प्रमोद जोशी।
जून 2020 में गलवान-संघर्ष के बाद से भारत और चीन के रिश्तों में काफी कड़वाहट आ गई है। ऐसा लगता है कि भारत ताइवान और तिब्बत के सवाल पर अपनी परंपरागत नीतियों से हट रहा है। हालांकि इस आशय की कोई घोषणा नहीं की गई है, पर इशारों से लगता है कि बदलाव हो रहा है।
भारत में चीन के राजदूत सन वाइडॉन्ग ने शनिवार, 13 अगस्त को एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान उम्मीद जताई कि भारत को ‘वन चाइना’ पॉलिसी के प्रति अपने समर्थन को दोहराएगा। वाइडॉन्ग का ये बयान ऐसे समय आया है जब एक दिन पहले ही भारत ने स्पष्ट किया कि इस नीति पर समर्थन को दोहराने की कोई ज़रूरत नहीं है।
चीनी-उम्मीद
वाइडॉन्ग ने कहा, मेरा मानना है कि ‘वन चाइना’ पॉलिसी को लेकर भारत के नज़रिए में बदलाव नहीं आया है। हमें उम्मीद है कि भारत ‘एक चीन सिद्धांत’ के लिए समर्थन दोहरा सकता है। समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार वाइडॉन्ग ने पूर्वी लद्दाख में गतिरोध को लेकर कहा कि दोनों पक्षों को बातचीत जारी रखनी चाहिए।
इससे पहले शुक्रवार को एक मीडिया ब्रीफ़िंग में, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने ‘एक-चीन’ नीति का उल्लेख करने से परहेज़ किया। उन्होंने कहा कि ‘प्रासंगिक’ नीतियों पर भारत का रुख सबको पता है और इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।
चीन ने दावा किया है कि अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद लगभग 160 देशों ने वन-चाइना पॉलिसी के लिए अपना समर्थन दिया है। चीन, ताइवान को अपना अलग प्रांत मानता है। अतीत में भारत ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ का समर्थन किया था, लेकिन पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सार्वजनिक रूप से या द्विपक्षीय दस्तावेज़ों में इस रुख़ को दोहराया नहीं है।
17 साल पहले
आखिरी बार भारत ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ पर करीब 17 साल पहले 2005 में बात की थी जब अपनी भारत यात्रा के दौरान, तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, भैरों सिंह शेखावत और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी। उस समय भारतीय पक्ष ने तब स्वीकार किया था कि उन्होंने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को चीन जनवादी गणराज्य के क्षेत्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी और तिब्बतियों को भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया।
भारतीय पक्ष ने तब यह भी स्वीकार किया था कि भारत ‘एक चीन’ नीति को मानने वाले पहले देशों में से एक है और हमारी ‘वन चाइना नीति’ अपरिवर्तित रहेगी। उस संयुक्त बयान के बाद भारत ने फिर कभी ‘एक चीन’ का ज़िक्र नहीं किया।
अब शुक्रवार 12 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने ‘एक चीन’ जैसे शब्दों को प्रेस वार्ता के दौरान बोलने से जिस तरह परहेज किया है, उससे लगता है कि भारत इस सिद्धांत को ठंडे बस्ते में डाल रहा है। यों भी पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह चीन ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की सीमाओं में घुसपैठ करने की कोशिश की है, उसे देखते हुए भारत का उसे समर्थन दे पाना संभव नहीं लगता। राजनीतिक दृष्टि से भी भारत सरकार के लिए ऐसा करना जोखिम भरा होगा।
चीनी-रुख का परिणाम
पूर्व विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि चीन को भी ‘एक भारत’ नीति का समर्थन करना होगा। जब भी कश्मीर का मुद्दा उठता है तो चीनी-समर्थन पाकिस्तान के पक्ष में होता है। जब चीन ही ”एक भारत” का समर्थन नहीं कर सकता तो वह भारत से ‘एक चीन’ पर समर्थन कब तक और कैसे ले सकेगा?
ताइवान को लेकर चीन इतना बेचैन क्यों है, इसके लिए पहले चीन की वन चाइना पॉलिसी को समझना होगा। वर्ष 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) ने वन चाइना पॉलिसी बनाई। इसमें न सिर्फ ताइवान को चीन का हिस्सा माना गया बल्कि जिन जगहों को लेकर उसके अन्य देशों के साथ टकराव थे, उन्हें भी चीन का हिस्सा मानते हुए अलग पॉलिसी बनी थी।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन इन हिस्सों को प्रमुखता से अपना बताता रहा है। इस पॉलिसी के तहत मेनलैंड चीन और हांगकांग-मकाऊ जैसे दो विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र भी आते हैं। चीन स्वशासित ताइवान को अपना क्षेत्र होने का दावा करता है और द्वीप पर जाने वाले विदेशी राजनेताओं के खिलाफ मुखर भी रहता है। ताइवान शुरू से ही चीन के दावे को खारिज करता आया है। वहां का अपना संविधान भी है। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ताइवान को अपने देश का हिस्सा बताती है। चीन इस द्वीप को फिर से अपने नियंत्रण में लेना चाहता है।
(लेखक ‘डिफेंस मॉनिटर’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)