का हुआ करता था। पिछले यानी 2021 के चुनाव में पहली बार यह परंपरा टूटी और सीपीएम अर्थात लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार दोबारा चुन कर आई। अब सीपीएम हैट्रिक लगाने की कोशिश में है। कांग्रेस उस हैट्रिक को रोकने की कोशिश कर रही है। लेकिन केरल में कांग्रेस के अंदर भी बहुत सारी समस्याएं हैं।
अप्रैल में होने वाली कांग्रेस का सीपीएम की केरल की राजनीति पर ही नहीं, पूरे देश की राजनीति पर थोड़ा बहुत असर पड़ सकता है। भाजपा ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है भाजपा भी ये तौल रही होगी कि आखिर सीपीएम आरएसएस और बीजेपी पर सीधा हमला क्यों नहीं कर रही है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब अभी तुरंत नहीं मिलने वाला है। सीपीएम की अप्रैल में होने वाली कांग्रेस में फाइनल रेजोल्यूशन क्या आता है और जो रेजोल्यूशन पास होता है उसमें क्या होता है- उसके बाद ही सही तस्वीर का पता चलेगा। लेकिन यह आप मानकर चलिए कि केरल की राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत मिलना शुरू हो गया है।
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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)